व्यंग्य : आजकल जिसे देखिये वही फेमस हुआ जा रहा है। खबरिया चैनलों की मेहरबानी से कौन, कहां और कैसे, फेमसिया जायेगा, कोई नहीं जानता। रात को सही सलामत सोये और सुबह उठते ही पाते कि आप फेमसिया गये। दफ्तर गये खाली हाथ और घर लौटे सिर पर फेमस का पंख लगा कर। राह चलते किसी गड्ढे में गिर गये, किसी पुल से लटक गये या मूड हुआ तो पानी टंकी अथवा टीवी टावर पर चढ़ गये और फेमस हो गये। किसी की बीबी को लेकर भाग गये और लगे हाथ आपके साथ दो दम्पति फेमस हो गये।
किसी के घर में इनकम टैक्स का छापा पड़ गया और वह फेमस हो गया। कोई चुनाव जीत कर फेमस हो रहा है तो कोई नीलामी जीत कर। कोई राह चलते किसी लड़की को छेड़ कर और उसके कोमल हाथों से दो-चार तमाचे या चप्पलें खाकर फेमस हो रहा है। कोई अपनी महबूबा के पास भाग कर फेमस हो रहा है तो कोई महबूबा के पास से भाग कर। कोई प्यार के लिये नौकरी को तिलांजलि देकर फेमस हो रहा है तो कोई नौकरी के लिये अपने प्यार को धत्ता बताकर।
कोई अपनी प्रेमिका को अपनी बीबी के हाथों पिटवाकर फेमस हो रहा है तो कोई खुद ही अपनी प्रेमिका या बीबी के हाथों पिटकर। कोई पब में या सड़कों पर महिलाओं की पिटाई करके फेमस हो रहा है तो कोई पिटाई खाकर। कोई किसी को चड्ढी भेजकर फेमस हो रहा है तो कोई किसी को साड़ी भेजकर। कहने का मतलब यह है कि फेमस नाम की लूट है, लूट सके तो लूट। हर किसी के लिये हर समय और हर जगह सुविधा, क्षमता और स्थिति के अनुसार फेमस होने के मौके और विकल्प उपलब्ध हैं।
संचार क्रांति के वर्तमान युग में पैदा होने वाली नयी पीढ़ी को यह जानकर घोर आश्चर्य होगा कि हमारे देश में एक ऐसा भयानक दौर गुजरा है जब अच्छे-खासे लोगों को फेमस होने के लाले पड़े रहते थे। यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि उस समय फेमस होने के लिये कितने जतन करने पड़ते थे। उस समय आदमी महान हो सकता था, ईमानदार हो सकता था, प्रतिभाशाली हो सकता था, मेहनती हो सकता था, दयावान हो सकता था, देश प्रेमी हो सकता था, समाजसेवी हो सकता था, अमीर हो सकता था, गरीब हो सकता था लेकिन फेमस नहीं हो सकता था। लाखों-करोड़ों में एकाध को ही फेमस होने का सौभाग्य मिल पाता था। लोग सालों तक समाजसेवा में जुटे रहते थे, मोटे-मोटे ग्रंथ लिख डालते थे, दर्जन-दो दर्जन फिल्मों में एक्टिंग कर लेते थे, सैकड़ों फिल्मों में गीत गा लेते थे, सीमा पर अकेले ही दुश्मनों के दांत खट्टे कर देते थे और बहादुरी के कारनामे दिखाकर दस-बीस लोगों की जान बचा लेते थे – तब भी लोग फेमस होने की हसरत लिये ही इस दुनिया से कूच कर जाते थे।
लेकिन आज फेमस होने के लिये कुछ करने की जरूरत नहीं है। आज तो लोग किसी क्षेत्र में पर्दापण करने से पहले ही फेमस होने का जुगाड़ कर लेते है। गायन और अभिनय की कई प्रतिभायें अपना फिल्मी कैरियर ‘शुरू’ करने से पहले ही फेमस हो लेती हैं, कि फिल्म रिलीज होने के बाद फेमस होने के मौके मिले या नहीं। कई लेखक बिना लिखे ही फेमस हो लेते हैं। कई लोग कुछ बनकर, कई लोग कुछ नहीं बनकर और कई लोग कुछ बनने की प्रतीक्षा करते रहने के कारण फेमस हो जाते हैं। कई पैदा होकर फेमस हो जाते हैं और कई पैदा हुये बगैर ही। कई ऐसे भी हैं जो फेमस होकर भी पैदा नहीं होते। कई लोग जो किसी कारण से जीते जी फेमस नहीं हो पाते वे मरने के बाद भूत बनते ही फेमस हो जाते हैं और साथ में वे वीरान हवेलियां भी फेमस हो जाती है जिनमें वे पनाह लेते हैं।
आज संचार क्रांति की मेहरबानी से फेमस होने के मामले में सभी भेदभाव समाप्त हो गये हैं, तमाम सामाजिक विसंगतियां दूर हो गयी है। आज फेमस होने के लिये कुछ होना, कुछ करना जरूरी नहीं है। किसी अन्य मामले में हमारे देश में समानता आयी हो या नहीं, फेमस बनाये जाने के मामले में पूरी समानता है। आज हर काई फेमस बन सकता है – अमीर और गरीब, ईमानदार और बेइमान, समाज सुधारक और समाज बिगाड़क, नायक और खलनायक, पुजारी और जुआरी।
यही तो है रियल डेमोक्रेसी।
जय हो !
व्यंग्यकार विनोद विप्लव पत्रकार व कहानीकार भी हैं। वे संवाद समिति ‘यूनीवार्ता’ में समाचार संपादक हैं। उनका ब्लॉग http://vinodviplav.wordpress.com है। उनसे [email protected] या 9868793203 से संपर्क कर सकते हैं।