मुझे नहीं याद पड़ता है कि कभी अपनी सालगिरह मनाने के लिए किसी तरह का आयोजन किया हो। उम्र का एक हिस्सा गांव में गुज़रा। वहां ईद-बक़रीद जैसे उत्सवों के अलावा दूसरे पर्व-त्योहार ही मनाए जाते थे। शादी-ब्याह या कभी-कभार अक़ीक़ा जैसे आयोजन भी होते रहते थे लेकिन सालगिरह मनाने की कोई रस्म गांव में नहीं थी। आयोजन की बात तो जाने दें, जन्मदिन की औपचारिक बधाई देने की रस्म भी नहीं थी।
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नीतीश लिख रहे हैं पत्रकारिता की नई इबारत
बिहार में पत्रकारिता की नई इबारत अब साफ-साफ़ दिखाई देने लगी है। पत्रकारिता में इस नई इबारत के लिखने की शुरुआत ठीक उसी वक्त हुआ था जिस वक्त बिहार में लालू प्रसाद यादव के पंद्रह साल के साम्राज्य का ख़ात्मा हुआ था और नीतीश कुमार ने बिहार में सत्ता संभाली थी।
बिहार में प्रेस पर नीतीश का अघोषित सेंसर
: सरकार के खिलाफ लिखने पर नौकरी जाने का डर : सरकारी भोंपू की तरह बज रहा है राज्य का मीडिया : बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून-व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है।