जेपी समूह को 409 करोड़ माफ (भाग-2)

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: देश आजाद हुआ पर आदिवासी नहीं : उन्नीस सौ सैतालिस में 15 अगस्त को देश अंग्रेजों की गुलामी से भले ही आजाद हो गया हो लेकिन जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए गुलामी का दौर उसी दिन से शुरू हो गया था। उत्तर प्रदेश के जंगली इलाकों में आजाद आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों के लिए भी ऐसा ही था। "द पब्लिक लीडर" के पास मौजूद दस्तावेजों के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष-1950 में जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार कानून अस्तित्व में आया जो कैमूर वन क्षेत्र के दक्षिण में स्थित मिर्जापुर (अब सोनभद्र) जिले की दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों में दो हिस्सों में लागू हुआ। कुछ हिस्सों में यह कानून 30 जून, 1953 को लागू हुआ तो कुछ हिस्सों में 1 जुलाई, 1954 को।

हालांकि राज्य सरकार ने आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों वाले इलाके यानी वन क्षेत्रों को 1952 में ही अपने कब्जे में ले लिया था। इसमें वन ग्राम, पहाड़, नदी, तालाब आदि शामिल थे। राज्य सरकार ने 11 अक्टूबर, 1952 को अधिसूचना जारी कर राज्य की समस्त जंगल भूमि को प्रबंधन के लिए उत्तर प्रदेश वन विभाग को सौंप दिया, जिससे अंग्रेजों के जमाने में जंगलों में आजाद जीवन व्यतीत करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की जिंदगी पर पहरा लग गया। इसकी जद में दुद्धी क्राउन स्टेट का इलाका भी आ गया, जिसमें तत्कालीन मिर्जापुर जिले की दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों की लाखों एकड़ वन भूमि और इस पर आबाद सैंकड़ों वन ग्राम शामिल थे। इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इस इलाके में मौजूद खनिज संपदा को ध्यान में रखते हुए चुर्क और डाला सीमेंट फैक्ट्रियों की स्थापना की। हालांकि यह यहां के मूल बाशिंदों के लिए बहुत ज्यादा लाभकारी साबित नहीं हुआ। 1 जनवरी, 1967 को राज्य की कांग्रेस सरकार ने दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसील की सात लाख नवासी हजार एकड़ वन भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित कर दी। इससे इस इलाके में आबाद सैकड़ों वन ग्रामों के हजारों आदिवासियों का जमीनी अधिकार छीन गया और लोग अपने हक की मांग को लेकर मुखर होने लगे। अक्सर वन विभाग के अधिकारियों से अनका विवाद होता रहता।
   
दस्तावेजों पर गौर करें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने 1 अप्रैल, 1972 को उत्तर प्रदेश राज्य सीमेंट निगम लिमिटेड (यूपीएससीसीएल) नामक कंपनी का निर्माण किया और हस्तांतरण विलेख (ट्रांसफर डीड) के माध्यम से चुर्क और डाला सीमेंट फैक्ट्रियों की समस्त संपत्ती उसे हस्तांतरित कर दी। साथ ही राज्य सरकार ने 24 अक्टूबर, 1973 को यूपीएससीसीएल को कोटा ग्राम की 815.828 हेक्टयर भूमि 20 वर्षों के लिए खनन पट्टे पर दे दिया, जिसमें 380.635 हेक्टयर भूमि भारतीय वन अधिनियम (भा.व.अ.) की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। यह खनन पट्टा 1 मई, 1976 से 30 अप्रैल, 1996 तक दिया गया था। 19 जनवरी, 1973 को राज्य सरकार ने यूपीएससीसीएल को दूसरा खनन पट्टा बीस वर्षों के लिए बिल्ली मारकुंडी और मकरीबारी ग्राम की 1266 हेक्टेयर भूमि पर आबंटित किया, जिसमें 552.603 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसकी अवधि 27 सितंबर, 1978 से 26 सितंबर, 1998 तक थी। इसके अलावा सरकार ने 24 अक्टूबर, 1974 को पनारी (निंघा) ग्राम की 87 हेक्टेयर भूमि पर 10 वर्षों के लिए खनन पट्टा कंपनी को आबंचित किया जिसमें 70.328 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसकी अवधि 19 अप्रैल, 1982 से 18 अप्रैल, 1992 तक थी। इस तरह राज्य सरकार ने यूपीएससीसीएल को उपरोक्त गांवों में कुल 2168.828 हेक्टेयर भूमि खनन पट्टे के रूप में आवंटित की, जिसमें 1003.566 हेक्टेयर भूमि भा.व.अ. की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी।

जैसे-जैसे राज्य सरकार इस प्रकार की सुधारात्मक कदमों को उठा रही थी, वैसे-वैसे इन इलाकों के आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। 25 अक्टूबर, 1980 को वन संरक्षण अधिनियम-1980 प्रभाव में आया, जिसके बाद भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 और धारा-20 के तहत अधिसूचित वन भूमि पर खनन अथवा अन्य गैर-वानिकी कार्य के लिए केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंतालय से अनुमति लेना अनिवार्य हो गया। भारतीय वन अधिनियम और वन संरक्षण अधिनियम के लागू होने से तत्कालीन मिर्जापुर के दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों के वन क्षेत्रों में निवास करने वाले आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों की मुसीबतें और बढ़ गईं। वन विभाग के नुमाइंदे वन ग्रामों में रहने वाले लोगों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे दर्ज कर उन्हें उनकी पुस्तैनी जमीनों से बेदखल करने लगे। इलाके के मूल बाशिंदों की समस्याओं से चिंतित म्योरपुर स्थित बनवासी सेवा आश्रम के प्रेम भाई ने 1982 में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई। उच्चतम न्यायालय ने बनवासी सेवा आश्रम के पत्र को जनहित याचिका के रूप में स्वीकार किया और मामले पर सुनवाई शुरू की। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार ने गठित महेश्वर प्रसाद कमेटी का गठन किया। कमेटी ने विवादित क्षेत्र पर अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार और उच्चतम न्यायालय को सौंपी।
    
इस मामले में विभिन्न पक्षों को सुनने के बाद उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती की पीठ ने 20 नवंबर, 1986 को ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसके आधार पर मिर्जापुर जनपद के कैमूर वन क्षेत्र के दक्षिण में स्थित दुद्धी और राबर्ट्सगंज तहसीलों की वन भूमि का सर्वे और उसकी बंदोबस्त प्रक्रिया शुरू हुई। उच्चतम न्यायालय के आदेश के अनुसार, भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत अधिसूचित वन भूमि को जनहित याचिका का अंश नहीं बनाया गया था, जिसके कारण इससे जुड़े मामलों पर कोई सुनवाई नहीं होनी थी। शीर्ष अदालत ने वन अधिकारियों को आदेश दिया था कि वे 1 दिसंबर, 1986 से छह हफ्तों के भीतर भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित भूमि की पहचान कर उसका सीमांकन करें। साथ ही शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया कि वे अदालत के दिशा-निर्देशों को बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित करें और 15 जनवरी, 1987 से तीन महीनों के अंदर भारतीय वन अधिनियम की धारा-6 (सी) के तहत स्थानीय लोगों के दावे स्वीकार करें। इसके अलावा न्यायालय ने 31 दिसंबर, 1986 तक पर्याप्त संख्या में भूलेख अधिकारियों की नियुक्ति करने का आदेश राज्य सरकार को दिया। शीर्ष अदालत ने यह भी आदेश दिया राज्य सरकार दुद्धी तहसील के दुद्धी, म्योरपुर, किरबिल और राबर्ट्सगंज तहसील के राबर्ट्सगंज तथा तेलगुड़वा स्थानों पर पांच अनुभवी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति करे जो उच्च न्यायालय इलाहाबाद की ओर से मुहैया कराए जाएंगे।
      
राज्य सरकार उनकी सहायता के लिए पर्याप्त संख्या में उन्हें सहायक और कर्मचारी मुहैया कराएगी। सभी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों को भारतीय अधिनियम की धारा-17 के तहत प्रदत्त अपीलीय अधिकारी का अधिकार होगा। उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी लिखा कि वन बंदोबस्त अधिकारी प्राप्त दावों की जांच करेंगे और उससे संबंधित आवश्यक दस्तावेज इलाके के अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के सामने रखेंगे। अतिरिक्त जिला न्यायाधीश इन दस्तावेजों की पड़ताल अपीलीय अधिकारी के रूप में करेंगे और उनके द्वारा दिया गया आदेश भारतीय वन अधिनियम के प्रावधानों के तहत अपेक्षित आदेश होगा। यदि अपीलीय अधिकारी प्राप्त दावे को स्वीकृति प्रदान कर देता है तो राज्य सरकार उस निर्णय का सम्मान करेगी और उसे लागू करेगी।

जारी…

शिवदास की यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है.

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