हिंदी ब्लागिंग में कई ऐसे गंभीर मुद्दों पर खुली चर्चा होती है, जिसे आमतौर पर पत्रिकाएं या अखबार उपेक्षित किए रहते हैं। हाहाकार नामक ब्लाग चलाने वाले पत्रकार और साहित्यकार अनंत अपने साथ हुए एक वाकये का जिक्र ”लेखकों का शोषण करते हैं संपादक” नामक पोस्ट में करते हैं। इसमें उन्होंने लिखने के बदले पैसे न दिए जाने की प्रवृत्ति का अपने साथ हुए वाकये के जरिए खुलासा किया है और पत्रिका निकालने में होने वाले अन्य खर्चों में लेखकों को दिए जाने वाले भुगतान को भी शामिल करने की मांग उठाई है। लिखने के बदले पैसे न मिलने से हिंदी लेखकों की स्थापित हुई दीनहीन छवि के खिलाफ अनंत की यह पोस्ट एक सार्थक शुरुआत है, जिसके बाद सचेत लेखक न सिर्फ लिखने के बदले पूरे हक के साथ पैसे की मांग कर सकते हैं बल्कि ऐसा न करने वाले संपादकों की ब्लाग के जरिए पोल-खोल भी खोल सकते हैं।
अनंत अपने ब्लाग पर अपनी बात की शुरुआत कुछ इस तरह करते हैं-
”चंद दिनों पहले की बात है, सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी। फोन उठाने पर आवाज आई कि मैं पुष्प बोल रहा हूं। चूंकि सोते- सोते फोन उठाया था इसलिए अनायास मुंह से निकला कौन पुष्प? उलाहने भरे स्वर में पुष्प जी ने बताया कि वो ‘साहित्य केसरी’ के संपादक विनोद पुष्प बोल रहे हैं। तबतक मैं कुछ व्यवस्थित हो चुका था और उनके उलाहना भरे स्वर के बाद सचेत भी। इधर-उधर की बातचीत के बाद पुष्प जी कहा कि उनकी पत्रिका साहित्य केसरी के लिए मुझसे एक लेख चाहिए। मैंने छूटते ही पूछा कि लेख लिखने के कितने पैसे मिलेंगे। इतना सुनते ही पुष्प जी हत्थे से उखड़ गए और कहने लगे कि– “मेरी पत्रिका साहित्य केसरी एक आंदोलन है और मैं आपसे एक आंदोलन में भागीदारी चाहता हूं और आप हैं कि आंदोलन में भागीदारी के एवज में पैसे मांग रहे हैं। मैं पिछले पच्चीस वर्षों से अनियतकालीन पत्रिका निकाल रहा हूं और आजतक किसी ने आप जैसी बेशर्मी से लेख लिखने के पैसे नहीं मांगे।” चूंकि पुष्प जी मेरे पैतृक शहर से हैं और वरिष्ठ साहित्यकार भी इसलिए मैं उनकी सुनता रहा और वो मुझे तमाम सिद्धांतों की घुट्टी पिलाने में जुटे रहे, मेरे जमीर, मेरी प्रतिबद्धता आदि आदि को झकझोरने की नाकाम कोशिश करते रहे। जब वो थोड़ा रुके तो मैंने उनसे पूछा कि आप पत्रिका निकालने के लिए जो कागज खरीदते हैं उसका भुगतान करते हैं? क्या छपाई के लिए प्रेस वाले को पैसे देते हैं? क्या पैकिंग और पोस्टिंग पर खर्च करते हैं? जब इन सवालों के जबाव मुझे सकारात्मक मिले, तो फिर मैंने उनसे पूछा कि लेखकों को पैसा क्यों नहीं देते? मेरे इस सवाल का उनके पास कोई तर्कसंगत उत्तर नहीं था, जाहिर था उन्होंने फोन काट दिया। इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया और मैं काफी देर तक इसपर विचार करता रहा कि कि क्या लेख लिखने के लिए पैसे मांगकर मैंने गलत किया? इस घटना ने मेरे सामने एक और बड़ा सवाल खड़ा कर दिया था वो सवाल जो हिंदी लेखकों की अस्मिता से जुड़ा था। मैं काफी देर तक हिंदी में निकल रहे सैकड़ों साहित्यिक पत्रिका के बारे में सोचता रहा और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि लेखकों को मानदेय तो सिर्फ दो तीन पत्रिकाएं ही देती हैं…”
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