: सुप्रीम कोर्ट के आदेश बाद भी नहीं मिला आदिवासियों का हक : उच्चतम न्यायालय में उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व विभाग के तत्कालीन संयुक्त सचिव बीके सिंह यादव द्वारा पेश दस्तावेजों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा गठित महेश्वर प्रसाद कमेटी ने तत्कालीन मिर्जापुर जनपद के कैमूर क्षेत्र के दक्षिण में 433 गांवों को इस मामले से जुड़ा हुआ पाया था, जिनमें शीर्ष अदालत के आदेशों के अनुसार वन बंदोबस्त की प्रक्रिया पूर्ण की जानी थी। इनमें से 299 गांव दुद्धी तहसील में थे जबकि शेष 134 गांव राबर्ट्सगंज तहसील में थे।
विवादित इलाका 9 लाख 23 हजार 293 एकड़ का था, जिसमें से 58 हजार 937.42 एकड़ भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-20 के तहत संरक्षित वन घोषित हो चुकी थी। शेष 7 लाख 89 हजार 86 एकड़ भूमि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित थी। इसी इलाके के खम्हरिया, परबतवा, झीलोटोला, डोहडर और जरहा गांवों में नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) की रिहंद सुपर थर्मल पॉवर प्लांट के राख निष्पादन के लिए जरूरी भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत आ गई थी। इस मामले में शीर्ष अदालत ने 8 फरवरी, 1989 को साफ निर्देश दिया कि भारतीय वन अधिनियम-1927 की धारा-4 के तहत अधिसूचित भूमि वन संरक्षण अधिनियम-1980 की धारा-2 के तहत आती है। इसलिए एनटीपीसी के लिए आवश्यक है कि वह उक्त अधिनियम के प्रावधानों के तहत सक्षम अधिकारी से अनापत्ति प्रमाण-पत्र हासिल करे।
उच्चतम न्यायालय के आदेशों के तहत विशेष वन बंदोबस्त अधिकारियों ने स्थानीय लोगों के दावे प्राप्त किये और उन दावों की जांच की। उसके बाद उन्होंने सभी आवश्यक दस्तावेज अपने इलाके के अपीलीय अधिकारी के रूप में तैनात अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के सामने रखे। उन्होंने प्राप्त दावों और आवश्यक दस्तावेजों की जांच की और अपना फैसला सुनाया। समय-समय पर राज्य सरकार ने अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के आदेशों के अनुरूप वन बंदोबस्त प्रक्रिया पूर्ण होने की अधिसूचना जारी की।
अगर उच्चतम न्यायालय के 16 फरवरी, 1993 के आदेश पर गौर करें तो न्यायमूर्ति बीएल लूम्बा ने अपनी सातवीं रिपोर्ट में 17 वन गांवों में जारी वन बंदोबस्त प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए थे, जिनमें छतरपुर, नगवां, गोइठा, गुलालहरिया, जामपानी, कुदरी, धूमा, घघरी, सुखरा, किरबिल, सुपाचुआं, सांगोबांध, नौडीहा, जरहा, मधुवन, बैलहत्थी और करहिया गांव शामिल थे। इस मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेशों पर गौर करें तो साल 1994 में कैमूर सर्वे की वन बंदोबस्त प्रक्रिया के तहत आने वाले 433 गांवों में से 421 गांवों की वन बंदोबस्त प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी। इन गांवों में कोटा और ओबरा(पनारी) के वे गांव भी शामिल थे, जिनमें यूपीएससीसीएल और उत्तर प्रदेश राज्य खनिज विकास निगम (यूपीएसएमडीसी) की खनन वे लीजें स्थित थीं जो जय प्रकाश एसोसिएट्स लिमिटेड को हस्तांतरित की गई हैं। शेष 12 गांवों में स्थित भूमि की बंदोबस्त प्रक्रिया जारी थी।
उच्चतम न्यायालय ने 18 जुलाई, 1994 के आदेश में कहा था, “13 मई, 1994 को इस न्यायालय के आदेश के अनुसार केवल एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश काम कर रहे हैं। हम निर्देश देते हैं कि वे 30 सितंबर, 1994 तक काम करते रहेंगे और उस तिथि तक वे सभी अपीलों और याचिकाओं की सुनवाई संपन्न कर लेंगे। हम समझते हैं कि कैमूर सर्वे एजेंसी की शेष इकाई को बनाए रखने की कोई वजह नहीं है। हम 1 अगस्त, 1994 से उन इकाइयों को बंद करने का निर्देश देते हैं।…न्यायमूर्ति लूम्बा ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में उद्धत किया है कि भारतीय वन अधिनियम की धारा-4 के तहत अधिसूचित 12 गांवों की लगभग 26,947 एकड़ भूमि उत्तर प्रदेश भू-राजस्व अधिनियम की धारा-54 के तहत है। हम उत्तर प्रदेश सरकार के राजस्व सचिव को निर्देश देते हैं कि वह ऐसे विशेष अधिकारियों की नियुक्ति करे जो 20 नवंबर, 1986 के आदेश के आलोक में इस विवादित भूमि के विवाद का समाधान करे।…हम राजस्व सचिव को यह भी निर्देश देते हैं कि वह विभिन्न अपीलों में अनुभवी अतिरिक्त जिला न्यायाधीशों के निर्णयों और विचारों को लागू करें।…हम इस केस की प्रक्रिया को बंद करते हैं। हालांकि हम विभिन्न पक्षों को यह अधिकार देते हैं कि जब भी आवश्यक हो, वे जरूरी दिशा-निर्देशों के लिए इस अदालत के पास आ सकते हैं।”
जारी…
शिवदास की यह रिपोर्ट मासिक पत्रिका "ऑल राइट्स" के फरवरी 2013 अंक में प्रकाशित हो चुकी है.