चौदह साल का वनवास बीता, सफर अब भी जारी है

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अमर आंनद: चलती रही ज़िंदगी : कहां से शुरुआत करूं मैं। रुकावटें कई रही हैं, लेकिन ज़िंदगी फिर भी चलती रही है, बढ़ती रही है। कभी खुशी के जज़्बात, तो कभी ग़म के हालात। डाल्टनगंज से दिल्ली आए 14 साल हो गए। लेकिन सफर जारी है। न जाने कैसे-कैसे जतन करने पड़े हाथ-पांव जमाने के लिए, और अब भी जारी है ये सब। निराशाएं भी मिली हैं और नतीजे भी।

कहते हैं कि हसरतों का कोई अंत नहीं होता, लेकिन सच पूछिए कोई ऐसी हसरत रही ही नहीं अपनी, जो मेरी औकात से बड़ी हो या फिर अपने सपनों में उसे जगह न दी जा सके। बस हमेशा से यह रहा कि में भी भूखा न रहूं और साधु भी भूखा न जाए। यानी खुद भी मजबूत रहूं और मिलने वाले ज़रूरतमंदों के लिए भी कुछ किया जा सके। पहले अखबार और फिर टीवी की नौकरी। धीरे-धीरे बढ़ने की चाहत रही अपनी। ये सोचते हुए भी कि अचानक उड़ने के बाद आदमी जब गिरता है, तो फिर दोबारा उठकर खड़ा होना उसके लिए मुश्किल हो जाता है।

करियर के मामले मे शुरू से ही मुश्किलें रही हैं। शायद कोई कोर्स नहीं किया था, इस वजह से भी ऐसा माना जा सकता है। लेकिन, कहते हैं कि एक अनुभव के बाद कोर्स कोई मायने नही रखता, तो ऐसा मेरे साथ भी हुआ। लेकिन दिक्कत तब ज्यादा होती थी, जब कोर्स किए हुए किसी जूनियर को मेरे ऊपर या मेरे बराबर बैठा दिया जाता था। पर प्राइवेट नौकरी करने वाले समझदार लोगों का ये मानना है कि नौकरी तभी निभती है, जब बॉस की हर इच्छा को आदेश मान लिया जाता है। यानी नौकरी में ना करने की गुंजाइश बिल्कुल नहीं रह जाती। अगर असहमतियां हैं तो उसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना होगा। कई संस्थानों में ऐसे अवसर आए, जब लगा कि अब बहुत हो गया। मगर ऐसे वक्त में शुभचिंतकों की नसीहतें काम आईं और घर-परिवार की सुविधा को जेहन में रखते हुए सब कुछ झेलता चला गया। हर नया दिन ऐसा होता, जैसे पिछले दिन कुछ हुआ ही नहीं।

अगर आप प्राइवेट नौकरी में हैं, तब आप भी सहमत होंगे इस बात से। कभी-कभार बॉस को किसी बात के लिए राज़ी करने लेना या अपने तर्कों से सहमत कर लेना एवरेस्ट चढ़ने से भी ज्यादा मेहनत है। कई दफा तो यह भी होता है कि आप जान न्योछावर कर देने जितनी मेहनत अपने काम में कर देते हैं, पर बॉस खुश नहीं होते। दरअसल हर बात के लिए बॉस के अपने तर्क होते हैं और वो मान कर चलता है कि यह आखिरी है। इसके बाद किसी की कोई गुंजाइश नहीं होती। कई बार तो बॉस अपने सहयोगियों की बात सुने बिना फैसले पर आ जाता है। आपको साफ लगता है कि यह सही नहीं है, लेकिन इसको स्वीकार करने के लिए विवश होते हैं क्योंकि आप मुलाज़िम हैं।

बाबूजी की इच्छा के खिलाफ चुने गए जर्नलिज्म की फील्ड ने 14 साल में बहुत कुछ दिया। रोजी, रोटी और दिल्ली जैसी जगह के पास अपना घर, एक अच्छे से स्‍कूल में पढ़ाई करने वाली दस साल की बेटी। ब्यूटी पार्लर के ज़रिए बीवी ने भी अपना रोज़गार तलाश ही लिया है। लेकिन यकीन मानिए मंज़िल से अभी भी अपनी दूरियां बरकरार है। चाहता हूं कि और मेहनत करूं। ताकत हासिल करूं। कम से कम इतनी की समाज में एक रसूख हो, पकड़ हो और मजबूर लोगों के लिए कुछ करूं। वो लोग जिनसे जुड़ कर बेपनाह ताकत का अहसास होता रहा, वो मेरे मित्र हैं, शुभ चिंतक हैं और इनमें से कई तो बेहद असरदार भी हैं। ज़िंदगी में कई मोर्चो पर जब हारता हुआ सा महसूस होता है, तो ताकत बनकर खड़े होते हैं यही लोग।

खुशियां भी मिली हैं और गम भी। गम का क्या है, कोई भी दे जाता है। अपने भी और पराए भी। मन मसोस कर रह जाता हूं और कभी-कभी तो रो उठता है मन। लेकिन  ज़िंदगी से जब कभी मायूसी या ऊब महसूस होती है तो समान सोच वाले दोस्तों का ही सहारा मिलता है या फिर संगीत का। पुराने गायकों के गीत बेहद पसंद आते हैं खास तौर से जज़्बात के हर पहलू को छूते हुए मुकेश के गीतों से ज़िंदगी के गमों को ताकत बनाने में बेहद मदद मिलती है। थोड़ी-बहुत निराशा, उसके बाद फिर आशा। चलता रहा जीवन का सफर।

क्योंकि जीवन चलने का नाम है। ऐसा मुकेश ने अपने गीत में कहा है। मेरा मन इस फलसफे पर यकीन करता है कि जो भी करो दिल से करो और सिर्फ अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी करो। उस धरती के लिए करो, जहां की मिट्टी ने पैदा होने से लेकर पनपने तक के मौके दिए। हमेशा मेरा मन ऐसे लोगों को ढूंढता है, जो मेरी तरह के भी हों और मेरी तड़प के भी। मेरी तड़प यानी कुछ ऐसा करन की तड़प, जिससे जीवन सार्थक हो जाए।

हां, मुझे शिकायत भी रही है, दो तरह के लोगों से। एक वो जो अपनी समस्याओं के लिए संज़ीदगी से नहीं लड़ते। कई बार तो उनके साथ खड़ा व्यक्ति उनसे ज्यादा संज़ीदा हो जाता है, और वो अपनी ही समस्याओं को हल्के में लेने लगते हैं। दूसरे वो लोग जो अपनी वक्त की कद्र नहीं करते हैं। जहां भी जाना है हमेशा देर से पहुंचते हैं।

लेखक अमर आनंद टीवी पत्रकार हैं। उनका ये लेख बिंदिया पत्रिका के दिसंबर अंक से साभार लिया गया है।

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Comments on “चौदह साल का वनवास बीता, सफर अब भी जारी है

  • अमर जी,
    धाराओं के विपरीत तैरना आपको आता है..आप आकाश का एक ऐसा नक्षत्र हैं जो आसमान में तमाम ऐसे ध्रुव तारे पैदा करना चाहता है जिसका क्षितिज उत्तर में न होकर हर दिशा की दिशा में प्रकाशित हो और उदयीमान हो…मैंने तमाम लोग देखे हैं जिनकी कथनी और करनी में जमीन और आसमान का अंतर होता है…लेकिन आपने जो लिखा आप वैसे ही हैं…मैंने आपके संघर्ष के दिन भी देखे आप वैसे ही मुस्कुराते रहे जैसे कोई हजारों कामयाबी पाने के बाद मुस्कुराता है…आपने ऐसे तमाम लोगों की मदद की जो आज ऊंची और अच्छी जगह पर हैं..मुझे भी वो दिन ज़िन्दगी भर याद रहेगा जिस दिन आपने मेरी पहली मुलाकात कोबरापोस्ट के एडिटर इन चीफ अनिरुद्ध बहल से कराइ थी जिसका में ताजिंदगी आभारी रहूँगा…

    शुभकामनाओ सहित
    के.आशीष

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  • asit dixit says:

    सर,

    आपका लेख पसंद आया..जो भी व्यक्ति आपके साथ काम कर चुका हो या आपके साथ कुछ समय बिता चुका हो वो आपके स्वभाव से अच्छी तरह परिचित होता है..और मेरे साथ तो आप मेरे घर कानपुर तक भी जा चुके हैं..एक अच्छे लेख के लिए बधाई..आगे भी मुझे व्यक्तिगत रूप से आपके मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती रहेगी..आशा है की हमेशा की तरह आपका सहयोग मिलता रहेगा..

    असित दीक्षित

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  • amit mishra says:

    आपके अनुभवों को पढ़कर अच्छा लगा। मेरे एक मित्र कहते थे कि कुछ सीखना है तो ज़रूरी नहीं कि किताबें ही पढ़ो, इंसान को पढ़कर भी काफी कुछ सीखा जा सकता है। इंसान खुद एक चलती फिरती किताब है, लिहाजा हर किसी में काफी कुछ सीखने के लिए होता है। बहरहाल, आपकी सोच और संघर्ष काबिले-तारीफ है। आपको जल्द आपकी मंज़िल मिले, ऐसी मेरी शुभकामना है।

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  • binodkumargupta says:

    AMAR SIR
    AAPKI LIKHI BATEN LOGON ME SANGHARSH KARNE KI SHAKTI DETI HAI….AUR EK MUKAM PER PAHHUCHNE KI SHAKTI PRADAN KARTI HAI

    THANKS
    BINOD

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  • Rakesh Tripathi says:

    अमर आनंद यानी यथा नाम तथा गुण। धारा के विपरात बहने में भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। जिसकी जितनी मदद हो सकती है, अपनी पूरी सामर्थ्य भर करते हैं…उनकी जैसी ही ज़िंदगी आम तौर पर मध्यमवर्गीय परिवार के किसी भी ऐसे शख्स की होती है , जो यूपी – बिहार के किसी खांटी देहात के इलाके से देश की राजधानी में आता है..कुछ करने की चाह में..घर से पैसे लेना बंद कर देता है..और स्वावलंबी जीवन जीता है। उस वक्त धरती उसका बिस्तर और आकाश उसकी चादर होती है…खोने के लिए कुछ नहीं होता। ऐसे न जाने कितने होनहारों ने खुद को मुंबई-दिल्ली के संघर्षों में खुद को तपा कर सोना साबित किया है। अमर आनंद भी वही कर रहे हैं…और यकीन करिये ..हम जैसों की छाती भी चौड़ी कर रहे हैं।

    उन्हें शुभकामनाएं

    राकेश त्रिपाठी[b][/b]

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