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‘कुएं का मेढक बनकर ही खुश हूं मैं’

मैं टीवी पत्रकार नहीं, एंकर बनना चाहता था। लेकिन कुछ वक्त का सितम तो कुछ सीनियरों का सितम, सबने मिलकर मुझे ऐसा तोड़ा कि मैंने अपने एंकर बनने के सपने को ही तोड़ डाला। खैर, इसके बाद मैंने अपनी अलग राह चुनी। मेहनत-मशक्कत कर अपनी पहचान बनाने की राह। डगर बड़ी कठिन थी पग-पग पर लंगड़ी मारने वाले खड़े थे। उनकी पूरी ऊर्जा अपने काम में नही, दूसरों के काम में रोड़ा अटकाने में लगती थी। हमेशा जेब में मक्खन की टिक्की रखकर चलने वाले ये वरिष्ठ पत्रकार चापलूसी की नई नई परिभाषा गढ़ने और जी हजूरी के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने में मशगूल रहते थे। जो जूनियर काम करे, वो इन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते थे। लिहाजा ऐसे लोगों की टांग किस तरह खींची जाए, इसका गणित लगाने में ही इन वरिष्ठों का पूरा दिन बीत जाता था। खैर, हम भी थे अड़ियल टट्टू, इन मक्खनबाजों की साजिशों को कहां कामयाब होने देते। वैसे, आज मैं जिस भी मुकाम पर हूं, उसका पूरा श्रेय इन्ही वरिष्ठों को देना चाहूंगा।

<p align="justify">मैं टीवी पत्रकार नहीं, एंकर बनना चाहता था। लेकिन कुछ वक्त का सितम तो कुछ सीनियरों का सितम, सबने मिलकर मुझे ऐसा तोड़ा कि मैंने अपने एंकर बनने के सपने को ही तोड़ डाला। खैर, इसके बाद मैंने अपनी अलग राह चुनी। मेहनत-मशक्कत कर अपनी पहचान बनाने की राह। डगर बड़ी कठिन थी पग-पग पर लंगड़ी मारने वाले खड़े थे। उनकी पूरी ऊर्जा अपने काम में नही, दूसरों के काम में रोड़ा अटकाने में लगती थी। हमेशा जेब में मक्खन की टिक्की रखकर चलने वाले ये वरिष्ठ पत्रकार चापलूसी की नई नई परिभाषा गढ़ने और जी हजूरी के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने में मशगूल रहते थे। जो जूनियर काम करे, वो इन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते थे। लिहाजा ऐसे लोगों की टांग किस तरह खींची जाए, इसका गणित लगाने में ही इन वरिष्ठों का पूरा दिन बीत जाता था। खैर, हम भी थे अड़ियल टट्टू, इन मक्खनबाजों की साजिशों को कहां कामयाब होने देते। वैसे, आज मैं जिस भी मुकाम पर हूं, उसका पूरा श्रेय इन्ही वरिष्ठों को देना चाहूंगा। </p>

मैं टीवी पत्रकार नहीं, एंकर बनना चाहता था। लेकिन कुछ वक्त का सितम तो कुछ सीनियरों का सितम, सबने मिलकर मुझे ऐसा तोड़ा कि मैंने अपने एंकर बनने के सपने को ही तोड़ डाला। खैर, इसके बाद मैंने अपनी अलग राह चुनी। मेहनत-मशक्कत कर अपनी पहचान बनाने की राह। डगर बड़ी कठिन थी पग-पग पर लंगड़ी मारने वाले खड़े थे। उनकी पूरी ऊर्जा अपने काम में नही, दूसरों के काम में रोड़ा अटकाने में लगती थी। हमेशा जेब में मक्खन की टिक्की रखकर चलने वाले ये वरिष्ठ पत्रकार चापलूसी की नई नई परिभाषा गढ़ने और जी हजूरी के नए-नए कीर्तिमान स्थापित करने में मशगूल रहते थे। जो जूनियर काम करे, वो इन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते थे। लिहाजा ऐसे लोगों की टांग किस तरह खींची जाए, इसका गणित लगाने में ही इन वरिष्ठों का पूरा दिन बीत जाता था। खैर, हम भी थे अड़ियल टट्टू, इन मक्खनबाजों की साजिशों को कहां कामयाब होने देते। वैसे, आज मैं जिस भी मुकाम पर हूं, उसका पूरा श्रेय इन्ही वरिष्ठों को देना चाहूंगा।

अगर ये टांग खिंचाई न करते और हर काम में रोड़ा न अटकाते तो मेरे अंदर कुछ कर दिखाने का जुनून पैदा होना अंसभव था। इंटर्न से ट्रेनी और ट्रेनी से जब मैं कुछ सालों का तजुर्बेकार पत्रकार बना, तब तक इस परम सत्य का साक्षात्कार मुझे हो चुका था कि अब यहां से बिना माई-बाप के पत्रकारिता की गाड़ी आगे बढ़ना मुश्किल है। हम तो थे मीडिया में अनाथ। ले-दे कर एक गुरु था जो हमसे भी दो हाथ आगे था। ठसक से छह महीने नौकरी करना और फिर चैन से बेरोजगारी की बंसी बजाना उनका शगल था। हमने भी ठान लिया कि अब दिल्ली को टाटा करना है। मुझे वक्त रहते ये अक्ल आ चुकी थी कि अगर किसी के रहमोकरम से बडे़ चैनलों में छोटी नौकरी मिल भी गई तो बगैर माई-बाप के इसे जाने में देर नहीं लगेगी। इसके बाद मैं छोटे चैनलों का बड़ा पत्रकार बनता रहा जिसका सफर आज भी जारी है। दिल्ली-नोएडा की बड़ी मंडी का छोटा नाम बनने के बजाए आज मैं छोटी मंडियों का बड़ा नाम यानि कुएं का मेढ़क बनकर ही अपने जीवन को धन्य मानता हूं।

इस पूरे सफर में सिर्फ एक कसक, एक टीस बार-बार होती है और वो होती है मीडिया में गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले लोगों को लेकर। आज इतने सालों बाद मैं समझ चुका हूं कि यहां रिश्ते सिर्फ स्वार्थ की बुनियाद पर टिके हैं। मैने हमेशा कोशिश की अपनी टीम के लोगों को उस बुरे तजुर्बे से बचाने की जिससे गुजरकर मैं आया था। मैंने हमेशा उनकी प्रतिभा को संवारनें, उन्हे मौका देने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लेकिन शायद मेरी किस्मत में ही लिखा है, नेकी कर दरिया में डाल। न जाने मुझे कितने ही दोस्तों ने उस वक्त धोखा दिया, जिस वक्त मुझे उनकी जरूरत थी। बार-बार मैं भरोसा करता रहा और हर बार धोखा खाता रहा। मैंने हमेशा उस वक्त लोगों को मौका दिया जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। और वो भी मुझे उस वक्त ही धोखा देते जिस वक्त मुझे उनकी जरूरत होती।

अब तो इंतजार रहने लगा है अगले धोखे का। अपने इस पूरे सफर से मैं बेहद खुश हूं, जहां भी हूं, अपनी मेहनत और अपने संघर्षों के बलबूते हूं। किसी की मेहरबानी की बदौलत नहीं। कुल मिलाकर समंदर की छोटी मछली बनने के बजाए आज मैं कुएं का मेढक बनकर ही खुश हूं। अगर मैं टरटराता भी हूं तो भी लोगों के पसीने छूट जाते हैं क्योंकि इस कुएं का सम्राट मैं हूं।  

जे थॉमस

चैनल हेड

‘वॉयस ऑफ नेशन’ न्यूज चैनल

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