विनोद शाही पत्रकार हैं पर कोई भी उन्हें देख कर पुलिस का आदमी समझेगा, खास कर ख़ुफ़िया विभाग का दारोगा या इन्स्पेक्टर. लंबी कद-काठी और दोहरे शरीर के विनोद अपना भारी-भरकम चेहरा लिए बड़े आराम से पुलिसवाले दिखते हैं. उस पर यदि उनका पहनावा-ओढ़ावा और बातचीत का अंदाज़ देखा जाए तो किसी को इस बात की कोई शंका ही नहीं रह जाती है कि ये सज्जन पुलिस विभाग में नहीं हैं.
साथ ही उनकी कमर से लटकती हुई छोटी सी पिस्तौल उनके पुलिसिया व्यक्तित्व को पूरी तरह से आधिकारिक स्वरुप प्रदान कर देती है. बाबू साहेब, जैसा पूर्वी उत्तर प्रदेश में ठाकुर साहबों को इज्जत से पुकारा जाता है, गोरखपुर जिले में बेलीपार कसबे के पास के ही एक गाँव के रहने वाले हैं और एक बहुत लंबे समय तक गाँव से ही रोज गोरखपुर आया-जाया करते थे और पत्रकारिता किया करते थे. जब मैं उनसे पहली बार मिला था उस समय वे राष्ट्रीय सहारा अखबार में क्राइम रिपोर्टर थे और मैं वहाँ नया-नया एएसपी तैनात हुआ था. कुछ ऐसा सौभाग्य भी रहा कि मेरी तैनाती उन्ही के इलाके वाले बांसगांव तहसील में हो गयी. अक्सर मिलना-जुलना हुआ करता था और मेरे गोरखपुर के पूरे प्रवास के दौरान वे मेरे बहुत ही नजदीकी मित्रों में रहे, जो सिलसिला आज तक बदस्तूर कायम है.
विनोद जी शुरू से ही खोजी क्राइम रिपोर्टिंग के मास्टर रहे हैं और उनका मन भी इन्ही कामों में लगता था. उनके कई मित्र बताते हैं कि उन्हें खबर लिखने में उतना मजा नहीं आता था जितना खबर खोज कर लाने में. कुछ साथी तो यहाँ तक कहते हैं कि वे आखिरी तक कोशिश करते थे कि उनकी लायी हुई खबर पेन-पेपर ले कर कोई और ही लिख दे क्योंकि वे पत्रकारिता की उस परंपरा के थे जिसका यह मानना था कि अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग लोग बने हैं. वे खबर ढूंढ कर लाने के लिए बने थे और यह सही है कि वे पाताल लोक से भी पुलिस से जुडी खबरें निकाल कर ले आते थे.
मैंने विनोद बाबू के टैलेंट को पहली बार तब देखा था जब उन्होंने उस समय गोरखपुर के एसपी सिटी की वायरलेस सेट पर हुई बातचीत को जस का तस लिख डाला. जिस अंदाज़ एसपी साहब ने अपनी बात शुरू की, जो-जो मनोरंजक प्रसंग उस बातचीत में आये और जिस प्रकार से पूरी बात सम्पादित हुई, उसे शब्दशः प्रस्तुत कर देना बहुत बड़ी बात थी, खास कर आज से सत्रह साल पहले, जब टेक्नोलोजी उतनी विकसित नहीं थी. इस खबर की बड़ी चर्चा हुई थी और पुलिस विभाग में भी कई दिनों तक इसकी गूँज सुनाई देती रही थी. सब हतप्रभ थे कि विनोद शाही को ये बातें कैसे मालूम हो गयीं. बाद में उन्होंने मुझे बताया कि असल में उनके पास नेपाल का एक वायरलेस सेट था जिसकी फ्रीक्वेंसी पुलिस के वायरलेस की फ्रीक्वेंसी से मिला देने पर वे पुलिस की सारी बातें सुन पाते थे. विनोद जी इस तरह की कलाकारी में माहिर थे.
एक दूसरा धमाका उन्होंने तब किया जब उन्होंने उस समय के गोरखपुर के कमिश्नर की एक अत्यंत गोपनीय मीटिंग को हू-ब-हू उतार कर रख दिया. बात यह थी कि उन दिनों गोरखपुर के सहजनवा इलाके में गीडा यानि गोरखपुर इंडसट्रीयल डेवेलपमेंट ऑथोरिटी द्वारा जमीन अधिग्रहण का कार्य चल रहा था. वहाँ के एक स्थानीय नेता थे दिवाकर सिंह जो किसानों के साथ इस अधिग्रहण का विरोध कर रहे थे. प्रशासन के लाख मनाने के बावजूद वे अपनी बात से हट नहीं रहे थे और आंदोलन लगातार उग्र होता जा रहा था. बल्कि कुछ दिनों बाद आंदोलन हिंसात्मक हो गया और पुलिस फायरिंग भी हुई जिसमे कुछ किसानों की मृत्यु की चर्चा भी फ़ैल गयी थी. लोगों द्वारा सरकारी बसों में आग लगाने, सरकारी संपत्ति को जलाने आदि जैसे काम भी शुरू कर दिए गए थे. कुल मिला कर स्थिति विस्फोटक थी.
इसी माहौल में उस समय के गोरखपुर के कमिश्नर ने गीडा के पुलिस चौकी में एक आपात बैठक की थी जिसमे बहुत सारी महत्वपूर्ण रणनीतियों पर चर्चा हुई थी. अगले दिन राष्ट्रीय सहारा अखबार में कमिश्नर की कही गयी एक-एक बात छप गयी. प्रशासनिक हलकों में एक बार फिर कुहराम मचा. आखिर परम गोपनीय बैठक में कही गयी बातें खुलेआम अखबार में कैसे आ गयी, वह भी पूरे विस्तार में. शक की सुई हर अधिकारी पर घूम रही थी, लेकिन पुख्ता सबूत किसी के खिलाफ नहीं मिल रहे थे. सब लोग परेशान थे. एक तो इतना गरम माहौल, उस पर से इस तरह की अविश्वसनीयता. चूँकि खबर नाम से छपी थी, इसीलिए मैंने विनोद जी से बाद में पूछा कि ये सब कैसे हुआ तो उन्होंने बताया कि दरअसल जब कमिश्नर गीडा पुलिस चौकी पर आये थे तो वह भी अधिकारियों की फौज में घुस गए. उन्ही लोगों के बीच बड़े आराम से बातचीत करते रहे. फिर जब कमिश्नर अंदर रूम में गए और तमाम अधिकारी भी उनके साथ अंदर घुसे, तो उनके बीच विनोद शाही भी थे. विनोद शाही ने बताया कि जब कमिश्नर ने अपनी बात शुरू करने के पहले वहाँ उपस्थित लोगों से पुछा कि इसमें कोई बाहरी आदमी तो नहीं है तो इसका जवाब विनोद जी ने ही दिया था कि कोई बाहरी नहीं है. इसके बाद उन्होंने वहाँ गेट पर खड़े-खड़े दरवाज़ा भी अंदर से बंद कर लिया था ताकि कोई “बाहरी” आदमी ना आ सके. हुआ यह होगा कि विनोद जी के हुलिया और अंदाज़ से सभी लोगों ने उन्हें ख़ुफ़िया विभाग का आदमी समझ लिया होगा और वे चुपचाप अपना काम बना सकने में सफल हो गए थे.
विनोद जी के पास हर थाने की एक-एक छोटी-बड़ी खबर हर समय मौजूद रहती थी. एक बार हम लोगों का सहजनवा में एक बदमाश से इनकाउंटर हुआ. जहां तक मुझे याद है, इनकाउंटर देर रात में हुआ था पर उस समय भी इनकाउंटर के दौरान ही बाबू विनोद शाही उपस्थित थे. मैंने उनसे पूछा कि आप कैसे तो उन्होंने मुस्कुरा कर कहा-“मेरे पास भी लोग हैं.”
विनोद जी अक्सर कहते थे कि इस जिले का एसएसपी सोचता बाद में है और मेरे पास सूचना पहले आ जाती है. मुझे तो लगता है कि वे सही कहा करते थे, क्योंकि दसियों बार मैंने उन्हें ठीक घटनास्थल पर घटना के मुश्किल से चंद मिनटों के अंदर देखा था. साथ ही साथ अक्सर जब वे बताते कि जिले में फलां थानाध्यक्ष हटने वाला है या लगने वाला है तो कुछ दिनों बाद वही बात होते हुए मैंने कई बार देखा था.
मैं जानता हूँ विनोद शाही की तरह के क्राइम रिपोर्टर बहुत कम होते हैं पर जैसा कई बार होता है, बहुत टैलेंटेड लोगों के अंदर एक झकपना भी होता है. विनोद जी की भी जिद थी कि वे गोरखपुर के बाहर नौकरी नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें अपनी भोजपुरी भाषा में घुमावदार अंदाज़ में गली-कूची नुक्कडों पर बतियाने में जो रस और आनंद आता था, यह शायद वे लखनऊ या दिल्ली जैसी जगहों पर नहीं उठा पाते. बहुधा लोग उन्हें कहते कि आप बहुत तेज और अच्छे रिपोर्टर हैं, आप दिल्ली या कम से कम लखनऊ शिफ्ट कीजिये पर बाबू विनोद शाही को तो अपनी मोटरसाइकिल पर दारोगाजी की तरह एकदम सीधे बैठ कर बेलीपार, बांसगांव, कौड़ीराम, गगहा, कैंट, कोतवाली जैसे थानों और एसएसपी, डीआईजी, आईजी के बंगलों पर जाने और वहाँ गोपनीय अंदाज़ में अंदर की खबरें निकालने में ही आनंद आता था, जिसे वे किसी भी कीमत पर गंवाने को तैयार नहीं थे.
आज भी विनोद शाही की शाही सवारी उसी अंदाज़ से गोरखपुर के खास जगहों पर फर्राटा मारती मिल जाती है और उस पर बैठे सीआईडी इन्स्पेक्टर विनोद शाही अंदरूनी बातें निकालते हुए अक्सर नज़र आ जाते हैं. हाँ, इतना अंतर जरूर आया है कि अब वे अपने गाँव से नहीं आते-जाते पर उन्होंने गोरखपुर में ही एक आवास बना लिया है.
लेखक अमिताभ ठाकुर पुलिस अधिकारी हैं. इऩके लिखे अन्य लेखों को पढ़ने के लिए नीचे कमेंट बाक्स के ठीक बाद में आ रहे शीर्षकों पर एक-एक कर क्लिक कर सकते हैं.
jai kumar jha
March 20, 2011 at 4:42 am
कहीं ये पत्रकार के साथ-साथ असली खुपिया अधिकारी तो नहीं….क्योकि ऐसी परम्परा और चलन रही है….
अनाम
March 20, 2011 at 5:21 am
पढ़कर मज़ा आ गया। शानदार।
GURUDATTA SINGH SRINET
March 20, 2011 at 7:33 am
police aur reporter me diffrence …. ek kisi fact ko confidencial bnna chahta hai to dusra use ujagar krna…par dono ka aim ek hota hai…public wellfare,,sant kabir nagar me aap hi ne kha tha!!!!!!!!
Akhilesh Singh Sudarshsn News Delhi
March 20, 2011 at 3:03 pm
very nice.but aise reporter se milne ka mn ho rha hai.
vinesh thakur www.vidhankesari.com
March 21, 2011 at 11:05 am
amitab ji aap badhai ke patra hai ki aapne apne bal par ladai jiti hai aur dost taiyar kiye hai, aapne paisa bhale hi na kamaya ho lekin jo chavi apne banai hai waha hazaro carore kama kar bhi nahi bana sakte the, aap samaaj ka hi nahi desh kaa bhi gaurav hai, aap UP cadder ke IPS adhikari hai, waha din jarur ayega jab aap majboot kursi par baithar kam se kam utter pradesh ki janta ko khaki ke tandav se mukti dilane ka kaam karenge, meri aur se apko va apke parivar ko aivam mitro ko badhai,
with best Regards
Vinesh Thakur
Chief Editor
Daily Vidhan kesari news paper Bijnor
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Sunil Kumar Singh
March 21, 2011 at 1:57 pm
Nice read it…..
this story mach the like a filmi story….
Sunil Kumar Singh
March 21, 2011 at 1:58 pm
nice to read it…..
this story mach the like filmi story..
ramkumar
April 5, 2011 at 12:59 pm
agar shahi ji reporter hain to ense baki reporter ko sikh leni chahiye. bina kisi ko presaan kiye janta ko sachhi jankari dena. sachhi patrakarita hai. main shahi ji se milna aur sikhna chahoonga.
P. Kumar
April 20, 2011 at 5:20 am
अमिताभ ठाकुर z aise to koi bhi Terrorist Police ki nak me dam kr sakta hai. but विनोद शाही z ka tarika bahut achchha tha. Ense Police ko sikh leni chahiye……..