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भ्रष्‍ट पत्रकारिता (13) : विधानसभा में चंपूगिरी करके जमाते हैं धाक

विधानसभा के जितनी संख्या विधायकों की है, उससे कुछ ही कम संख्या प्रेस दीर्घा में बैठने वाले मीडिया कर्मियों की है। जिस हिसाब से थोक के भाव में मीडियाकर्मियों को प्रेस दीर्घा के पास निर्गत किए गए उसके चलते अब विधानसभा की ऊपर नीचे दो दीर्घाएं इतनी हाउसफुल है कि अब पत्रकार तीसरी दीर्घा की ओर लोग बढऩे लगे है। प्रेसदीर्घा के पास निर्गत करने का कोई मापदंड नहीं है। जिले से लेकर तहसील और मंडल स्तर तक के मान्यता प्राप्त पत्रकारों को सत्र कवरेज के पास निर्गत हुए हैं। ऐसे लोगों के पास निर्गत करने की सिफारिश करने वालों में अपने ही बीच के लोग है।

विधानसभा के जितनी संख्या विधायकों की है, उससे कुछ ही कम संख्या प्रेस दीर्घा में बैठने वाले मीडिया कर्मियों की है। जिस हिसाब से थोक के भाव में मीडियाकर्मियों को प्रेस दीर्घा के पास निर्गत किए गए उसके चलते अब विधानसभा की ऊपर नीचे दो दीर्घाएं इतनी हाउसफुल है कि अब पत्रकार तीसरी दीर्घा की ओर लोग बढऩे लगे है। प्रेसदीर्घा के पास निर्गत करने का कोई मापदंड नहीं है। जिले से लेकर तहसील और मंडल स्तर तक के मान्यता प्राप्त पत्रकारों को सत्र कवरेज के पास निर्गत हुए हैं। ऐसे लोगों के पास निर्गत करने की सिफारिश करने वालों में अपने ही बीच के लोग है।

प्रेस दीर्घा में बैठने वाले मीडियाकर्मियों की दिलचस्पी समाचार संकलन से ज्यादा इस बात की ज्यादा रहती है कि वे जिस दिन किसी मंत्री विधायक की चंपूगिरी करते हैं, वह उन्हें प्रेस दीर्घा में बैठा देख ले। यही नहीं सदन स्थगित होने या फिर विधायकों मंत्रियों के टंडन हाल या कैफेटेरिया में जाने पर यह चंपू टाइप के पत्रकार उनके पीछे तब तक लगे रहते हैं, जब तक उनसे भरपेट खाना या नाश्ता नहीं पा जाते। कुछ तो इनसे भी बढ़कर है कि जब सदन में जब मुख्यमंत्री उठने की मुद्रा में होते हैं, उससे पहले ही कार्यकर्ता से पत्रकार बने लोग विधानसभाध्यक्ष के कक्ष के बाहर मंडराने लगते हैं और मुख्यमंत्री के बाहर निकलते ही सुरक्षाकर्मियों के धकियाने के बाद भी मुख्यमंत्री तक पहुंचने, उन्हें अपना चेहरा दिखाने की हर कोशिश करते हैं।

व्यस्तता के बीच यदि मुख्यमंत्री ऐसे किसी पत्रकार की ओर मुखातिब हो जाएं तो उसे मानो मुंह मांगी मुराद मिल जाती है। मंत्रियों की चंपूगीरी करने वाले पत्रकारों में बहुतायत उन पत्रकारों की है जो पत्रकार बनने से पहले पार्टी वर्कर थे। नेतागिरी में दाल नहीं गली तो डायरी और सचिवालय और सत्र का पास बनवाकर पत्रकार गए। ऐसे पत्रकारों में कई महिला पत्रकार भी शामिल हैं। हालांकि मंत्री विधायकों की चंपूगिरी करने का यह फंडा कार्यकर्ता से पत्रकार बने इन लोगों को अपने वरिष्ठों से ही मिला है। एनेक्सी से लेकर सीएम आवास तक चेहरा दिखाने की होड़ और सबसे बेहतर अपने को साबित करने में सभी एक दूसरे की कमियां बताकर अपना नंबर बढ़वाने में लगे रहते हैं।

सत्र के दौरान पत्रकारों की आई बाढ़ का कारण ही है वास्तविक पत्रकारों को पटल कार्यालय से मिलने वाली सामग्री मिल नहीं पाती। फट्टेबाज टाइप के कार्यकर्ता से पत्रकार बने लोग साहित्य के नाम पर रद्दी बटोरने पहले ही पहुंच जाते है। बात यहीं तक खत्म होती तो ठीक था। सत्र के दौरान प्रेस दीर्घा का पास बनवाने लोगों में वे लोग भी शामिल है, जो सरकार से लाभ का पद पाने की प्रत्याशा में लगे हुए है। प्रिंट मीडिया की तरह से गली मोहल्लों में चलने वाले केबिलों के लोग भी हल्का फुल्का कैमरा लेकर टंडन हाल में मंडराया करते हैं। कैमरा नेताओं की कमजोरी के कारण ही आठवां पास या फिर हाईस्कूल फेल लोग प्रेस दीर्घा से लेकर कैफेटेरिया तक अपना रूतबा गालिब करते देखे जा सकते हैं। जिलों के कुछ पत्रकार भी प्रेस दीर्घा का पास बनवाकर अपने जिलों के मंत्रियों से सदन के बाहर पिछलग्गू बने घूमते हैं। प्रेस दीर्घा में बैठने वाले कुछ की जहां अपराधिक पृष्ठभूमि के हैं तो कुछ ऐसे भी हैं, जो नेताओं और अफसरों की मौज मस्ती का सामान जुटाने के आपूर्तिकर्ता भी है।

त्रिनाथ के शर्मा की रिपोर्ट. यह रिपोर्ट दिव्‍य संदेश में भी प्रकाशित हो चुकी है.

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