देहरादून। ब्राहमणवादी वर्णव्यवस्था के घेरे में जकडे़ भारतीय समाज में क्या कभी जाति नाम की बीमारी का क्षय हो पाएगा? जातीय चश्मे से जिस प्रकार की खबरें परोसी जा रही हैं, उससे धुंध छंटने के बजाय और घनी ही होती है. उत्तराखंड में देहरादून से प्रकाशित एचटी मीडिया घराने के दैनिक हिन्दुस्तान में 29 अक्टूबर को पेज नंबर दो पर बाक्स आइटम में ‘कांग्रेस के दलित कार्ड से भाजपा को राहत’ हेडलाइन से एक खबर छपी है.
हिन्दुस्तान के ब्यूरो चीफ की इस बाइलाइन खबर की शुरुआत यशपाल आर्य की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर लगातार दूसरी बार ताजपोशी होने को कांग्रेस के दलित कार्ड खेलने के तौर पर पेश किया गया है. हिन्दुस्तान कहता है- ‘कांग्रेस के दलित कार्ड से ब्राह्मण मतदाताओं का रुझान भाजपा की ओर बढने की संभावना बढ गई है। लम्बे समय से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की जंग पर निगाह डाले भाजपा के रणनीतिकार यशपाल आर्य की ताजपोशी को पार्टी हित में मान रहे हैं। डेढ साल बाद होने जा रहे विधानसभा चुनाव में ब्राहमण मतों की लामबंदी को लेकर भाजपा कैंप में विशेष उत्साह देखा जा रहा है.’
अखबार इससे आगे बढ़कर चिंतातुर सलाह देता है- ‘कांग्रेस को ब्राहमण मतों को अपने पक्ष में मोड़ने को अब भगीरथ प्रयास करने होंगे.’ इसके अलावा अखबार मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक से लेकर एक्स सीएम भुवन चंद्र खंडूरी और भाजपा के दूसरे नेताओं व कांग्रेस के हरीश रावत से लेकर सतपाल महाराज, विजय बहुगुणा एवं उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी तक की जाति की ओर इशारा करता है। इस पर सवाल उठता है कि सामाजिक-शैक्षिक तौर पर कुछ हद तक चेतन उत्तराखंड में जाति नाम की बीमारु गाय क्या सियासी समीकरण बनाने-बिगाड़ने की औकात रखती है?
इस सवाल का जवाब संभवतः इसी बात में छिपा है कि यदि कांग्रेस विजय बहुगुणा को छोड़कर जो आज भी हेमवती नंदन बहुगुणा के नाम पर ही अपनी दुकान चला रहे हैं, बाकी अपने गैर ब्राहमण नेताओं के उपर यशपाल आर्य को ही दोबारा प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने का फैसला करती है तो कम से कम उसे उत्तराखंड में जाति आधार पर मतों के ध्रुवीकरण का बहुत बड़ा आधार नहीं दिखता. संभवतः इसके पीछे उत्तराखंड के मतदाताओं का रुझान ही है. उत्तराखंड की जनता ने राज्य गठन के बाद हुए विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणवादी भाजपा को कुर्सी से बेदखल कर कांग्रेस को बैठाया और पांच साल बाद जब उसे लगा कि कांग्रेसियों ने लूट-खसोट की सारी हदें पार कर ली हैं तो उन्हें भी नंगा कर दिया. हालांकि यह तथ्य अपनी जगह सही है कि भारतीय समाज में जाति अपने बुरे अर्थों में एक सच्चाई है. लेकिन एक अखबार के तौर पर नेताओं की जाति गिनाना वाजिब नहीं लगता.
होना तो यह चाहिए कि राजनीतिक दलों में घर कर बैठे जातीय तत्ववाद की खिलाफत को ही मीडिया को अपनी खबरों का आधार बनाना चाहिए. जब किसी व्यापक प्रसार संख्या वाले अखबार में इस तरह जाति रूपी चेतना को पुष्ट करने वाली खबरें छपती हैं तो न चाहते हुए भी दूसरे छोटे-बड़े अखबार भी उसी की देखा-देखी गुणा-भाग में पिल जाते हैं.
देहरादून में ही एक स्थानीय दैनिक अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं-‘बड़े अखबारों की इन बेजा किस्म की हरकतों से उन पर भी छोटा राज्य होने के कारण इस तरह की खबरें तैयार करने का गाहे-बगाहे दबाव बनता है. बेहतर तो यह होता कि हिन्दुस्तान अगर कोई भगीरथ बनना ही चाहता है तो वह जाति को ढोने के बजाय उसकी कब्र खोदने में अपना योगदान दे सकता है. इसी में सबकी भलाई हो सकती है.’
लेखक दीपक आजाद हाल-फिलहाल तक दैनिक जागरण, देहरादून में कार्यरत थे. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.
Comments on “जाति न पूछो ‘हिंदुस्तान’ की!”
deepak azadji
bhalay ap daily jagran jaisay bahu prasharit akhbaar may karyrat raho ho parantu ap ka lekh padhkar aisa nahi lag raha ki ap wakai may us naamchin akhbaar may apni kabliyat k balbootay ghusay ho balki ap k gyan aur sankrin vicharo say yeh jhalkta hai ki ap abhi bhi apnay purkho k dard ko dho rahey hai aur kisi k dayapatra bankar jagran may reporting karnay ka saubhagya prapt kar liye.
azadji pahlay uttarakhand k jatiy samikaran ki bhalibhanti jankari kar liye hotein tab samajh may aata ki thapliyal nay kya kahnay ki kosis ki hai.
rajesh vajpayee unnao
jiti bhi kabary tipe ki ja rahi hai wo sab nisink ki salha sai so raha hai kyo ki nisik chatay hai ki jo bhi ho meri marzji sai wo media ko kharidey mai lagay hai aur sab biktay ja rahay hai koi jamin mai bik gaya to koi lakoo mai ab deepwali mai kuch patrkroo ko raja nisik ineem denay walay hai
Bhai Deepak Ji Ab Mujhe Shak Ho Raha Hai Ki Ye Jo Bhi Bhadas Par Parasarit Ho Raha Hai Ye Aapka Likha Huya Nahi Hai….. Kyonki Jin Shabdo Ka Chayan Aapne Kiya Hai Hai Wo Aapke Nahi Hai….Aapki Kalam Me Abhi Itni Gambhirta Nahi Aaayi Ki Aap Cheentatur Jaise Shabdo Ka Istemaal Kar Sake…… Ye Shabd To Congress Ek Parvakta Ke Hain Jo Patrakar Rah Chuke Hain…… Deepak Ji Mohra Mat Baniye. Aur Na Hi Bhadas Ka Durupyog Kariye. Jis Ki Khabar Ka Aap Analysis Kar Rahe Hain Wo Tab Se Patrakarita Kar Raha Hai Jab Aapke Doodh Ke Daant Bhi Nahi Tootte Honge
प्रिय दीपक जी आपका फोकस वाला लेख तो ठीक था पर इस पर मुझे आपत्ति है. आपका जो ज्ञान है वो थोडा कम लगता है. उत्तराखंड के जातीय समीकरणों से शायद आप वाकिफ नहीं है अगर हैं भी तो शायद कोई आपका इस्तेमाल कर रहा है. उत्तराखंड में ४४ % ठाकुर, ४० % ब्रह्मण, ११ % दलित, २ % मुस्लिम व बाकी अन्य हैं…. अविकल ने ठीक लिखा है….. अगर देश में जाति की राजनीति नहीं होती तो शायद नारायण दत्त तिवारी, मायावती, मुलायम सिंह यादव कई कई बार यूपी के मुख्यमंत्री नहीं रहते….. दीपक मुझे तो लग रहा है की तुम भी पैड न्यूज़ का शिकार हो रहे हो
Han ab Hindustan ki baari hai : Hindustan ke Dehradun edition me jo kuch chal rah hai usse to lagta hai vastav me ab Hindustan ki baari hai. Resident editor Dinesh Pathak ki agyanta se akhbar cntents less ho raha hai. Akhbar par sarkar ke gungaan ke aarop lag rahe hain. Launching ke ek saal tak dikhne wale tevar puri tarh se gayab hai. Residen editor Dinesh Pathak c.m ke saath helicopter me ghoom rahe hain. Iski jhlak khabron me dikh rahi hai. Aapda prabandhan me fail sarkar ka gungaan akhbaar kar raha hai. Political khabron me pakshpaat saaf najar aa raha hai. Aam pathak is baat ko bolne laga hai. Khabron ki importance ko nahi samjha ja rahai hai. Story repeat ho rahi hain. Magazine me kai baar chap chuki story or internet se purani story chaapi ja rahi hain. Do Took padhne se pathak bhrmit ho rahe hain. Dinesh Juyal ke samya do took akhbaar ki jaan hota tha.
Log field me kam kar rahe reporter ko pooch rahe hain ki kahan hai all is well in uttarakhand me. Ye bottem khabar Residen editor Dinesh Pathak ne likhi thi. Iska asar circulation par dekh raha hai. Hill region me to readers ki sankhya me kaafi giravat hai. Dehradun haridwar me bhj yahi haal hain. Rishikesh se sabhi or Roorkie se 80 perrcen log chod chuke hain. reporter chod ke ja chuke hain. Apne jin ladlon ko Resident editor Dinesh Pathak yahan laye hain unke character ko lekar kai baar sawal uth chuken hain.
Halat ye hai ki launching ke or usse pahle se akhbaar se jude reporter dusre akhbaar me jugaar laga rahe hain. Management tak bhi ye baat pahoonch chuki hai. Jald kuch nahi huwa to Hindustan ki baari ate der nahi lagegi.
Ye Hindustan ko kya ho gaya : Hindustan ke Uttrakhand Editon ke resident editor Dinesh Pathak ne Rishikesh me apni dream team tainat ki hai. Is team ke member pahle Dainik Jagran me kai kaarnamo ko anjam de chuke hain. Inke karan kai baar Jagran ko shrmsaar hona pada. Bahrhaal Pathak sahib ki dream team ab Hindustan ko shramsaar kar rahi hai. 28 October ko Raiwala ke ek school me ladki ke saath chedchad hui. Sabhi akhbaron ne ise likha. Magar Hindustan ne is ghatna ko tapovan ka bata diya. Raiwala or tapovan ke beech 20 km ki duri hai. Tapovan tehri District or Raiwala Dehradun ka hissa hai. Charcha hai ki aisa khaas karan se kiya gaya. Log iske liye Hindustan ke circulation department se sampark kar rhe hain. Karan editorial team ke ek ek member ke character ko log khub jante hain. Sabke muhn se ek hi baat nikal rahi hai ki aakhir Hindustan ko kya ho gaya. Kaas ye dream team sabhi station par tainat ho jaye to kaha ja sakta hai ki ab Hindustan ki baari hai.
kisi bhi akhabar ko jatiya muddun ko hawa nahi deni chahiye kyonki desh to pahale hi kai hisson m bant chuka hai hum to esa na karen ki samaj main aur vightan bade
देहरादून की पत्रकारिता इतने घटिया स्तर तक उतर गयी है जिसका सही-सही खुलासा दीपक आजद जी ने किया है। दुर्भाग्य से दीपक आजाद जैसे लोगों की जगह हिन्दुस्तान और जागरण जैसे अधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में नहीं रह गयी है। इसीलिये वह सड़क पर स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं। पत्रकार होने के लिये प्रतिभा की जरूरत नहीं है। निष्पक्ष होना तो अपने ही पैरोंपर कुल्हाड़ी मारना जैसा है। सत्य वह है जिसमें कुछ स्वार्थ हो। दीपक आजाद जैसे लोगों में ये दुर्गण न हों तो वे हिन्दुस्तान में होते। हिन्दुस्तान जिता बड़ा नाम उतना संकीण उसका दायरा है। देहरादून का हिन्दुस्तान जातीय संकीर्णता की ही कोख से पैदा हो रखा है। पहले यह खएडूरी जी की भाण्डगिरी करता था और अब निशंक जी की कर रहा है। पहले का सम्पादक जातीय प्रतिबद्धता के कारण खण्डूड़ी के गुण गाता था। जातिवाद फैला कर उत्तराखण्ड के समाज को अपने सजातीय सहयोगियों के साथ बिगाड़ता था तो अब का सम्पादक माल के लिये निशंकपुराण लिखता और लिखाता है। पहले वहां खण्डूरीवादियों की चलती थी तो अब निशंकवादियों की चलती है। उत्तराखण्ड जैसे नये राज्य के लिये इस तरह के घटिया अखबार बोझ के समान ही हैं। धिक्कार है ऐसे जातिवादी पत्रकारों और मालवादी चाटुकारों पर। विशेष संवाददाता का वह समाचार नया नहीं हैं। उनके नाम से छपी खबरें जातीय चासनी से निकली ही हैं।
अविकल जी पत्रकार तो अच्छे हैं मगर जब वह जातीय चश्मा पहनते हैं तो अपनी ही लेखनी का बेड़ा गडक कर देते हैं। कोई भी पत्रकार अगर जाति बिरादरी और साम्प्रदायिक चश्मों से समाज को देखेगा तो वह सच्चाई से दूर ही भागेगा। हमने तो अविकल जी का लेख नहीं पढ़ा मगर जैसा कि भड़ास में दीपक जी ने लिखा है और उस पर एक प्रतिक्रिया आई है उसे देख कर लगता है कि अविकल जीने अपने ही ढंग से उत्तराखण्ड का जातीय गणित गढ़ा है। वह जानते हैं कि उत्तराखण्ड में 60 प्रतिशत ठाकुर और 19 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं। जानजातियां तीन प्रतिशत से कम हैं और ब्राह्मण लगभग 15 प्रतिशत है। लेकिन यहां ब्राह्मणों की आबादी 40 प्रतिशत बता कर सच की कमर ही तोड़ दी है। जो 15 प्रतिशत ब्राह्मण हैं वे काफी जागरूक हैं और उन्हें परिवार नियोजन समझाने की जरूरत नहीं है। लेकिन अविकल जी ने 15 प्रतिशत को 40 प्रतिशत बता कर उत्तराखण्ड की उस जाति की समझदारी पर सवाल लगा दिया। हमारा पत्रकार बिरादरी से अनुरोध है कि वे जातिवाद के दलदल से उपर उठें और समाज को जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर न बांटें। पत्रकार जातिवाद को हवा देते हैं और फिर विधानसभा या लोकसभा के लिये अयोग्य लोग चुने जाने जाते हैं। गगन सिंह रजवार, मातबरसिंह कण्डारी, भुवन चन्द्र खण्डूरी, अनिल नौटियाल, आशा नौटियाल, ओम गोपाल रावत जैसे नेता जातिवाद के प्रसाद से विधानसभा में हैं। इनके अलावा भी कुछ ठाकुर और कुछ ब्राह्मण नेता जातिवाद की सीढ़ी से मंजिल तक पहुंचने का प्रयास करते हैं। भुवन चन्द्र खण्डूरी जी पर भी जातिवाद की ही कृपा है। देखा जाय तो गरीब के लिये न ठाकुरवाद और ना ही ब्राह्मणवाद काम आता है। राजनीतिज्ञों की एक ही बिरादरी होती है मगर वे अपने फायदे के लिये लोगों को जाति के नाम पर बांट देते हैं। गढ़वाल के पत्रकार भी चुनाव के दिनों में जातिवाद के रंग में रंग कर नंगई पर उतर आते हैं।
Baat sahi kahi gai hein ki samachar patro ko jatiyon ko hava nahin deni chahiye, Aaj desh mein kai jatiya hai,sampraday hai, dharam hai , koshish yeh honi chhahiyeke ham sab pehle BHARTI hon baad me sab kuch. Ab bhi waqthai ki desh vasiyon ko BHARTI banaye.