मुझे नहीं याद पड़ता है कि कभी अपनी सालगिरह मनाने के लिए किसी तरह का आयोजन किया हो। उम्र का एक हिस्सा गांव में गुज़रा। वहां ईद-बक़रीद जैसे उत्सवों के अलावा दूसरे पर्व-त्योहार ही मनाए जाते थे। शादी-ब्याह या कभी-कभार अक़ीक़ा जैसे आयोजन भी होते रहते थे लेकिन सालगिरह मनाने की कोई रस्म गांव में नहीं थी। आयोजन की बात तो जाने दें, जन्मदिन की औपचारिक बधाई देने की रस्म भी नहीं थी।
जन्मदिन आता और बिना किसी शोर-शराबे और बधाई-वधाई के चुपचाप चला जाता। न तो उसे कुछ पता चलता जिसका जन्मदिन होता और न ही दूसरे लोगों को इस बात का पता रहता। जन्मदिन आता और बहुत ख़ामोशी से साल में गिरह लगा कर अगले साल फिर से आने के लिए चला जाता। दरअसल हमलोग उस दौर में पैदा हुए, पले-बढ़े जहां सालगिरह जैसी रस्मों की समाज में कोई जगह ही नहीं थी। कभी-कभार सिनेमा में ज़रूर इस तरह की रस्मअदायगी को देखते और ‘तुम जियो हज़ारों साल’ या फिर ‘बार-बार दिन ये आए, बार-बार दिल ये गाए’ जैसे गीत सुन कर ही झूम लेते थे और ‘बर्थडे’ की कल्पना कर लेते थे कि यह भी शहर के लोगों का कोई चोंचला होगा। लेकिन मैट्रिक के बाद आगे की पढ़ाई के लिए संझले चाचा के पास रांची गया तो वहां भी इस तरह की कोई संस्कृति नहीं थी, जहां बर्थडे या सालगिरह मनाया जाता। वे रांची में एचईसी में काम करते थे। उनके दोस्तों की बड़ी तादाद थी फिर भी किसी के घर में इस तरह का कोई आयोजन नहीं होता था। तब न टीवी था और न इंटरनेट या मोबाइल। ले-दे कर रेडियो-ट्रांजिस्टर था जिससे गाहे-बगाहे गाना सुनते थे। सिनेमा ज़रूर था लेकिन उसे देखने पर भी बंदिश थी।
दरअसल फिल्मों को लेकर आम धारणा यह थी कि इससे ज़ेहनो-दिल पर बुरा असर पड़ता है और इससे कई बुराइयां पैदा होती हैं। मुंगेर में गर्मियों की छुट्टी के दौरान चचा (इज़हारुल हक़) के यहां जाना होता तो वहां ज़रूर फ़िल्म देखने की इजाज़त थी। चचा वकील थे इसलिए उनके जानने वालों में सिनेमा हाल के मालिकान भी थे। चचा का एक पुर्जा ही काफ़ी होता था। पटना में रिश्ते के एक फूफा भी थे इज़ाहरुल हक़। वे वित्त विभाग में थे और सिनेमा हाल के टैक्स जैसे मसले उनके पास आते रहते थे। इसलिए उनसे कह कर भी मुफ्त में ख़ूब फ़िल्में देखी थीं। लेकिन रांची में तो कालेज से भाग कर ही फ़िल्में देखीं। नया-नया शहर का चस्का लगा इसलिए छुप कर ही फ़िल्में देखीं और ख़ूब देखीं। इसके लिए कई बार पिटाई भी हुई लेकिन चोरी-छुपे फ़िल्म देखना नहीं छूटा।
संझले चाचा के साथ वहां सिर्फ दो फिल्में देखीं। एक तो थी ‘भाई हो तो ऐसा’ और दूसरी ‘पाकीज़ा’। पाकीज़ा को लेकर एक दूसरे तरह का क्रेज़ था लोगों में। घर वालों की राय में यह एक साफ़-सुथरी फ़िल्म थी। गांव से घर के दूसरे लोग भी आए थे इसलिए सब लोगों ने साथ मिल कर देखी थी यह फ़िल्म। मुझे जहां तक याद है अब्बू ने पहली बार शायद पटना में मैट्रिक के बाद कोई फ़िल्म देखने की इजाज़त दी थी और पैसे भी। हां, शेख़पुरा में छुटपन में एक फ़िल्म लगी थी ‘ख़ाना-ए-ख़ुदा’। वह फ़िल्म देश भर में ख़ूब चली थी। घर से बाहर पांव नहीं धरने वाली मुसलिम महिलाओं ने भी वह फिल्म देखी और उन लोगों ने भी जो सिनेमा को हराम बताने में आगे रहते थे। फिल्म हज को केंद्र में रख कर बनाई गई थी, इसलिए मुसलमानों में इसे लेकर एक अजब तरह का उत्साह था। इस उत्साह को देख कर तब यों लगता था कि लोग फिल्म देखने नहीं हज पर ही जा रहे हों। गांवों से टमटम, मोटरों, टैक्सियों और दूसरी सवारियों पर भर-भर कर लोग फिल्म देखने के लिए शेखपुरा गए थे। बुर्क़ानशीं औरतों, बच्चों, बूढ़ों, जवान मर्द-औरत सबों में फ़िल्म देखने को लेकर इस तरह होड़ थी मानो ज़मीन पर ही जन्नत मिल जाएगी या फिर अगर फ़िल्म नहीं देखा तो एक सवाब से महरूम हो जाएंगे। मेरे घरवाले भी इसमें शामिल थे और उन घरवालों में मैं भी शामिल था। घर वालों की इजाज़त से हम सब घरवाले फिल्म देखने गए थे। दादा अब्बा के अलावा और कौन-कौन लोग फ़िल्म देखने नहीं गए थे, अब यह याद नहीं। ज़माना बीत गया, लेकिन फ़िल्म के नाम पर इस तरह के उत्सव का यह पहला मौक़ा था। सच तो यह है कि तब हम इसी तरह के मौक़े उत्सव-समारोहों के लिए ढूंढते थे। सालों बाद इसी तरह का जनून ‘जय संतोषी मां’ को लेकर दिखाई दिया था। तब पात्र बदल गए थे और चेहरे भी।
तब हमारे जीवन में छोटी-छोटी ख़ुशियां इतनी बिखरी पड़ीं थी कि सालगिरह जैसे मौक़े पर जमा होकर केक काटने या फिर मोमबत्तियां बुझा कर ‘हप्पी बर्थडे’ का गीत गाने की ज़रूरत भी कभी महसूस नहीं हुई। उन दिनों को याद करता हूं तो लगता है कि तब हर दिन ईद हुआ करती थी और हर शब, शबे-बारात। खुशियां ज्यादा थीं, एक-दूसरे के दुख-सुख में शामिल होने के मौक़े इतने थे कि इस तरह के बनावटी आयोजनों के लिए जीवन में न तो जगह थी और न ही ज़रूरत। धीरे-धीरे जीवन से ख़ुशियां निकलती गईं और हम ‘डेज़’ के बहाने ख़ुशियां बांटने के मौक़े तलाशते लगे। धीरे-धीरे ये ‘डे’ हमारी संस्कृति में इस तरह घुलते-मिलते गए कि हम इनमें ही ख़ुशियों के पल तलाशने लगे। बाज़ार ने इनमें सेंध लगा कर इसे घर-घर तक पहुंचाया और हम अब बर्थडे ही नहीं मडर्स डे, फ़ादर्स डे, वैलेंटाइन डे और इसी तरह के अल्लम-ग़ल्लम डे मनाने को अभिशप्त हो गए हैं।
तकनीक ने इसे और विस्तार दिया। बाज़ार की पैठ दिन ब दिन इतने गहरी होती गई कि तरह-तरह की दुनिया हमारी दुनिया से जुड़ती गई। सालगिरह हर घर का हिस्सा बन गया। गिफ्ट वसूले जाने लगे और फिर बाज़ार ने अपना खेल खेला और रिटर्न गिफ्ट का सिलसिला चल निकला। इसी तरह की और दूसरी चीज़ें भी धीरे-धीरे ‘बर्थडे’ के नाम पर होने लगीं। अपना जन्मदिन तो कभी मनाया नहीं लेकिन बेटी का जन्मदिन मनाना सामाजिक तौर पर भी ज़रूरी हो गया। बेटी के साथ पढ़ने वाले जन्मदिन मनाते थे तो उसे भी मनाना ही था। उसके जन्मदिन से पहले कई तरह की माथापच्ची करनी पड़ती थी। उसके जन्मदिन के पांच दिन बाद मेरा जन्मदिन है लेकिन अपने लिए कभी नहीं सोचा। पत्नी का एक महीने पहले है, वह भी कभी परेशान नहीं हुई। लेकिन बेटी ही हम दोनों के जन्मदिन को लेकर भी परेशान रहती। अपनी उम्र के हिसाब से हम दोनों के लिए कुछ करने की कोशिश करती। यह उस नई पीढ़ी की सोच है, जिसके लिए बर्थडे उनकी संस्कृति का हिस्सा बन गया है। हमारे लिए तो आज भी यह कोई उत्सव नहीं है। इसलिए इस बार भी अपने जन्मदिन पर न तो किसी तरह के आयोजन की योजना थी और न ही ढोल-नगाड़े बजाने थे।
वैसे इस बार बेटी के जन्मदिन पर भी किसी तरह के आयोजन को हमने टालने का फैसला कर लिया था। बेटी ने यह ज़रूर कहा था कि उसे कुछ कपड़े ख़रीदने हैं, तो मैंने हामी भर ली थी। जन्मदिन से ठीक पहले उसकी परीक्षा थी, यह भी एक वजह थी कि इसबार उसके जन्मदिन को सादगी से मनाने का फैसला किया। मेरा भी देहरादून जाना नहीं हो पाया उस दिन तो फ़ोन पर ही बिटिया से बात की। उसे दुआएं दीं। लेकिन उसकी उदासी छुप नहीं सकी। तब मैंने उसे तसल्ली देते हुए कहा कि बेटा मैं आ रहा हूं, अपना और तुम्हारे जन्मदिन का केक एकसाथ काटेंगे। पता नहीं बिटिया ख़ुश हुई या नहीं लेकिन अपना देहरादून जाने का कार्यक्रम तय हो गया था।
जन्मदिन से एक दिन पहले रात की ट्रेन से देहरादून के लिए रवाना हुआ। जन्मदिन पर पहला संदेश मोबाइल पर मनु का आया और इसके ठीक बाद सुंबुल ने फ़ोन किया। बेटी को मैंने बताया कि मैं ट्रेन में हूं और सुबह-सुबह देहरादून पहुंच जाऊंगा। उसे यह भी बताया कि उसके लिए मैं एक अच्छा सा तोहफ़ा लेकर आ रहा हूं। वह ख़ुश हो गई। फ़ोन रखा ही था कि सौम्या का फ़ोन आ गया। सौम्या फ़ेसबुक पर बनी मेरी नई-नई दोस्त हैं। उन्होंने भी जन्मदिन की बधाई दी। कुछ दूसरी बातें भी उनके साथ हुईं।
नींद आ रही थी इसलिए फिर मैंने फ़ोन को वाइब्रेशन पर डाल दिया। नींद खुली तो पता चला कि गाड़ी बस देहरादून पहुंचने ही वाली है। मुंह-हाथ धो कर फ़ोन देखा तो किसी की काल आई पड़ी थी। तब तक गाड़ी स्टेशन पर लग चुकी थी। ट्रेन से उतर कर मैंने उस नंबर पर फ़ोन किया। दूसरी तरफ़ शिरीन हया थीं। लखीमपुरी खीरी में वे कहीं रहती हैं। उन्होंने सालगिरह पर बधाई दी, आपना नाम बताया और कहा कि फ़ेसबुक पर वे मेरी दोस्त हैं। दुआ-सलाम के बाद फिर फ़ोन की बात कही और उनसे विदा ली। सुबह की शुरुआत इस तरह सालगिरह की बधाई से हुई थी। मोबाइल पर ही कई एसएमएस भी इस बीच बधाई के आ चुके थे। तकनीक के इस युग में सामाजिक साइट फ़ेसबुक से जुड़े होने की वजह से पहली बार कुछ अनजान मित्रों के बधाई संदेश मिले तो अच्छा भी लगा।
घर पहुंच कर सफ़र की थकान मिटाने के बाद लैपटाप खोला तो अपने मेल बाक्स में फेसबुक के ज़रिए आए बधाई संदेशों को देख कर मैं अचंभे में पड़ गया। बड़ी तादाद में जाने-अनजाने मित्रों ने फ़ेसबुक पर जन्मदिन की बधाई दी थी। बधाई संदेश देखने के लिए मैं फ़ेसबुक खोला तो चैटिंग के ज़रिए कई लोगों ने बधाई देनी शुरू कर दी। इन बधाई संदेशों का जवाब देना मैंने ज़रूरी समझा और एक-एक कर सभों का शुक्रिया अदा किया। इस बीच नोएडा की एक मित्र ने मुझे बताया कि आपके फ़ेसबुक के वाल की सेटिंग्स में कुछ समस्या है इसे ठीक कर लें। अभी इस समस्या से जूझ ही रहा था कि दिल्ली से एक ज्योतिष पंडित सतवंत का फ़ोन आया। वही बधाई और बताया कि आपके वाल की सेटिंग्स ठीक नहीं होने की वजह से फ़ोन किया है। मुझे हैरत भी हुई और ख़ुशी भी। थोड़ी देर के बाद नेट से उठा तो बिटिया के साथ बाज़ार गया। हम दोनों ने तय किया कि एक छोटा सा केक लाया जाए और घर में ही हम उत्सव मनाएं। केक लेने के बाद कुछ मिठाइयां लीं, कुछ नमकीन लिए। बेटी ने कहा कि रात में अगर मुर्ग ज़ाफ़रानी बनाया जाए तो कैसा रहे। तब हमने बाज़ार से मुर्ग ख़रीदा और घर लौटे। यानी एक छोटे-मोटे उत्सव की तैयारी, जिसमें मैं, मनु और बेटी के अलावा सरूर शामिल हुए।
रात में फिर नेट पर बैठा तो जन्मदिन की बधाई देने वालों की भीड़ थी। उस पूरे दिन फ़ेसबुक पर क़रीब सात-आठ सौ मित्रों ने मुझे शुभकामनाएं दीं, अच्छा और बेहतर करने के लिए प्रेरित किया। जन्मदिन का यह मेरा पहला उत्सव रहा। इस उत्सव में मेरे सात-आठ सौ मित्रों ने शिरकत की। कुछ चीन्हे, कुछ अनचीन्हे। लेकिन सबने दिल खोल कर खुशियां लुटाईं। मुझे अपने प्यार से सराबोर किया। जन्मदिन का यह पहला उत्सव इतना भव्य रहेगा, मैंने इसकी कल्पना भी नहीं की थी। उन तमाम मित्रों का आभार जिन्होंने मेरे जन्मदिन को यादगार बनाया और तकनीक की दुनिया का भी शुक्रिया, जिसकी वजह से देश के अलावा विदेशों से भी लोगों ने मेरे जन्मदिन पर शिरकत की। फेसबुक के मेरे मित्रों ने जो मोहब्बत मुझ पर लुटाया है, ज़िंदगी की अंधेरी, पुरख़तर और सुनसान राहों पर उससे मुझे रोशनी भी मिलेगी और कुछ बेहतर करने के लिए प्रेरणा भी। मोहब्बतों के इन संदेशों ने मेरी आंखें भी नम कीं और अंदर यह यकीन भी पुख़्ता हुआ कि इंसानी रिश्तों में जो पाकीज़गी और मिठास है, वह तब तक क़ायम रहेगी, जब तक दुनिया रहेगी। क्या मैं ग़लत कह रहा हूं।
लेखक फज़ल इमाम मल्लिक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा जनसत्ता से जुड़े हुए हैं.
asif khan
July 6, 2011 at 7:17 am
फज़ल साहब आपका लेख पढ़ा…यकीन मानिये बहुत अच्छा लगा। जिस सादगी से आपने छोटी छोटी बातों को अपने लेख में जगह दी है वो वाकई तारीफ के काबिल है। हमारा जन्मदिन तो खुद नही मनाया जाता लेकिन फिर भी आपकी सालगिरह पर आपको मेरी तरफ से भी बधाई।
Bhupendra Pratibaddh
July 6, 2011 at 8:06 am
Bhayi Fazal apne janmdin ki tithi to nahin likhi lekin jankar behad achccha lagaa ki Birth Day culture aakhirkar aap par dore dalne mein kamyaab rahaa. aap sarikhe mahaul mein hamare jaise log bhi pale hain lekin film dekhne ki bandish nahin thi to karan yahi raha ki Pitaji hamse zyadaa cinema ke shaukin the. yah culture ghar-ghar pahunchane mein bazar ki bari aur nirnayak bhumika hai. nayi pirhi to isi mein dhali hai. baharhal apko aur apki beti ko janmdin ki belated badhayi.
Gourbesh singh
July 6, 2011 at 11:19 am
माशाअल्लाह.