इलाहाबाद। संगम की रेती को माथे लगा त्रिवेणी मइया का आशीष मांगा। पड़ोसियों से गले मिले और फिर मिलने का वादा कर लाखों कल्पवासी संगम नगरी से अपने-अपने घरों को विदा हो गए। ना कोई नेवता ना कोई चिट्ठी, बिन बुलाए ही करोड़ों लोगों का हर साल सैकड़ों-हजारों किमी दूर से यहां आना। एक अलौकिक उत्सव… जहां शब्द फीके पड़ जाते हैं। संगम के किनारे बालू की रेती पर आनंद लेना… इसे सिर्फ महसूस ही करके जाना जा सकता है।
घर-गृहस्थी छोड़ एक महीने के लिए संगम के किनारे रेती में सोना, खाना, रहना सब कुछ चला। साथ में पूजा-पाठ, सुबह-शाम घाट पर स्नान करने जाना हो या सत्संग-प्रवचन सुनने, इन सभी में साथ आए-गए। ऐसे में लगाव होना स्वाभाविक था। माघी पूर्णिमा स्नान के बाद कल्पवासियों के विदाई की बेला थी। महीनेभर बाद घर वापस लौटने का समय आया तो त्रिवेणी मइया और पड़ोसी से बिछड़ने का गम चेहरों पर साफ दिखा। थोड़े दिनों का ही सही, स्नेह और लगाव तो हो ही जाता है।
सो, विदा होते कल्पवासियों के चेहरे पर गम साफतौर पर दिखा। गले मिलकर विदा होते समय कई महिलाओं, खासकर बूढ़ी दादी अम्माओं की आंखें भर आईं। भर्राए गले से बामुश्किल आवाज निकली-‘अच्छा! चल रहे हैं दुलहिन। उधर, ‘बहुरियों’ ने भी उन्हें आश्वस्त किया-जाओ अम्मा, अच्छे से रहना। …त्रिवेणी मइया चाहेंगी तो अगले साल फिर यहीं मिलेंगे।’ घर लौटते समय बोरियों में बचे राशन को देकर अन्नदान किया और कपड़े की पोटलियों में गंगा मइया, साधु-संतों का आशीष ले आए।
कुंभ नगरी से शिवाशंकर पांडेय की रिपोर्ट.