एक राजनीतिक साधु-योद्धा का अवसान

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: श्रद्धांजलि : बीते रविवार की ही बात है. अपने प्रधान संपादक के परामर्श पर मैंने एक मामले में जानकारी लेने के लिए सुरेंद्र मोहन जी से सम्‍पर्क करने की कोशिश की. फोन पर हुई कामकाजी बातचीत के दौरान ही उन्‍होंने बताया कि अभी वे एक बैठक के सिलसिले में मुंबई आए हुए हैं और दो दिन बाद लौटेंगे. इसी बातचीत के दौरान कई दिनों से न मिलने के लिए उन्‍होंने मुझसे प्‍यारभरी नाराजगी भी जताई और कहा कि दिल्‍ली लौटने पर मुलाकात करते हैं.

वे दिल्‍ली लौटे और स्‍वस्‍थ हालत में लौटे, लेकिन मुलाकात आज शुक्रवार सुबह उनसे नहीं, बल्कि उनके पार्थिव शरीर से ही हो सकी. उनकी पार्थिव देह के दर्शन करते हुए पिछले 20-25 वर्षों के दौरान उनसे हुई मुलाकातों और उनके साथ की गई यात्राओं के दौरान बिताए एक-एक क्षण यादों के झरोखे से बाहर आते गए. महत्‍वपूर्ण यह नहीं होता कि कौन व्‍यक्ति कितना लंबा जीवन जीता है. महत्‍व तो इस बात का होता है कि व्‍यक्ति किन मूल्‍यों-आदर्शों के लिए, किन लोगों के लिए जीता है और अपने जीवन में क्‍या करता है. इस कसौटी पर सुरेंद्र मोहन का 84 वर्ष का सुदीर्घ जीवन एक सार्थक और प्रेरणादायी जीवन की मिसाल रहा. समकालीन लोकविमुख, विचारहीन और सत्‍ताकामी राजनीति के माहौल में सुरेंद्र मोहन एक मिसाल थे- ईमानदारी, सादगी, विनम्रता, त्‍याग, संघर्ष और वैचारिक प्रतिबद्धता की अनूठी मिसाल.

चार दिसम्‍बर 1926 को अंबाला में जन्‍में सुरेंद्र मोहन अपने छात्र जीवन में ही समाजवादी आंदोलन से जुड़े तो ऐसे जुड़े कि अपने जीवन की आखिरी सांस तक समतामूलक समाज का सपना अपनी आंखों में संजोए हुए उसी सपने को हकीकत में बदलने की जद्दोजहद में लगे रहे. अपनी मृत्‍यु से एक दिन पूर्व आदिवासियों के सवाल पर दिल्‍ली के जंतर-मंतर पर आयोजित धरना आंदोलन में वे शामिल हुए थे. अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा देहरादून से पूरी करने के बाद उन्‍होंने कुछ समय तक बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय में अध्‍यापन कार्यभार किया और फिर आचार्य नरेंद्र देव की प्रेरणा से अपने आपको पूरी तरह समाजवादी आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया और दिल्‍ली आ गए. वे दिल्‍ली तो जरूर आ गए लेकिन पूरा देश ही उनका घर और कार्यक्षेत्र बन गया.

समाज परिवर्तन का जुनून इस कदर सिर पर सवार था कि जीवन की आधी सदी बीत जाने तक अपना घर-परिवार बसाने की तरफ भी ध्‍यान नहीं गया. देश की आजादी के बाद गोवा मुक्ति का आंदोलन हो या कच्‍छ सत्‍याग्रह, मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान और गुजरात के आदिवासियों का आंदोलन हो या सुदूर पूर्वोत्‍तर की जनजातियों का संघर्ष, ओडीसा की चिल्‍का झील बचाने की लड़ाई हो या नर्मदा बचाओ आंदोलन, आंध्र के मछुआरों के अधिकारों की लड़ाई हो या विंध्‍य क्षेत्र के किसानों का आंदोलन या फिर सुधारवादी बोहरा आंदोलन, सुरेंद्र मोहन ने हर संघर्ष में सक्रिय साझेदारी निभाई और कई बार जेल यात्राएं कीं. आपात काल में भी वे पूरे 19 महीने जेल में रहे.

सुरेंद्र मोहन ने अन्‍याय और गैर बराबरी के खिलाफ सिर्फ देश में ही नहीं, बल्कि पड़ोसी देशों में भी लोकतंत्र और समता के संघर्षों में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया, चाहे वह नेपाल में राजशाही के खिलाफ आंदोलन हो या म्‍यांमार में लोकतंत्र की बहाली का संघर्ष या बंग्‍लादेश का मुक्ति संग्राम. सत्‍ता-सम्‍पत्ति के प्रति हमेशा निर्मोही रहे सुरेंद्र मोहन ने 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर भी मंत्री बनने के बजाय संगठन के काम को वरीयता दी और जनता पार्टी के प्रवक्‍ता तथा महासचिव का दायित्‍व निभाया. 1978 से 1984 तक राज्‍यसभा के सदस्‍य रहते हुए भी उन्‍होंने कई महत्‍वर्पूण सवालों पर अपने धारदार भाषणों से संसद के इस उच्‍च सदन में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई.

आपसी कलह के चलते बार-बार टूटने और बिखरने को अभिशप्‍त रहे समाजवादी आंदोलन के नेताओं की जमात में वे उन चंद नेताओं में से थे, जिन्‍होंने हमेशा आपसी राग-द्वेष से मुक्‍त रहते हुए साथियों और कार्यकर्ताओं को जोड़ने का काम किया. अपने इन्‍हीं गुणों के चलते वे जयप्रकाश नारायण के भी उतने करीब थे जितने डॉ. राम मनोहर लोहिया और अच्‍युत पटवर्धन के. मधु लिमये, चंद्रशेखर, मधु दंडवते, राजनारायण, एसएम जोशी, मामा बलेश्‍वर दयाल, जार्ज फर्नांडीज, लाडली मोहन निगम, मृणाल गोरे, जनेश्‍वर मिश्र आदि विभिन्‍न धाराओं के समाजवादी नेताओं से भी उनकी समान रूप से मित्रता थी. वैचारिक दृढ़ता के बावजूद अपने विनम्र स्‍वभाव के कारण वे सभी विचारधारा की राजनीतिक जमातों में समान रूप से आदर पाते थे. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि वे देश की राजनीति में एक अजातशत्रु थे, एक साधु थे.

सुरेंद्र मोहन सिर्फ राजनीतिक कर्मी ही नहीं थे, वे एक सिद्धहस्‍त लेखक भी थे. हिंदी-अंग्रेजी के कई पत्र-पत्रिकाओं में सम सामयिक राष्‍ट्रीय-अंतरराष्‍ट्रीय घटनाओं पर वे सक्रिय रूप से अपने संदर्भ सहित विश्‍लेषणात्‍मक लेखों और टिप्‍पणियों के माध्‍यम से देश और समाज का मार्गदर्शन करते थे. यही लेखन कर्म उनकी आजीविका का माध्‍यम भी था. उन्‍होंने अपने व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व से देश और समाज को जितना दिया, उसमें उनकी पत्‍नी मंजू जी का योगदान भी कम नहीं रहा. सुरेंद्र मोहन जी के न रहने से देश के ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया के समाजवादी आंदोलन की काफी बड़ी क्षति हुई है. उनकी प्रेरक स्‍मृति को सादर प्रणाम.

लेखक अनिल जैन नई दुनिया, दिल्ली में वरिष्ठ सहायक संपादक हैं.

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