: स्वीकार कर लीजिए, मीडिया नहीं रहा चौथा खंभा : चुनावी माहौल में पटना में आयोजित एक संगोष्ठी पत्रकारों को कई मायनों में झकझोर गई. ‘चुनाव में मीडिया की भूमिका’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में देश के कई नामी गिरामी पत्रकारों ने अपने विचार रखे. श्रोताओं से सीधा संवाद भी हुआ. तर्क वितर्क के बीच निष्कर्ष ये निकला कि बाजारवाद की अंधेरगी में रौशनी की लकीर तलाशनी ही होगी. संगोष्ठी के अध्यक्ष प्रसिद्ध गांधीवादी डॉ रजी अहमद ने मौजूदा पत्रकारिता को जनसरोकारों से दूर करार दिया.
उन्होंने कहा कि हालत बेहद खतरनाक है औऱ अगर आलम ऐसा ही रहा तो भविष्य भयावह हो जाएगा. दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने जिस सभागार से पेड न्यूज के खिलाफ मुहिम का आगाज किया था, गांधी संग्रहालय के उसी सभागार में रजी अहमद ने पत्रकारों से पत्रकारिता को प्रदूषण मुक्त बनाने के लिए कारगर कदम उठाने की अपील की.
पत्रकार जनता का वकील होता है, वो जनता के लिए जनता की अदालत में मुकदमा लड़ता है, हर पत्रकार को मुंशी प्रेमचंद की ये बातें आत्मसात करनी लेनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है, ये बातें संगोष्ठी के मुख्य वक्ता और वरिष्ठ पत्रकार श्याम कश्यप ने कहीं. श्याम कश्यप ने इस बात पर जोर दिया कि स्वस्थ्य पत्रकारिता के लिए खबरों के साथ साथ विज्ञापन तय करने का अधिकार भी संपादक के पास होना बहुत जरुरी है. वरिष्ठ पत्रकार सुकांत ने मीडिया की गिरती साख.. और नाकारात्मक भूमिका के लिए मुनाफे की होड़ में लगे मालिकों को कसूरवार ठहराया, उन्होंने ये भी कहा कि आज के पत्रकार के हाथ खुले नहीं, बल्कि बाजारवाद के दबाव से मुट्ठी बंद है.
उधर वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर ने मौजूदा पत्रकारिता को दिगभ्रमित बताते हुए कहा कि खबरों में नेताओं से ज्यादा जनता को जगह देने की जरूरत है. कोई भी नेता लगातार एक ही तरह का बयान देता है, अपने झूठे दावों को दोहराता है, लेकिन टीवी चैनल और अखबार वाले उसे लगातार दिखाते हैं, जिससे जनता उकता जाती है जबकि होना ऐसा चाहिए कि नेता की बात एक बार दिखाई जाए औऱ फिर जिसके लिए नेता दावे करता है, लगातार उनकी बातों को दिखाया जाए.
उधर बिहार की पत्रकारिता में राजनीतिक दबाव की बात करते हुए वरिष्ठ पत्रकार दिलीप मंडल ने बताया कि बिहार में मीडिया को करीब 70 फीसदी विज्ञापन सरकार या राजनीतिक दलों से मिलते हैं, ऐसे में उनका राजनीतिक दबाव में काम करना लाजिमी है। जनहित से दूर होती मौजूदा पत्रकारिता का सार बताते हुए दिलीप मंडल ने कहा जनता अगर चैनल या अखबार के खर्च का महज पांच फीसदी कीमत चुकाती है तो फिर 100 फीसदी की उम्मीद बेमानी है. पेड न्यूज के खिलाफ बड़ी मुहिम छेड़ चुके वरिष्ठ पत्रकार ने दो टूक शब्दों में कहा कि ‘मीडिया लोक तंत्र का चौथा स्तंभ नही रहा इसे स्वीकार कर लेना चाहिए’.
मुकेश कुमार ने पुराने पत्रकारों के महिमामंडन और उनके आर्दशों की गाथा को नकारते हुए कहा कि अगर आज वो लोग जिंदा होते तो अपनी छाती कूट रहे होते. उन्होंने कहा कि अंधेरा है तो उजाले की उम्मीद करते हुए अंधेरे के गीत गाइए, लेकिन इंतजार कीजिए, एक दिन हमी लोग सूरज पर पड़े कालिख को मिलकर मिटाने की भूमिका निभाएंगे.
मशहूर कथाकार ह्रषिकेश सुलभ ने भी यही कहा कि बेशक अंधेरे में अंधकार के गीत गाइए लेकिन रौशनी की लकीर कहां है ये भी पत्रकारों को ही तलाशना होगा. इस मौके पर भावना शेखर और डॉ बी के अग्रवाल ने भी अपने विचार रखे। मंच संचालन करते हुए वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा ने कहा कि मीडिया पर अघोषित सेंसरशिप लागू है. संगोष्टी में वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ तिवार, अजय कुमार, सुनील पाण्डे, ऋषि कुमार, प्रभात पाण्डेय और नयन कुमार भी मौजूद थे। राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक माहेश्वरी ने संगोष्टी के आखिर में सबका धन्यवाद ज्ञापन किया.
पटना से प्रभात पांडेय की रिपोर्ट
Comments on “झकझोर गई पटना की यह संगोष्ठी”
sabhee jagah ek hee hal hai.
यह हर प्रान्त, शहर, अख़बार की कहानी है. जो कहते हैं कि हमारी नहीं है वे सफ़ेद झूठ बोलते है. ओम प्रकाश गौड़ मो- 09926453700 ई-मेल- om_prakash_gaur@rediffmail.com
देश को हर बार राह दिखाने वाले बिहार में , पत्रकार बंधुओं ने पत्रकारिता को भी राह दिखाने की शुरुआत की , अच्छा लगा। दिलीप मंडल ने सही कहा सरकारी विज्ञापन के छीन जाने का भय भी एक कारण है की सत्य को उजागर नही कर पाते हैं अखबार । मैने बिहार रिपोर्टर वीकली में मगध विश्ववि््द्यालय में व्यापत भ्रष्ट्राचार को सबके सामने रखा और सभी बडे अखबारों ने यह माना कि सब जानते हुये खामोश रहना उनकी मजबूरी है , कारण है विज्ञापन।