कुछ आदमी भले आदमी होते हैं क्यूंकि उनमें भलेपन के सारे गुण होते हैं. वे शरीफ होते हैं, अच्छे से बातें करते हैं, कम बोलते हैं, इज्जत के साथ दूसरों को संबोधित करते हैं, शिष्टाचार के नियमों का पूर्ण पालन करते हैं, और सज्जन पुरुषों के लिए निर्धारित समस्त नियमों का विधिवत पालन करते हैं. आप उनके घर जायेंगे तो वे आदर के साथ अपने दरवाजे पर आपका स्वागत करेंगे.
फिर अपने बड़े करीने से सजे हुए घर में अन्दर लायेंगे. आप को चाय और कॉफ़ी के लिए पूछेंगे. देश दुनिया की सारी बात करने योग्य बातें करेंगे. फिर वे आप के आने का प्रयोजन भी पूछेंगे तथा यदि इस काम को कर पाने से किसी भी प्रकार की परेशानी होती नहीं दिख रही है तो वे यह काम भी आप के लिए कर देंगे. अंत में वे बड़ी सज्जनता के साथ आपको विदा करेंगे और फिर अपने सजे-धजे स्वरूप के साथ वापस अपने घर में आकर अपने शेष कार्यों में लग जायेंगे. यानि वे भले लोग होंगे.
पर इसके विपरीत कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो किसी भी प्रकार से भले नहीं दिखाई देंगे. ना तो वे अपना चेहरा-मोहरा वैसा सजा-सजाया रखेंगे जैसे वे मोम के गुड्डे या दुकान में सजे मोडल हों और ना उन्होंने ऐसे कपडे़ स्वयं पर डाल रखे होंगे जो उन्हें संभ्रांत और अभिजात्य वर्ग में प्रस्तुत करने में सहायक हों. वे आपका अपने घर में भी स्वागत नहीं करेंगे क्यूंकि वे कोई घर ही नहीं रखेंगे जहां उन्हें किसी का स्वागत करना पड़े. उनकी बातों में भी कोई ऐसी कृत्रिम मधुरता नहीं होगी जिसके अन्दर ज़रा सा झाँकने से ही एक अन्तर्निहित कठोरता और अन्यमनस्कता का तत्काल अनुभव हो जाए. वे आपसे कोई औपचारिक संबोधन भी नहीं करेंगे और ना ही आप का कोई काम पूछेंगे क्यूंकि उनका यह मानना होगा कि यदि किसी को अपना काम बताना होगा तो यह स्वयं बताएगा, उसके लिए अलग से उसका पुछार करने की जरूरत नहीं है.
अब ऐसे लोग दो प्रकार के हो सकते हैं. एक तो वे जो कम पढ़े-लिखे हों, आर्थिक रूप से साधारण हैसियत रखते हों, कोई घर-बार ना हो और बस किसी प्रकार से अपना जीवन यापन कर रहे हों. जाहिर है ऐसे लोगों से कुछ विशेष अपेक्षा नहीं की जा सकती. पर इसके अलावा एक दूसरा प्रकार भी होता है जो ना तो कम पढ़ा-लिखा होता है, ना किसी गरीब परिवार का और ना किसी भी तरह से सामजिक और बौद्धिक रूप से कमजोर. पर वह तो बस ऐसा इसलिए है क्यूंकि उसकी तो फितरत ही ऐसी है.
अब ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे जो बलिया के बांसडीह इलाके के ठाकुरों के एक दबंग गाँव सुल्तानपुर के एक मजबूत परिवार में पैदा हुआ हो, जो अपने घर का बहुत लाडला रहा हो, जिसकी अम्मा ने उसे बहुत ही लाड से पाला हो और जो बचपन से ही अत्यंत मेधावी रहा हो लेकिन वह अपने घर में रहता ही नहीं, टिकता ही नहीं. उस व्यक्ति को किस श्रेणी में रखा जाए जो इमरजेंसी के पहले ही सन उन्नीस सौ तिहत्तर में प्रतिष्ठित इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एलएलबी कर चुका हो और जिससे हर आदमी यह उम्मीद लगाए बैठा हो कि जल्दी ही ये इलाहबाद हाईकोर्ट में अच्छी प्रैक्टिस करता नज़र आयेगा लेकिन आज उसे पैसे की कोई परवाह नहीं. उस आदमी को क्या कहा जाए जिसका कद-काठी तो औसत हो पर जिसे हर प्रकार से सुदर्शन व्यक्तित्व वाला कहा जाएगा पर वह खुद पर ध्यान न देकर दुनिया को सुंदर बनाने के अभियान में जुटा हुआ है. दुनिया के दुखों-दर्दों को खत्म करने के
मिशन में लगा हुआ है. अच्छे-खासे पृष्ठभूमि से आया यह आदमी अपने घर-परिवार की तमाम इच्छाओं और आकांक्षाओं पर भयानक तुषारापात करते हुए अपने लिए एक कठोर-निर्मम रास्ता चुन लेता है. इस रास्ते पर चलते हुए ऊपर बताये गए एक सज्जन पुरुष की जिंदगी जीने की जगह एक आवारा मसीहा का जीवन अख्तियार कर लेता है जिसका न तो कोई निश्चित ठौर ठिकाना हो, ना कोई पक्का घर-दुआर, ना धन-दौलत, ना बैंक एकाउंट. जो दिन रात यहाँ-वहां गलियों और सडकों पर भटकता-फिरता नज़र आये, जो यहाँ-वहां किसी हड़ताली दल के साथ पड़ा नज़र आ जाए, जिसने अपनी दाढ़ी और बाल ऐसे बेतरतीब रख छोड़े हों जो उसके खूबसूरत से गोल चेहरे को एक कटा-फटा स्वरूप प्रदान कर दिया हो. जो वकील बन कर अपराधियों को अदालतों में छुड़वाने की जगह खुद ही तथाकथिक अपराधियों और समाज-विरोधियों की श्रेणी में आ गया हो जिसको खोजने के लिए पुलिस तक लगी हुई हो और जो खुफिया पुलिस की ख़ास निगाहों के सदैव रहता हो.कुछ कहने वाले ऐसे मिल जायेंगे जो शायद ये कह दें कि चितरंजन सिंह नामक इन सज्जन के अपनी जिन्दगी बर्बाद कर ली. ऐसा कहने वाले भी मिल सकते हैं जिनकी निगाहों के उन्होंने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली हो. कहाँ इलाहबाद के किसी पॉश इलाके में बने एक बड़े से घर में करीने से सजे गुलाब के बगीचे में पामेरियन कुत्ते के साथ घूमने वाले संभावित चितरंजन और कहाँ आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरला से ले कर समूचे देश में यहां-वहां घूम-घूम कर पुलिस का विरोध करता हुआ और एक साधारण आर्थिक हैसियत की जिंदगी जी रहा चितरंजन. कहां ऐसे चितरंजन सिंह की संभावना जिसके कई प्लाट और जमीनें होतीं, फार्म हाउस होते, शायद कोई होटल भी हो जाता और कहां ऐसे चितरंजन सिंह की हकीकत जो किसी सामान्य हैसियत वाले यार-दोस्त से दो-चार सौ रूपये बड़े आराम से मांगते हुए नज़र आ जाए.
अंतर बहुत बड़ा दिखता है और एक पल तो ऐसा लगाने लगता है कि हमारे बिहार और उत्तर प्रदेश में बोले जाना वाला मुहावरा -“हेलल हेलल रे भैंसिया पानी में” चितरंजन सिंह के लिए ही बनाया गया हो. पर यदि थोड़े नज़दीक से उसी शख्स को दुबारा देखा जाता तो सारा का सारा परिदृश्य ही पूर्णतया परिवर्तित नज़र आने लगता है. हमें दिखने लगते हैं वैसे देवता-तुल्य मनुष्य जो अपना सब कुछ छोड़ कर देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए घर-द्वार से दूर एक ऐसा जीवन जीने लगते हैं जिसमें उनके लिए यदि कोई चीज़ मायने रखती है तो वह है समाज की उन्नति, तरक्की और वास्तविक खुशहाली. अपने लिए एक फूटी कौड़ी भी नहीं लेकिन जिसका कोई सामजिक कार्य कभी भी पैसों के अभाव में नहीं रुकता. इंसान को इंसान की तरह देखे जाने और समझे जाने के लिए और उसके मूल अधिकारों की रक्षा के लिए जो अपने आप को कुर्बान कर देने का सतत माद्दा रखता हो और अक्सर इस हेतु गंभीर कष्ट झेलता रहता हो- चाहे यह पुलिस के खिलाफ धरना-प्रदर्शन हो, या पुलिस रिकॉर्ड में मुकद्दमे दर्ज होना, या फिर मुजाहमद या गिरफ्तारी और जेल यात्रा. लेकिन चितरंजन भैया (उन्हें भैया हम सब इसलिए नहीं कहते क्यूंकि वे हमारे बड़े हैं पर इसलिए भी क्योंकि हम लोगों की उनके प्रति श्रद्धा हमें ऐसा कहने को मजबूर कर देती है) इन बातों की परवाह किये बिना, अपने सारे सुख-चैन को तिलांजलि दिए सच्ची मानव सेवा के लिए सदैव समर्पित एक ऐसे असाधारण मनुष्य के रूप में हैं जिनका जोड़ मिलना आज के युग में मुश्किल ही नहीं, असंभव जान पड़ता है.
आज के समय एनजीओ और सामजिक संस्थाएं एक फैशन सा बन गए हैं और मेरे जैसे बहुत से सामान्य मनुष्य भी इस प्रकार के “सोशल वर्क” से जुड़ कर अपने आप को विशिष्ट बताते सर्वत्र नज़र आ जाते हैं. चितरंजन भैया उन लोगों में हैं जिनकी ना कोई संस्था है, जिनका ना कोई कार्यालय है, जिनकी ना कोई निजी टीम है, जिनके ना कोई व्यक्तिगत कार्यकर्ता हैं. भैया किसी कॉरपोरेट ऑफिस की तरह किसी एनजीओ के सीईओ का कार्य नहीं करते बल्कि वे तो वन में विचरित करने वाले एक सिंह की तरह उन स्थानों पर गरजते और दहाड़ते दिख जाते हैं जहां जाने में बड़े-बड़े “सोशल वर्करों” को नानी याद आ जाती है.
बलिया का पुलिस अधीक्षक दो बार रहने के कारण मुझे यह सौभाग्य मिला कि मैं चितरंजन भैया के संपर्क में आ सकूँ और उनकी विलक्षण और अदभुत व्यक्तित्व का साक्षी बन सकूँ. यह वह आदमी हैं जिन्होंने कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी तक के सामने झुक कर बात नहीं की थी. मैं ऐसे मौकों का स्वयं गवाह हूँ जब चितरंजन भैया ने भारत के सबसे मजबूत और जमीनी राजनीतिकों में एक चंद्रशेखर जी तक की बात का सार्वजनिक रूप से विरोध कर दिया और उन्होंने भी भैया से नाराज़ होने की जगह उन्हें मनाने की ही कोशिश की. ऐसा मैंने बलिया में भी देखा और जयप्रकाश नगर (जयप्रकाश नारायण का जन्मस्थान जिसे पहले सिताब-दियारा भी कहते थे) में भी जयप्रकाश जी की जयंती पर आयोजित समारोह के अवसर पर भी. चितरंजन भैया यदि ऐसा कर पाते हैं तो इसका एक मात्र कारण यही है कि उन्हें किसी से कोई अपेक्षा नहीं है. रमता जोगी बहता पानी को चरितार्थ करने वाला यह पथिक जिस मिट्टी का बना है उसके लिए राजा और रंक सामान रूप से बड़े बड़े या छोटे नज़र आते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं कि भैया कोई बड़े धीर-गंभीर और ज्ञानी ध्यानी से हों या वैसे बातें करें. इसके विपरीत जब वे आपसे- “क्या जी, कैसे हो” कहेंगे तो लगेगा कि कोई गांव-देहात का अनपढ़ सा परिचित पुकार रहा है. लेकिन एक बात होगी जो उनके शब्दों को औरों से एकदम अलग कर देगी, उनमें कुछ ऐसी अंदरूनी मिठास होगी और अपनापन होगा जो अपने शारीर के साथ अपनी रूह को भी एकबार में ही स्नेह-रस से सराबोर कर दे. यहां मैं उनके छोटे भाई और हम लोगों के अज़ीज़ साथी मनोरंजन भाई का जिक्र करना भी उचित समझूंगा जो आज कल रांची में हिन्दुस्तान अखबार में हैं. चितरंजन भैया को सब चिंताओं से मुक्त रखने और उनके सारे पारिवारिक भारों को चुपचाप अपने माथे पर ले लेने और भैया को इसका एहसास तक नहीं होने देने वाले इस भाई जैसा भाई मिलना भी दुनिया में उतना ही मुश्किल है जितना चितरंजन भैया जैसे फक्कड़ का पैदा होना.
मैं यह अपनी खुशकिस्मती मानता हूं कि मुझे इन दोनों का साथ मिलता रहा है और इनका स्नेह भी.
लेखक अमिताभ ठाकुर का स्तंभ ‘अमिताभ की दुनिया’ नाम से भड़ास4मीडिया पर गाहे-बगाहे प्रकाशित किया जाता रहेगा. यूपी के आईपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर इस कालम के जरिए अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को बयान करेंगे, के बारे में बतियायेंगे.
manorath mishra
September 25, 2010 at 4:22 am
Amitabh ji aap bhi kamal ke ho jo Heerey ka mol jaantey ho. warna to aaj ke moorakh usey pather samjhkar fenk detey hai. essey heerey ka kuch nahi bigadata magar ve kangal reh jaatey hai. aap lekin bahut dhani ho es mamle me.
shyam singhal
September 25, 2010 at 6:41 am
bahut achchha laga
मदन कुमार तिवारी
September 25, 2010 at 6:42 am
मै स्वंय बलिया का हुं और जानकर अच्छा लगा की चितरंजन भैया जैसे लोग है अभी धरती पर वरना प्रजातंत्र का जो विभत्स रुप अभी देखने में आ रहा है उसको देखकर लगता है अग्रेंज का राज हीं ठिक था।
.xyz.
September 25, 2010 at 7:24 am
Yakinan , Chitranjan Jee jaise INSAAN ko ( Aaj kal insaan kam aur Aadami ya Aurat Zyaada milte hain ) baa-rambaar salaam ! Saath mein aap ko bhi saadhuwaad , Kyonki aaj ke daur mein aise logon ko puchta kaun hai ?
Bhupendra Pratibaddh
September 25, 2010 at 8:22 am
Amitabh ji, aapne Chitranjan ji ke vyaktitv aur krititv ka jo bejod khaka khincha hai vah adbhut hai. Chitranjan ji ke bare mein saayad apne sachet hone ki shuruat se hi sunaa hai,par milne ya nikat se janane ka suyog nahin bana. mera gaon Maghar se tin mile par hai. us samay jab avagaman ke saadhan atyalp the to Gorakhpur ya Basti jaane ke liye Train hamlog Maghar se hi lete the. Maghar yaani Kabir ki nirvan sthali.Kabir yaani ulatbansiyon ke paryay, yaani hamare taison ke prernasrot. to unhi Kabir ki line hai– Jo ghar funke aapna chale hamare saath. Chitranjan sarikhe log aisi hi parmpara ke dhwajvahak hote hain. kathani aur karni mein ekakaar. bhayi samaj ke liye jo jitaa hai wah samaaj ka hota hai. use sanjivani samaaj se hi milti hai. samaaj hi uski suraksha aur sampannata kaa srot hota hai. vyashti ko samshti mein samahit karke hi samaaj aur svayam ki vishangatiyon se ladaa ja sakta hai. zahir hai yah kuchh samay ki nahin balki satat prakriya hai. esase guzarkar hi samajik vyaktitv ka garhav hota hai. Chitranjan ji esi ki upaj hai.unhen meraa salaaam. Amitabh ji, harsh to es baat ka hai ki Police ke bade ohdedar hone ke bavzud aap Chitranjan ji ke murid hai. bahut-bahut badhayi.
Bhupendra Pratibaddh, Chandigarh
gorkahpuri thakur
September 25, 2010 at 9:55 am
thakur ke siromari amthibah thakur ki kalam se thakur chitranjan singh ke bare mea jo likha gaya hea. ussko padhane ke baa mean kaha sakata hu ki thakur amar singh nahi thakur chitranja singh asakli thakur siromari hra. jai ho thakur ki
surendra
September 25, 2010 at 10:35 am
Sri Chittaranjan Singh ka agar koi contact no. ho to dene ki kripa kare.
Rajnish Kumar
September 25, 2010 at 11:53 am
I express a great respect for that person. I like these type people. Jahan galat dekho bhid jao, lekin shatir hona bhi jaroori hai, pal pal khar khaye log phansane ko taiyar hain. Dar phansane se nahi lagta, lagta hai ki galat aadami me vijay-bhav bhar jayega; jabaki use bar-bar parajit hona chahiye.
धर्मेश तिवारी
September 25, 2010 at 12:08 pm
नमस्ते सर,मै देवरिया से हूँ और आप शायद देवरिया में भी रह चुके है क्योंकि मैंने आपका नाम अपने घरवालों से सुना है आज यहाँ आपका लेख पढ़ कर काफी ख़ुशी हुई,अभी आप कहाँ हैं सर,तथा यहाँ तो आपने एक ऐसे मनुष्य के बारे में जानकारी दी जिससे मिलने को जी चाहता है ऐसे ब्यक्तित्व से मिलकर कुछ सीखना और आशीर्वाद चाहूँगा!धन्यवाद
शेष नारायण सिंह
September 25, 2010 at 1:14 pm
चितरंजन सिंह के इस बेहतरीन व्यक्तिचित्र के लिए आपका आभारी हूँ.. मैंने चितरंजन सिंह को १९७४ में पहली बार देखा था . इलाहाबाद में . मैं लेक्चरर था .शादी करने जा रहा था .सहानुभूति जताई और शुभकामना दी .उनके करीबी दोस्तों के साथ था , अपनापा तुरंत डेवलप हो गया. बाद में १९७८ में पता चला कि उनके व्यक्तित्व में एक चुम्बक है जो समान सोच वाले को अपनी तरफ खींच लेता है . बाद में उनके बहुत सारे साथियों से मिलता रहा और टुकड़ों में उन्हें जानता रहा. आज अमिताभ ने टोटल चितरंजन से परिचय करवा दिया . बहुत बहुत धन्यवाद
manorath mishra
September 25, 2010 at 2:06 pm
Chitranjan singh ko jaati ke khanchey me rakhna neech se neech soch ka parichayak hai. Chitranjan singh wo sufi hai jinhey kisi se kuch nahi chahiye. amitabh thakur se bhi nahi. amar singh se bhi nahi. haan pyaar dekar jaroor aap kharid saktey hai.
satya prakash "AZAD"
September 25, 2010 at 2:57 pm
मेरा सौभाग्य है कि मुझे चितरंजन चच्चा के सानिध्य में रहने और उनके विचारों से रूबरू होने का मौका मिला है….चच्चा वीरेन्द्र सिंह मस्त जी (बलिया वाले) के बनारस आवास पर अक्सर आते और रूकते थे….मैं उस समय यूपी कॉलेज छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहा था….और स्वदेशी का प्रचारक होने के नाते मुझे वीरेन्द्र चच्चा का पूरा सहयोग मिलता था…..इस नाते मेरा अक्सर वहां आना-जाना होता था….उस उम्र में चितरंजन चच्चा का जो तेवर था…..शायद एक छात्रनेता होने के बावजूद हम लोगों को शर्म आ जाये.
ambika singh
September 25, 2010 at 5:24 pm
i m very very thankful to sri amitabh thakur who had guided me about chitranjan bhaiya.can i get mobile no of manoranjan singh who is very known to me.
Santosh Kumar
September 26, 2010 at 5:30 am
I have a coincidental opportunity to be from Rajputana Dabang village – Sultanpur, the village Shri Chitaranjan Singh hails from. I am also coincidently blessed to be from the adjacent to his native home (in Tolapur). I have respect for his lifetime devotion for the causes of the haves-not and those who are always at the receiving ends in the affairs by brutal states. He has sacrificed a lot for that. His sacrifices are personal and social, both. I feel grieved for his personal losses. The social losses that not having always red carpet treatment by his Dabang brethren do not carry any stint of respect in my mind. I really do not like a food for thought from someone who has no practice of that and rather does opposite. Dabangais of Rajputs have ruined the north India and primarily the belt of North Bihar and Eastern UP. They should be ashamed of the mess they have created in their region not only in the eyes of people of lower social denominations but also most of the people outside of that region. Here Shri Chitaranjan Singh carries a remarkable and dignified weight. He never aligned with such feudal forces to keep his mind and soul free of guilts. He also stood against the caste based atrocities, and also the atrocities that capitalism and imperialism impose on the human being across castes, creeds, religions, and regions. This essay by a respected and honest police officer is highly appreciable. In my childhood I had an opportunity to be there in small gathering of peasants and landless labourers to whom he was addressing in a Village Haat. I was surprised to see a Rajput’s stand which rarely seen. Now things have changed mildly; thanks to the village panchayat election which has brought many Dabang Rajputs to their knees and in the fold of concerns of lower castes people as well. But still we need to go miles of distance. Shri Chitaranjan Singh rightly was with the platform of IPF which later turned to be CPI(ML). Given the activism of the CPI(ML) in my region which instilled a sense of confidence among the people at socially lower hierarchy, I became attracted to left politics. two years back I read a book by Sahityakar Kashinath Singh titled “Ghar Ka Jogi Jogada” in the honour of Shri Namvar Singh ji. I dare to steal that title to address respectfully Shri Chitaranjan Singh – a Ghar ka Jogi Jogda. I give an idea to the blogger to write a book “Ghar ka Jogi Jogada – two”on the life of Shri Chitaranjan Singh. I respectfully salute his camaraderie. Wish for his long and healthy life ahead.
Mrityunjay Prabhakar
September 26, 2010 at 10:32 am
amitabh jee ko is sundar lekh aur sundar vyaktitva se parichay karane ke liye badhai..
Pramod K Singh
September 26, 2010 at 1:37 pm
Amitabh Ji apko akise dhanyawad du samajh nahi aa raha . Aapke is wyaktitwa pradarshan ke liye.. Mai to ye bhi kahunga ki aap bhi mujhe apne dhun ke pakkey lagtey hai jo IPS hotey hue itna chintan karta rahta hai……….. Kuki maine ek IAS ko najdik se dekha hai jo High School me merea achha mitra tha aur ab uske pas dosto ke liye samay nahi……………
SHRINIWAS SINGH
September 29, 2010 at 8:51 am
Good afternoon Sir,
Very very thanks for write abhout Chintranjan Bhaeya
R.K.Singh
April 24, 2011 at 8:18 am
also appreciate you for writing about such person.
Regards
R.K.Singh
Sec Gen.
NEFI