आज की पत्रकारिता का चेहरा पूरी तरह बदल गया है. पत्रकार कहने को तो लोकतंत्र के रक्षक होते हैं लेकिन खुद को डेमोक्रेटिक बनाने में घबराहट होती है. हमेशा डर बना रहता है कि कहीं उनकी पोल-पट्टी ना खुल जाए. जो पत्रकार दूसरों की अपने अखबारों में आलोचना करते हैं उन्हें अपनी आलोचना से डर लगता है. ऐसा ही मामला नईदुनिया, दिल्ली एडिशन में चल रहा है.
नई दुनिया के छोटे पत्रकारों को बलि का बकरा तथा मोटी सेलरी वालों को बचाने की खबरें भड़ास पर आने के बाद इस न्यूज पोर्टल को नई दुनिया के दिल्ली आफिस में बंद कर दिया गया है, ताकि हिप्पोक्रेट व धंधेबाज लोगों का सच उनकी टीम के लोगों के सामने ना आ सके. पर एक कहावत है कि बिल्ली के आंख बंद कर लेने से सच्चाई नहीं बदल जाती. कई अखबारों, कई चैनलों ने अपने अपने यहां इस पोर्टल को बंद कर रखा है, ताकि उनके संस्थानों में काम करने वाले सहकर्मी संस्थान के भीतर की गलतियों व गोरखधंधों के बारे में ना जान सके.
नईदुनिया, दिल्ली में इन दिनों छंटनी का दौर चल रहा है. पैसे बचाने के नाम पर छोटी सेलरी पाने वाले लोगों का बलिदान किया जा रहा है. जबकि संपादक आलोक मेहता के खास तथा मोटी-मोटी सेलरी पाकर एकाध खबर लिखने वालों को बचाया जा रहा है. पिछले कुछ दिनों में जिस तरह पढ़े-लिखे या काम करने वाले पत्रकारों को बाहर किया गया है या उनसे इस्तीफा मांगा गया है, उसको लेकर कर्मचारी आक्रोशित हैं. इसी कारण नईदुनिया प्रबंधन ने भड़ास पर आ रही खबरों से नाराज होकर इस पोर्टल को पढ़ने पर ही पाबंदी लगा दी है. पर सच्चाई यही है कि न्यू मीडिया के इस दौर में सूचनाएं हर किसी तक पहुंच ही जाती हैं चाहे कोई उस पर कितनी भी रोक लगाए. रोक लगाए जाने से ना तो भड़ास की सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा और ना ही पढ़ने वाले कर्मचारियों की सेहत पर, क्योंकि कहां-कहां पत्रकारों को खबर पढ़ने से रोकेंगे.