तीन दिन पहले मुझे एक फोन आया. उधर से एक युवती की आवाज़ थी. धीर-गंभीर और शांत. साथ ही बहुत सहज और मृदु. लेकिन उसके साथ उसमे एक दृढ़ता और कर्मठता का भाव भी सहज ही दिख रहा था. अब आप पूछेंगे कि मुझे एक साथ इतना कुछ मात्र फोन पर कुछ क्षण के बातचीत से कैसे मालूम हो गया? उत्तर बहुत सीधा है- आपकी, हमारी आवाज़ हमारे बारे में बहुत कुछ कह जाती है, भले ही हम उसे समझना चाहें या नहीं. जी हाँ, हमारे व्यक्तित्व का काफी कुछ हमारी आवाज़ और हमारी बोलचाल के जरिये दुनिया के सामने आ ही जाता है.
खैर मुख्य मुद्दा यहाँ आवाज़ के जरिये व्यक्ति के पहचान की नहीं है बल्कि उस युवती से सम्बंधित है, जिसने मुझे फोन किया था. मालूम हुआ कि वे एक बड़े समाचार पत्र टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ कार्यालय में कार्यरत हैं और मेरे तथा मेरी पत्नी के सम्बन्ध में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक पत्रिका के लिए कुछ लिखना चाहती हैं, जिसके सम्बन्ध में वे मुझसे मिलना चाहती हैं. उन्होंने अपना नाम स्वाति माथुर बताया. उन्होंने बताया (क्योंकि यह कदापि सत्य नहीं है) कि मैंने और नूतन ने आरटीआई पर अच्छा काम किया है और इसी को संदर्भित करते हुए वे यह आलेख तैयार कर रही हैं, जिसमे हम दोनों से बातचीत और हमारे सुन्दर से चित्रों की नितांत आवश्यकता है. मैं वैसे भी दो रोगों से पीड़ित हूँ- एक लिखास रोग और दूसरा छपास रोग. मैं इन दोनों के लिए कभी मना नहीं करता और शायद ये दोनों ही रोग मुझे इस समय भी उत्प्रेरित और उद्द्वेलित किये हुए हैं जब मैं यह सब लिख रहा हूँ.
जब मुझे ज्ञात हुआ कि वे मेरे और मेरी पत्नी के विषय में लिखना चाह रही हैं तो मैंने तत्काल ही हाँ कह दिया. पहले यह तय हुआ कि हम दोनों उनके पास अगले दिन जायेंगे पर कुछ ऐसा हुआ कि यह फलीभूत नहीं हो सका. नतीजतन अंत में ये तय हुआ कि स्वाति जी रविवार को करीब तीन बजे हमारे विराम खंड स्थित आवास पर आएँगी. नियत समय पर स्वाति हमारे घर आयीं और उन्होंने हम दोनों पति-पत्नी से विस्तार से प्रश्न पूछे. हम लोगों ने भी जी भर के अपने आरटीआई सम्बंधित ज्ञान को परोसा. फिर हम लोगों के लंबे फोटो सेशन हुए. इस तरह स्वाति जी ने अपना काम पूरी ईमानदारी, तन्मयता, विनम्रता, गंभीरता और प्रभावी ढंग से पूरा किया. उनके साथ आये फोटोग्राफर महोदय का कार्य के प्रति झुकाव और व्यवहार भी उतना ही सुगम, मनमोहक और सहज था.
लेकिन इस दौरान जो खास बात हुई वह यह कि इधर तो स्वाति हम लोगों के इंटरव्यू ले रही थीं, उधर हम दोनों पति-पत्नी को उनके काम और व्यवहार से इतनी खुशी मिली और वह सब इतना अच्छा लगा कि हम लोगों ने हमारा इंटरव्यू खत्म होते-होते उनका ही इंटरव्यू लेना शुरू कर दिया. मालूम हुआ कि वे लखनऊ से प्रारंभिक शिक्षा करने के बाद लेडी श्रीराम कॉलेज और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से बीए और एमए हैं. फिर मुंबई के एक प्रतिष्ठित मीडिया इंस्टीट्यूट से मास कम्युनिकेशन पर कोर्स किया है. उसके बाद अपने कैरियर की शुरुआत मुंबई से ही अंग्रेजी के एक बड़े चैनल टाइम्स नाउ से की, उसमे डेढ़ साल काम करने के बाद प्रिंट मीडिया का भी काम देखने के लिए इंडिया टुडे में अप्लाई किया और तुरंत चयनित कर ली गयीं. उसमे भी मुंबई में काम किया और फिर उसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में आई और लखनऊ में काम कर रही हैं. मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि वे जहां भी काम करती रही होंगी उस संस्था के लिए एक धरोहर होंगी.
पर मेरा मुख्य मकसद स्वाति माथुर की प्रशंसा करना मात्र नहीं है, यद्यपि यह भी एक उद्देश्य है क्योंकि मेरा यह दृढ मत है कि यदि हमें किसी की निंदा करने में स्वाभाविक निपुणता होती है तो कभी-कभी उस व्यक्ति की प्रशंसा के दो बोल भी बोल देने चाहिए जो इसका हकदार हो. स्वाति हम पति-पत्नी की निगाहों में इसकी सच्ची हकदार हैं. साथ ही मेरा दूसरा उद्देश्य यह भी चर्चा करना है कि एक अच्छा पत्रकार कैसा हो. मैंने स्वयं देखा है कि कई सारे पत्रकार बंधु पत्रकार का दुमछल्ला लगते ही इसके साथ वैसे ही उड़ते नज़र आते हैं, जैसे हम पुलिसवाले भी अपने पुलिस शब्द को अपने चारों ओर इस तरह लपेट लेते हैं कि उसके बिना हम जी ही नहीं सकते, रह ही नहीं सकते, पूर्णतया निर्वस्त्र हो जायेगे. इस लिहाज से स्वाति के उदाहरण से मैं यह कहना चाहूँगा कि अच्छा पत्रकार (और शायद और कुछ भी) बनने के लिए एरोगेंट, दम्भी, दूसरों को नीचा दिखाने वाला, बात-बात में बड़े-बड़े नाम फेंकने वाला और सतत किसी मिथ्या संसार में रहना वाला बनना जरूरी नहीं है. आप स्वाति की तरह सहज, सरल, सुगम किन्तु दृढ, गंभीर और मेहनती बन कर भी ना सिर्फ आराम से अपना काम कर सकते हैं बल्कि अपने सामने वालों का स्नेह भी पायेंगे, भरपूर मात्र में. स्वाति को देख कर हम लोगों ने अपने दोनों बच्चों तनया और आदित्य को खास कर इनसे मिलवाने के लिए बुलाया और कहा कि यदि आगे कुछ बनना तो ऐसा ही कार्य और आचरण रखना.
हो सकता है कि मैं इस जगह एक ऐसे पंडित की तरह नज़र आ रहा होऊं जो अकारण बस बोलता ही जा रहा हो और बिना मतलब का भाषण दे रहा हो. पर क्या करूँ, आदत ही है- जब जो बात सही लगती है, चुप नहीं रह पाता. और जब लगता है बोलना चाहिए तो बोल ही देता हूँ.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. लखनऊ में पदस्थ हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ में अध्ययनरत हैं.