डाक्टर और वकील का बड़ा गहरा साथ होता है और कई बार दोनों एक साथ एक-दूसरे के आगे-पीछे चलते हैं. इन दोनों के बीच की कड़ी के रूप में कई बार पुलिस भी हो जाती है. इस बार भी कुछ ऐसा ही हो रहा है, जब एक डाक्टर और एक वकील को एक पुलिस वाला मिला रहा है. लेकिन यहां विशेष बात ये कि डाक्टर और वकील दो नहीं, एक ही हैं, यानी कि डबल रोल. और बीच का लिंक बना मैं, पुलिस वाला, जो इस डाक्टर और वकील का मित्र भी है, सुहृद भी और छोटा भाई भी.
जिस आदमी का मैं जिक्र कर रहा हूं उनका नाम है हंसराज तिवारी. रहने वाले हैं बलिया के पूर्वी इलाके बैरिया के. अब वे वकील हैं, लेकिन अपना करियर शुरू किया था डाक्टर के रूप में. फिर एक दिन अपनी बसी-बसाई नौकरी छोड़ कर वकालत की पढ़ाई शुरू कर दी और वकील हो गए. एक वकील के रूप में मैंने उनसे अच्छा वकील नहीं देखा है. हो भी कैसे- क्या कोई आदमी एक साथ बहुत ज्ञानी, अपने काम का गहरा जानकार, अपने काम और अपने लोगों के प्रति पूर्णतया समर्पित, उतना ही खुशमिजाज, हंसमुख, सहज और सरल भी हो सकता है और उतना ही मनबढ़, दबंग और स्वाभिमानी भी. आप इस आदमी से स्नेहपूर्वक तो जो चाहें करवा लें पर यदि आपने रोब ग़ालिब करने की कोशिश की तो मामला गया हाथ से. यारों के यार हैं और जुबान के पक्के.
पर मैं यह आलेख मात्र इस कारण से नहीं लिख रहा हूं कि मैं एक वकील के रूप में उनका प्रशंसक हूं. मैं इस शख्सियत से आप का परिचय इसीलिए करा रहा हूं क्यूंकि ये आदमी जैसा आज है, वैसा उस समय भी था जब उसकी शायद ही कोई अवस्था रही हो. वह तब भी वैसा ही बना रहा जब उसके इतने कष्टप्रद दिन थे कि उसकी जगह कोई और सामान्य आदमी
रहा होता तो उसने बहुत पहले ही अपने हथियार डाल दिए होते. पर हंसराज तिवारी नामक ये सज्जन ऐसे तमाम लोगों में कदापि नहीं थे, जो अपनी सुख-सुविधा, अपने भैतिक आराम और अपने तात्कालिक लाभ-हानि के लिए किसी भी हद तक जाने और कोई भी समझौता करने को व्याकुल बने घूमते हैं. शायद इसीलिए मैं उन्हें देश और समाज के लिए एक सच्ची मिसाल मानता हूं.कहानी की शुरुआत तब होती है जब हंसराज जी मेडिकल कालेज में स्टूडेंट थे. उस समय के ब्राह्मण परिवारों की परंपरा के अनुसार उनकी भी शादी कालेज के दौरान ही कर दी गयी, वह भी बिना उनकी मर्जी जाने और बिना लड़की को देखे-सुने. बाद में मालूम हुआ कि उनकी पत्नी मानसिक रूप से अविकसित हैं. एक जवान मेडिकल स्टूडेंट के लिए यह भयावह सदमा था पर इस नौजवान ने उस बात को भी सहर्ष स्वीकार किया. यद्यपि पति-पत्नी में संपर्क होने का कोई कारण नहीं था पर इन्हें कालेज में कुछ डाक्टरों ने बताया कि शायद एक संतान होने पर लड़की ठीक हो जाए. किन्तु संतान पाने पर भी उनमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वे पहले जैसी ही बनी रही.
जैसा कि अपने देश में अक्सर होता है, घर वाले पत्नी की किसी भी अयोग्यता के कारण लड़के की तुरंत दूसरी शादी की बात करने लगते हैं, यहां भी वही हुआ. पिता ने कहीं रिश्ता लगभग तय कर दिया. इन्हें जब मां ने बताया तो इतना कहा- ”वे लोग घर के बड़े-बुजुर्ग हैं, जो निर्णय लेना चाहे लें, मेरी बोलने की क्या हैसियत है और क्या अधिकार है, पिछली बार लड़की में मानसिक रूप से गड़बड़ी थी, इस बार शारीरिक गड़बड़ी वाली लड़की से ब्याह कर दें, मैं तो हर कुछ स्वीकार करने को बाध्य हूं ही.”
उनके पिता ने यह बात सुन ली. उन्हें यह बात चुभ गई. उन्होंने कुछ कहा नहीं पर मन ही मन बात को रख लिया. पिता ने जहां जहां बात तय हो रही थी, रिश्ता मना कर दिया. आगे चल कर मां द्वारा चुनी हुई एक लड़की से विवाह हो गया. पर पिता के मन में पुत्र की कही बात गहरी बैठी थी. वे किसी ना किसी बहाने शादी तक में अनुपस्थित हो गए. पुत्र हंसराज अंतिम समय तब पिता का इंतज़ार करते रहे. तभी विवाह मंडप में गए जब बुजुर्गों ने उन्हें बाध्य कर दिया. जब नव-व्याहता दंपत्ति आशीर्वाद मांगने पहुंची तो पिता ने पांव खींच लिए.
नौजवान और संवेदनशील हंसराज इससे बहुत व्यथित हो गए. उन्होंने उसी समय कहा कि यदि आपको मुझे आशीष देना नागवार है तो मैं आज से आपके ऊपर बोझ नहीं बनूंगा. मेरे लिए घर छोड़ना ज्यादा है. उन्होंने अपनी पत्नी से भी कहा कि वे परिवार चुन लें या दर-दर ठोकर खाने के लिए पति का साथ. उस स्त्री ने पति के साथ ही जीवन का सुख-दुःख झेलना तय किया.
इस प्रकार हंसराज जी और उनकी पत्नी उसी अवस्था में घर से बाहर आये. पिता ने भी एक बार रुकने को नहीं कहा. उनके पास जेब में मात्र सौ रुपये थे. उनके शरीर पर मात्र शादी का सूट-पैंट था और पत्नी शादी का जोड़ा धारण किये थीं. पर गहना एक भी नहीं था क्यूंकि एक रस्म के सिलसिले में सारे गहने उतार कर रख दिए गए थे. इस प्रकार सौ रुपये जेब के और अनगिनत रुपये अपने मन की ताकत के लिए हंसराज एक अपनी नवव्याहता पत्नी के साथ सड़क पर थे- पूर्णतः असहाय, परेशानहाल और भ्रमित. लेकिन एक चीज़ जो हंसराज जी के साथ अपनी थी, वह थी उनके मन की अदम्य शक्ति और आत्म-बल. और सौभाग्य से जो दूसरी बहुत बड़ी चीज़ उन्हें मिल गयी थी, वह थी एक ऐसी स्त्री का साथ जो अपने आप में बेजोड़ थी और जिसने उस स्थिति में हंसराज जी का संबल बन कर उनके मन की शक्ति को कई गुना बढा दिया था.
वे दोनों गांव से सुरेमनपुर और वहां से ट्रेन से बलिया. वहां किराए के लिए घर खोजा. बड़ी मुश्किल से एक परिचित के जरिये एक घर मिला. मकान मालिक ने किराया बताया बीस रुपये प्रति माह. साथ ही पेशगी भी मांग ली सवा सौ रुपये. कहना ही पड़ गया कि पेशगी को एक पैसा नहीं है. भले मकान मालिक ने इतनी बात मान ली. इस तरह इस दंपत्ति को छत तो मिल गया था पर बिना किसी सामन के, बिना किसी धन-धान्य के, बिना किसी सहयोग के और बिना किसी नौकरी-चाकरी के. घर का एक भी सामान नहीं, ओढना- बिछौना नहीं, कपड़े-लत्ते नहीं, खाने-पीने के बर्तन नहीं, यानी कुल मिलाकर वे दोनों, एक छत और जेब के सौ रुपये. वह भी ऐसा शख्स जो एक बहुत अच्छे खाते-पीते परिवार का वारिस हो, स्वयं डाक्टर हो और जिसका सुनहरा कल संभावित हो.
परन्तु इस आदमी ने उन स्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारी. और उनकी पत्नी ने भी उतना ही सहयोग दिया. उस रात वे लोग बाज़ार से साधारण सा खाना खरीद कर ले आये और वही खा कर रह गए. फिर बिना बिस्तर के जमीन पर मात्र एक चादर बिछा कर सो गए. वह चादर भी मिला था मकान मालिक की कृपा से जिसे इस नौजवान पर कुछ दया आ गयी थी. इसके बाद एक-एक आना और एक-एक रुपये के लिए इस नवदंपत्ति का संघर्ष चला जो कई साल तक चलता रहा. इन्टर्न कर रहे डाक्टर साहब अपनी गृहस्थी को किसी प्रकार से रास्ते पर लाने के लिए तीन गुनी मेहनत करते. उस पूरी सर्दी वे रजाई नहीं बनवा पाए क्यूंकि पैसे जो नहीं थे. बीस रुपये में खुद का और पच्चीस रुपये में पत्नी का एक-एक शाल खरीदा और उसी के सहारे बलिया की भीषण सर्दी का सामना किया. इस पूरे दौरान उनका पुरसाहाल पूछने को घर से कोई भी नहीं था. इस तरह से गुजारे हुए दिन आज भी उन्हें याद आते हैं पर उनके मन में नाराज़गी नहीं दिखती, एक प्रकार की दार्शनिकता नज़र आती है.
फिर धीरे-धीरे समय बदला और अच्छे दिन आ गए. पर उस समय भी उनकी दूसरी पत्नी ने सबसे पहला काम यही किया कि अपने पति की पहली पत्नी और उनकी संतान को अपने पास बुला कर रखा और अपने और उनके बच्चों को इस तरह से पाला जैसे दोनों दो माओं की ना हो कर एक की ही संतान हों. इतना ही नहीं जब पहली पत्नी को बाद में कैंसर हो गया था तो कई साल तक उनकी सेवा की. सबसे बढ़ कर बात तो यह है कि इन सब के बाद भी हंसराज जी के मुंह से अनजाने भी पिता के लिए आक्रोश का एक शब्द तक नहीं निकलता.
जब उनकी बातें सुनते हुए मैंने और मेरी पत्नी ने यह टिपण्णी कर दी कि उनके साथ पिताजी ने बड़ा गलत किया तो उनका कहना था- “हो सकता है मेरी ही गलती रही हो. पिता आखिर पिता होते हैं. उन्होंने पूरे घर की भलाई के लिए ही यह फैसला लिया होगा. उन पर तो मेरे साथ-साथ पूरे सामूहिक परिवार को चलाने की भी जिम्मेदारी थी.” साथ यी यह बात भी गौरतलब है कि जब बाद में पिता-पुत्र के संवाद स्थापित हो गए और सारी चीज़ें ठीक हो गयीं तो इन्हीं पिता के लिए ही उन्होंने सरकारी डाक्टरी की नौकरी तब छोड़ दी, जब पिता बीमार हो गए थे और वे किसी भी दशा में बलिया छोड़ने को तैयार नहीं थे. मैंने अपने जीवन में हंसराज जैसा शानदार वकील तो नहीं ही देखा है, उनके जैसा बेमिसाल इन्सान भी बहुत ही कम देखा है. मैं उन्हें और उनकी पत्नी को ह्रदय से प्रणाम करता हूं.
लेखक अमिताभ ठाकुर यूपी के आईपीएस अधिकारी हैं. फिलवक्त शोध कार्य से जुड़े हैं. साथ-साथ लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र में भी सक्रिय हैं.