ऊंचे पद की नौकरी चाहिए तो बायोडाटा अलग ढंग से लिखना होगा

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संजय कुमार सिंह: पुराना साल – नया साल : संजय कुमार सिंह की नजर में…. पहले मुझे काम करने वाले नहीं मिलते थे पर अब अपने करने भर काम भी नहीं है : नौकरी खोजने, घर में होम थिएटर लगाने और एक वेबसाइट बनाने की इच्छा : अनुवाद, अनुवादक और अब अनूदित का उपयोग : मेरे लिए बीता साल इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि इस साल एक ज्ञान हुआ और मुझे सबसे ज्यादा खुशी इसी से हुई। अभी तक मैं मानता था कि जितना खर्च हो उतना कमाया जा सकता है। 1987 में नौकरी शुरू करने के बाद से इसी फार्मूले पर चल रहा था। खर्च पहले करता था कमाने की बाद में सोचता था। संयोग से गाड़ी ठीक-ठाक चलती रही।

शादी हुई, बच्चे हुए, जरूरत के सामान खरीदे, पारिवारिक- सामाजिक जरूरतें पूरी होती रहीं। पर गुजरे साल लगा कि खर्च बढ़ गया है या पैसे कम आ रहे हैं। हो सकता है ऐसा दुनिया भर में चली मंदी के खत्म होते-होते भी हुआ हो। मई 2002 में जनसत्ता की नौकरी छोड़ते समय यह नहीं सोचा था कि नौकरी नहीं करूंगा या बगैर नौकरी के काम चल जाएगा। पर सात साल कोई दिक्कत नहीं आई। आठवें साल आई तो और भी काफी कुछ सीखने-जानने को मिला पर वह ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है। मूल बात यही है कि ”खर्च किए जाओ, कमा लिया जाएगा” की अवधारणा फंसा सकती है। खासकर तब जब कमाने के बहुत सारे रास्ते उपलब्ध न हों। अपनी पुरानी अवधारणा को मैं गलत नहीं कहूंगा और फंसा नहीं, इसलिए ‘फंसा सकती है’ लिख रहा हूं।

अनुवाद के अपने धंधे से खर्च नहीं चला तो नौकरी के बाजार को टटोलना शुरू किया और पाया कि बहुत खराब स्थिति में भी मैं बगैर नौकरी के घर बैठे जितना कमा ले रहा था उतने की नौकरी आसानी से उपलब्ध नहीं थी (मन लायक तो बिल्कुल नहीं) और जिन साथियों से बात हुई उनसे पता चला कि मैं जो अपेक्षा कर रहा हूं वह ज्यादा है और मुझ जैसी योग्यता वाले के लिए उतने पैसे मिलना संभव नहीं है।

इसी क्रम में एमबीए कर लेने का ख्याल भी आया। बचपन जमशेदपुर में गुजरा है और इसलिए वहां के एक्सएलआरआई में अनुभवी पेशेवरों के लिए एक पाठ्यक्रम के विज्ञापन ने आकर्षित किया। पता लगाया तो मालूम हुआ कि एक साल के उस कोर्स की फीस थी 14 लाख रुपए, जी हां चौदह लाख रुपए। बाकी खर्च अलग। नौकरी करने की अपनी उम्र 14 साल ही रह गई है और ऐसे में यह आईडिया भी नहीं जमा। आशा की किरण 2010 के दौरान कई अखबारों के नए संस्करण शुरू होने से दिखी। लगता था स्थानीय संपादक बनने के लिए लोग कहां हैं। कोई न कोई तो पूछेगा ही पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मन लायक एक संस्थान में नौकरी की संभावना मालूम हुई तो आवेदन किया पर बुलाया ही नहीं गया (यह पता नहीं है कि वहां पैसे कितने मिलने थे)।

ऐसे में नौकरी दिलाने का धंधा करने वालों की इस बात पर भरोसा करना पड़ा कि ऊंचे पद की नौकरी चाहिए तो बायोडाटा अलग ढंग से लिखना होगा, पेशेवर तरीके से। पुराने साल में पांच हजार रुपए खर्च करके अपना प्रोफाइल तैयार करा लिया है। नए साल में नौकरी के बाजार को टटोलने के लिए इस प्रोफाइल का उपयोग करते रहने का इरादा है। मन लायक नौकरी मिलेगी इसकी संभावना तो नहीं है। पर अपनी औकात जानने के लिए भी नौकरी तलाशने का काम जारी रखूंगा। मिल गई तो भड़ास के पाठकों को जरूर बताऊंगा।

बाकी गुजरा साल ठीक-ठाक ही रहा है। न बहुत अच्छा ना बुरा। घर–परिवार में कोई अस्वस्थ हो जाए तो बड़ी परेशानी होती है। 2010 इस लिहाज से अच्छा रहा। अनुभव कुछ जरूर बढ़ गया। नौकरी तलाशते हुए धंधा बढ़ाने के विकल्प पर भी काम कर रहा था। पर अपना स्वभाव ऐसा है कि नहीं कि किसी से काम मांग सकूं। जो काम कराता या देता है उसका कर देता हूं जो नहीं देता उससे हाल-चाल भी नहीं पूछ पाता। काम मांगने की स्थिति अभी तक नहीं आई है। पर स्थिति खराब हो रही है इसका अहसास मुझे है। गूगल का अनुवाद भले ही संपादन करने के बाद भी कायदे का नहीं होता पर अगले 14 साल में भी ठीक नहीं होगा, ऐसा मानना मूर्खता होगी। पहले मुझे काम करने वाले नहीं मिलते थे पर अब अपने करने भर काम भी नहीं है।

इसके दो कारण हैं। एक तो इतने वर्षों से अनुवाद करते हुए अब बहुत कम समय में यह काम हो जाता है ज्यादा पैसे के चक्कर में किताबों का काम करता नहीं और विज्ञप्तियों में समय नहीं लगता है। एक दिन में छह हजार शब्द अनुवाद कर चुका हूं। पहले के हिसाब से यह तीन चार लोगों का काम है। दूसरा कारण यह भी है कि काफी लोग अनुवाद का काम कर रहे हैं। भले ही संगठित रूप से न कर रहे हों। इस तरह, मेरे काम में अब प्रतिस्पर्धा भी है और इस प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए सिर्फ गुणवत्ता नहीं मूल्यवर्धन (वाजारू भाषा में वैल्यू ऐड) की भी आवश्यकता है। यह कैसे हो सकता है, नए साल में सोचना है।

गुजरे साल के दौरान अनुवाद के काम ढूंढ़ने के क्रम में अनुवाद एजेंसियों से काम मिलने की संभावना मालूम हुई। पर वहां छोटे-बड़े हर काम के लिए बायोडाटा मांगा जाता है। 20 साल अनुवाद करने के बाद अब किसी नई बनी एजेंसी को बायोडाटा भेजना गले नहीं उतरता है और मैं काम नहीं मांगता। पर इसका एक रास्ता सोचा है। वह यह कि एक वेबसाइट बनाया जाए जहां अपने सदाबहार किस्म के अनुवाद (विज्ञप्तियों के साथ इनमें सूचनाप्रद और ज्ञानवर्धक आलेख भी हैं) रख दिए जाएं जो हिन्दी समाज के काम तो आएंगे ही अनुवाद का नमूना मांगने वालों को मैं इसका लिंक दे सकूंगा। बायोडाटा तो यहां रहेगा ही।

हिन्दी में विविध विषयों की जानकारी देने वाला यह एक उपयोगी वेबसाइट हो सकता है। इस वेब साइट पर वही सूचना या आलेख होंगे जिनका अनुवाद मैं करूंगा। उम्मीद है इस साइट पर मुफ्त में जगह पाने के लिए अनुवाद का काम बढ़ेगा। नहीं बढ़ा तो एक साधारण साइट की तरह चलता रहेगा। इसमें ज्यादा खर्च नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में अपनी उपस्थिति बन जाएगी – सो अलग। यह पत्रकारों के आम सूचनाप्रद साइट से अलग होगा। उम्मीद है आने वाले साल में यह वेबसाइट बन जाएगा और मेरे साथ-साथ हिन्दी समाज के लिए भी उपयोगी साबित होगा।

जीवन अकारथ जाने का भाव अभी तक नहीं आया है क्योंकि जो चाहा किया। बहुत ज्यादा कुछ करने की महत्त्वाकांक्षा न पहले थी और न अब है। बगैर खून पसीना बहाए जीवन की गाड़ी ठीक-ठाक चल रही है। दफ्तर समय पर पहुंचने, ट्रैफिक के झंझट से मुक्त सुकून से जी पा रहा हूं इसका संतोष है। एक बार भारत दर्शन और एक बार विश्व भ्रमण पर निकलने का इरादा है। इसके लिए अभी काफी समय है और इसीलिए यह मुश्किल नहीं लगता। दो-चार साल में इससे निपट लूं तो समाज सेवा के क्षेत्र में कूदा जा सकता है। रोटरी क्लब के सदस्य और रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के सचिव के रूप में अभी भी कुछ न कुछ करता रहता हूं। निजी तौर पर चाहता हूं कि घर में धांसू सा होम थिएटर होता। पर 3500 रुपए प्रति वर्ग फीट कीमत और 1.25 रुपए प्रति वर्ग फीट मेनटेनेंस वाले अपने मौजूदा अपार्टमेंट में यह संभव नहीं लगता।

ऐसे में कई बार सोचता हूं कि मेरा काम तो इंटरनेट और फोन के सहारे चल रहा है। फिर मैं बेकार गाजियाबाद में रह रहा हूं। क्यों न अपने जन्म स्थान को कार्यस्थल बनाया जाए। इस दिशा में भी सोचता हूं। अगर कभी छपरा शिफ्ट हो पाया तो होम थिएटर की सबसे महंगी इच्छा भी आसानी से पूरी हो जाएगी। इस हिसाब से अपनी गाड़ी तो पटरी पर लग रही है।

लेखक संजय कुमार सिंह लंबे समय तक जनसत्ता, दिल्ली से जुड़े रहे. बाद में उन्होंने नौकरी छोड़कर अपना खुद का काम शुरू किया. अनुवाद के काम को संगठित तौर पर शुरू किया. ब्लागिंग में सक्रिय रहे. सामयिक मुद्दों पर लिखते-पढ़ते रहते हैं.

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