आम आदमी पार्टी की घोषणा के साथ ही अरविंद केजरीवाल बार-बार कह रहे हैं कि उनका उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना नहीं वरन् व्यवस्था परिवर्तन करना है। केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात ऐसे कर रहे हैं जैसे मानो व्यवस्था कोई घर का बर्तन है, जिसे बदल कर नया बर्तन ले आएंगे। माना सारी बीमारियों की जड़ अंग्रेजों द्वारा दी गई यह व्यवस्था ही है, मगर क्या इसे बदलना इतना आसान है जितना केजरीवाल समझ रहे हैं?
अंग्रेजी दासतां से आजादी मिलने का ऐसा अवसर था, जब हम अपनी व्यवस्था स्थापित कर सकते थे मगर तब आजादी मिलने की खुशी में नेतागण इतने मग्न हो गए कि इस बारे में सोचा ही नही, संविधान बनाया तो मगर उस में अंग्रेजों की तर्ज पर विधायिका तो अपनी बना ली मगर, कार्य पालिका और न्याय पालिका को जस का तस अपना लिया जो आज तक अंग्रेजी ढर्रे पर ही चल रही है। संविधान में कुछ मौलिक अधिकारों का समावेश किया गया, मगर आज हालत यह है कि मौलिक अधिकारों की भैंस उस के खूंटे पर बंधी है जिसके हाथ में लाठी है। कुल मिला मौलिक अधिकारों के बारे में हालत ‘जबरा मारे और रोने भी न दे’ जैसी है। इस प्रकार थेाड़े फेर बदल के साथ संविधान में अंग्रजों की पुरानी व्यवस्था को ही अपना लिया गया, जिस का खामियाजा आज तक जनता भुगत रही है। समय समय पर इस व्यवस्था में संविधान संशोधन कर थोड़ी बहुत काट छांट की जाती रही मगर व्यवस्था का मूल स्वरूप वही रहा।
इस व्यवस्था को बदलने का दूसरा अवसर श्रीमती इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा कर दिया, जिसके विरोध में स्व. जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन चलाया जिसे सम्पूर्ण क्रान्ति का नाम दिया गया। इमरजेंसी हटने के बाद सारा गैर कांग्रेसी विपक्ष जेपी के नेतृत्व में एक मंच पर आ गया और जनता पार्टी अस्तित्व में आई। सब ने मिल कर चुनाव लड़ा और पूरे उत्तर भारत से कांग्रस का सूपड़ा साफ हो गया, तब इसे दूसरी आजादी का नाम दिया गया। दूसरी आजादी के जश्न में नेता इतने मग्न हो गए कि व्यवस्था परिवर्तन पर ध्यान ही नहीं दिया, नतीजा यह हुआ कि ढाई साल में ही यह व्यवस्था सम्पूर्ण क्रान्ति और दूसरी आजादी दोनों को लील गई और सत्ता फिर इंदिरा गांधी की झोली में चली गई।
श्रीमती गांधी की हत्या के बाद एक अवसर और आया जब इस व्यवस्था को बदला जा सकता था। श्रीमती गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में देश की जनता ने कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत से सत्ता सौंप दी। इतना विशाल बहुमत व्यवस्था में व्यापक फेर बदल के लिए पर्याप्त था, मगर व्यवस्था के पोषकों ने नौसिखिए राजीव गांधी को इस प्रकार घेर लिया कि वह बस देखते ही रह गए। राजीव गांधी की इस कमजोरी का लाभ वीपी सिंह ने उठाया और राजीव गांधी की मिस्टर क्लीन की छवि को तहस नहस कर दिया। भ्रष्टाचार के विरूद्ध वीपी सिंह का बोफोर्स आंदोलन भी एक सशक्त आंदोलन था जिस ने राजीव सरकार की चूलें हिला दी थीं। उस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया तो लगभग नहीं था और प्रिंट मीडिया भी इतना सशक्त नहीं था, मगर इस सब के बावजूद वीपी सिंह ने इतने जोरदार तरीके से अभियान चलाया था कि बोफोर्स का नाम आम आदमी की जबान पर चढ़ गया था और बोफोर्स के बारे में लतीफे तो बन ही गए थे, लोग बोफोर्स की उपमा भी देने लगे थे। अरविंद केजरीवाल को आज मीडिया का भयंकर सहयोग मिल रहा है, मगर वह अभी तक अपने किसी मुद्दे को आम आदमी की जबान पर नही चढा पाए हैं, उस आम आदमी की जबान पर जिसके नाम की वह टोपी पहनते हैं और जिस के नाम पर पार्टी बना कर चल रहे हैं। मामला राबर्ट वाड्रा का हो, नितिन गडकरी का, अनिल अंबानी का हो या काले धन का इन में से कोई भी मामला भारी प्रचार के बावजूद जनमानस में कोई उद्वेलन तो दूर हलचल तक नही पैदा कर पाया है, मगर इस भारी प्रचार ने केजरीवाल के मन में इस इच्छा को अवश्य बल प्रदान कर दिया है कि हर खुलासे के बाद उन्हें सत्ता अपने निकट आती दिखने लगती है।
जहां तक अरविंद केजरीवाल के खुलासों की बात है तो ये खुलासे अब तमाशे बन कर रह गए हैं, जिन से लोगों का खूब मनोरंजन हो रहा है। माना यह जा रहा है कि इस प्रकार के खुलासे या तमाशे किसी परिवर्तन का आधार नहीं बन सकते। हां इन खुलासों के रूप में मीडिया और खास तौर इलेक्ट्रानिक मीडिया को बढिया मसाला मिल जाता है, जिसे वह कई दिन तक या अगले खुलासे तक भुनाता रहता है। इन खुलासों की सारी बहस टीवी स्क्रीन और अखबार के पन्नों तक सिमट कर रह जाती है। आम आदमी जिस के नाम पर केजरीवाल ने पार्टी बनाई है उसकी अभी तक इस बहस में कोई भागीदारी नहीं हो पाई है। जब तक किसी बहस में आम आदमी शामिल नहीं होता तब तक बहस का मुद्दा प्रभावी नहीं हो पाता। कुल मिलाकर हालत यह है कि केजरीवाल द्वारा उठाया गया एक भी मुद्दा अभी तक आम आदमी को प्रभावित नहीं कर पाया है।
जहां तक भीड़ की बात है तो केजरीवाल और अन्ना हजारे के जंतर मंतर और रामलीला मैदान के आंदोलनों में खासी भीड़ दिखाई दी थी तथा इस के सीधे प्रसारण ने इस भीड़ को और बढ़ाया था, मगर भीड़ और वोट में काफी अंतर होता है। सारी भीड़ वोट में नहीं बदली जा सकती। इस के लिए हमारे सामने किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत का उदाहरण है। टिकैत की एक आवाज पर मुजफ्फरनगर, मेरठ और दिल्ली में लाखों किसान जुट जाते थे। इस आंदोलन के आरंभिक दौर में नेताओं के प्रति टिकैत का रवैया भी वैसा ही था जैसा जंतर मंतर पर अन्ना हजारे और केजरीवाल सहित उन की टीम का था। बाद में टिकैत में भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पैदा हुई और अपने पुत्र राकेश टिकैत को उप्र विधान सभा के चुनाव में उतार दिया, मगर लाख प्रयासों के बाद भी वह राकेश को चुनाव नहीं जिता पाए थे। इसका सीधा मतलब यही है कि आंदोलन के दौरान जो भीड़ दिखती है वह सारी आप को वोट दे देगी यह भ्रम नहीं पालना चाहिए, मगर अरविंद केजरीवाल चूंकि अभी राजनीति के नए खिलाड़ी हैं इस लिए वह समझ रहे हैं कि जो भीड़ उनके आंदोलन के दौरान जुटती है, वह सारी उन्हें वोट भी दे देगी। उनका यह भ्रम तभी दूर होगा जब किसी चुनाव में उनके प्रत्याशी को मिले वोटों की गिनती सामने आएगी।
यहां एक यक्ष प्रश्न यह भी है कि केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को वोट कौन देगा? अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि आम मतदाता किसी नीति या कार्यक्रम से प्रभावित हो कर मतदान नहीं करता, अगर कभी करता भी था तो आज ऐसा नहीं है, क्योंकि आज मतदाता विभिन्न खेमों में बंट गया है। दलित मतदाता का अलग खेमा है तो मुस्लिम मतदाता का अलग और पिछड़ा वर्ग के मतदाता का भी अपना खेमा है। मतदाताओं के इस रूझान को देखते हुए आज कोई दलित मतदाता आम आदमी पार्टी या केजरीवाल को मत देने वाला नहीं है। कमोबेश यही हालत मुस्लिम मतदाता की भी है। विछड़े वर्ग के पास हर दल में अपने नेता हैं इस लिए वहां भी आम आदमी पार्टी को सहारा नहीं मिल सकेगा। अब ले दे कर सवर्ण मतदाता बचता है जिस पर अधिक कब्जा भाजपा का है और बाकी पर कांग्रेस काबिज है, इस हालत में आम आदमी पार्टी के भविष्य का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। फिर अभी तक खुलासों के अतिरिक्त केजरीवाल आम आदमी से जुड़े किसी मुद्दे पर कोई दमदार आंदोलन भी नहीं चला पाए हैं। ले दे कर दिल्ली में बिजली को लेकर उन्होंने कुछ प्रयास किए हैं, मगर जब चुनाव आएगा तो आम आदमी के एक बड़े भाग के लिए बिजली का मुद्दा गौण और अपनी बिरादरी, धर्म या क्षेत्र का मुद्दा खास हो जाएगा। इस हालत में केजरीवाल को भी प्रत्याशियों का चयन प्रत्याशी के काम के आधार पर नहीं बल्कि उसी आधार पर करना होगा, जिस आधार पर अन्य दल करते हैं।
केजरीवाल की आम आदमी पार्टी में भाई भतीजावाद नहीं होगा यह अच्छी बात है, पार्टी का हिसाब पारदर्शी होगा यह भी अच्छी बात है, पार्टी में एक लोकपाल होगा यह भी अच्छी बात है और पार्टी में राइट अ रिकाल का प्रबंध होगा यह और भी अच्छी बात है, मगर इस सब से आम आदमी को तो कुछ मिलने वाला है नहीं। इस के अलावा कुछ और भी बातें हैं जिन पर केजरीवाल की राय अभी स्पष्ट नहीं है। केजरीवाल आरक्षण के बारे में क्या विचार रखते हैं, पदोन्नति में आरक्षण के बारे में तो वह खुल कर आरक्षण विरोधियों के साथ आ ही गए हैं। बाकी आरक्षण के बारे में वह क्या सोच रखते हैं इस बारे में भी उनकी राय का पता नहीं है। खुदरा व्यापार में एफडीआई के बारे में उनकी सोच का भी अभी पता नहीं है, आम आदमी पार्टी की अर्थिक नीतियों के बारे में भी अभी कोई नहीं जानता। कुल मिला कर लोगों को अभी केवल इतना पता है कि केजरीवाल भ्रष्टाचार मिटाना चाहते हैं, मगर भ्रष्टाचार तो यहां चुनावों का एक शाश्वत मुद्दा रहा है और इस अकेले मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। काले धन की बात भी केजरीवाल जोर शोर से उठा रहे हैं तो यह कोई नई बात नहीं है, भाजपा भी यह मुद्दा उठा रही है और बाबा रामदेव भी इस मुद्दे को ले कर रामलीला मैदान में आंदोलन कर चुके हैं, मगर यह मुद्दा आम आदमी को प्रभावित नहीं कर पा रहा है।
आम आदमी की आज सब से बड़ी चिंता यह है कि मंहगाई से उसे कैसे छुटकारा मिले या उस के बच्चों को रोजगार कैसे मिले। इस बारे में मंहगाई से राहत दिलाने का अभी तक कोई फार्मूला केजरीवाल पेश नहीं कर पाए हैं। जन लोकपाल भी अन्ना हजारे के साथ केजरीवाल का भी मुद्दा रहा है, मगर यह मुद्दा मतदाता को कितना प्रभावित करता है, इसका पता पिछले दिनों हुए उत्तराखंड के चुनावों से चल जाता है। इन चुनावों से पहले बीसी खंडूड़ी की भाजपा सरकार ने उत्तराखंड में लोकपाल बिल पास किया था, जिस की अन्ना हजारे केजरीवाल और इन की सारी टीम ने भूरि भूरि प्रशंसा की थी तथा चुनाव के समय ये लोग खंडूड़ी का समर्थन करने उत्तराखंड भी गए थे। चुनाव नतीजे आने पर भाजपा के हाथ से उत्तराखंड निकल गया और जिन बीसी खंडूड़ी की इन लोगों ने प्रशंसा की थी, वह मुख्यमंत्री होते हुए भी चुनाव हार गए। हिमांचल प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय केजरीवाल ने वीरभद्र सिंह पर भूमि घोटालों के आरोप लगा कर कई खुलासे किए थे, मगर इनका कोई प्रभाव मतदाता पर नहीं पड़ा वीरभद्र सिंह चुनाव जीत गए और उनके नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार भी बन गई। इस से अनुमान लगाया जा सकता है कि जनलोकपाल और भ्रष्टाचार के बारे में केजरीवाल के खुलासे आम आदमी के लिए कितने प्रभावशाली हैं।
लेखक महरउद्दीन खां वरिष्ठ पत्रकार हैं.