उपन्यास की कहनी एक अखबार के बिकने और एक हाथ से निकल कर दूसरे और फिर दूसरे से तीसरे में जाने से सम्बंधित है, पर पाण्डेय जी ने इसके साथ ही पत्रकारिता के कई वृह्त्तर आयामों पर भी प्रश्न उठाते हुए उनकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है. वे यहीं नहीं रुकते बल्कि इससे आगे बढ़ कर पत्रकारिता के साथ राजनीति, बिजिनेस और समाज के अन्य पहलुओं का भी गहराई से सम्बन्ध स्थापित करते हुए इसका छिद्रान्वेषण करते हैं. एक से एक पात्र भी उन्होंने तैयार किये हैं इस उपन्यास में. यदि एक तरफ मध्यम स्तर के पत्रकारों में सुनील है और सूर्यप्रताप तो संपादक स्तर पर भैया जी जोर मनमोहन कमल जैसे खुर्राट पात्र भी हैं.
प्रदेश के दो नामचीन राजनेताओं को भी उपन्यासकार ने बड़ी खूबसूरती से बीच में ला दिया है और उनके जरिये कई सारी अंदरखाने छिपी या भूली-बिसरी बातें भी रख दी हैं. पात्र और भी हैं लेकिन अक्सर वे बस आते हैं और झलक दिखा कर चले जाते हैं. मैं खास कर दो पात्रों का जिक्र करूँगा जिनमें एक मेरे व्यक्तिगत रूप से पसंदीदा संपादक हैं. दयानंद जी ने उस पात्र का नाम आधा ही पेश किया है मेहता. करीब दस-बारह साल से आउटलुक पत्रिका पढ़ता हूँ और दावे से कह सकता हूँ कि यदि किसी एक व्यक्ति को इसका श्रेय जाता है तो वह हैं अलोक मेहता. अब हर आदमी के कई रंग होते हैं, कुछ जाने – कुछ अनजाने. हो सकता है आउटलुक के संपादक के रूप में आलोक मेहता साहब जो नज़र आते हैं वह वास्तविक रूप से वैसे ना हों, पर फिर भी मैं इस बात को उतनी आसानी से नहीं मान सकूंगा. वैसे तो जीवन में इतनी सारी अकस्मात घटनाएं देख चुका हूँ कि अब अनायास किसी बात पर आश्चर्य नहीं होता पर इस बारे में ऐसा लगता नहीं, खास कर के तब जब दयानंद जी भी इस उपन्यास के जरिये यह जानकारी देते हैं कि अलोक मेहता साहब का खुद का एक बड़ा बंगला लखनऊ के कैंट क्षेत्र में है, जिसे वे अपने रसूख के बल पर जब चाहते खाली करा सकते थे, पर उन्होंने ऐसा करना उचित नहीं समझा. ऐसी बातें मन को गहरे तक झकझोर देती हैं और सम्बंधित व्यक्ति के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न करती हैं.
दूसरे बड़े पात्र मित्रा हैं जो निश्चित रूप से चन्दन मित्रा होंगे. मैं उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता, ना उनकी लेखनी से और ना ही किसी व्यक्तिगत जानकारी से. जो कुछ भी जानता हूँ वह टीवी और अन्य समाचार पत्रों के उनके बयान आदि से ही. अतः मैं इस पर कोई टिप्पणी कर पाने का अधिकारी नहीं हूँ सिवाय इस बात के कि उन्हें आज आम तौर पर एक विचार विशेष के संवाहक से रूप में जाना जाता है और संभवतः वे भी इसे किसी प्रकार से अन्यथा नहीं समझते. वे एक विचारधारा से कटिबद्ध हैं और अपनी जगह पर स्थित हैं तो यह उनका व्यक्तिगत दृष्टिकोण है, इस पर किसी तीसरे व्यक्ति का कोई खास अधिकार बनता नहीं दिखता. वैसे यदि इस बात को आलोक मेहता के सन्दर्भ में देखा जाए तो कई लोग उन्हें भी इससे विपरीत धारा के सहज संवाहक के रूप में इंगित करते दिख जाते हैं.
लेकिन इस उपन्यास के जो असली मजेदार पात्र हैं वे हैं भैयाजी और मनमोहन कमल. आप उन्हें घिनौने कहें, गंदे कहें, कलुषित कहें, घटिया कहें या फिर पूरी पत्रकारिता को बिगाड़ने वाले कहें, पर इस बात से आप इनकार नहीं कर सकते कि वे अपने आप में मजेदार हैं. जानने वाले सभी जानते हैं कि ये दोनों पात्र कौन हैं क्योंकि दयानंद जी ने बहुत झीनी सी दीवार बनायी है और इनके असली आइडेंटिटी को लगभग साफ़ जाहिर कर दिया गया है. अब इन दोनों में से कोई इस दुनिया में नहीं हैं. दोनों इह्लोक में महिला पत्रकारों, महरी, नौकरानी और अन्य जो भी उन्हें नसीब हुई, उनके साथ कर्म-कुकर्म करते हुए अब परलोक के साथी बन चुके होंगे, जहां संभव है उनके ये कार्यक्रम बदस्तूर जारी हों. पर इसमें कोई शक नहीं कि इन लोगों के सफ़ेद-स्याह कारनामों का असर आज तक पत्रकारिता के संसार में देखा जा सकता है, जिसमें इन लोगों ने कितने ही अपने मिनी और जूनियर टाइप बना कर छोड़ दिए ताकि वे आने वाली पीढ़ियों को इन महानुभावों की याद दिलाते रहें. मैं डरवश और व्यक्तिगत रूप से उनके सम्बन्ध में सुनी-सुनाई बातों के अलावा कोई अन्य साक्ष्य नहीं होने के कारण उनका नाम नहीं ले रहा और यह बात खुलेआम स्वीकार करता हूँ.
मैं जो समझ सका उसके अनुसार मुझे सुनील में तो दयानंद जी ही नजर आये, क्योंकि एक परम क्रांतिकारी और चेतनाधर्मी व्यक्ति के रूप में दयानंद जी का कोई मुकाबला जल्दी नहीं मिलने वाला है. यद्यपि मुलाक़ात के दौरान दयानंद जी से इस पर पूछने पर उन्होंने मुस्कुरा कर इस बात को टाल दिया पर जितनी बातें मैं जान सका हूँ उसके अनुसार मुझे सुनील में वे ही दिखते हैं. लेकिन सूर्य प्रताप को ले कर अभी मुझे कुछ कन्फ्यूजन है. जहां तक मुझे याद है गोरखपुर के एक काफी नामी-गिरामी पत्रकार लखनऊ में आज से करीब सात-आठ साल पहले स्कूटर दुर्घटना में मारे गए थे, संभवतः सूर्य प्रताप वही हैं. पर मुझे उनका नाम याद नहीं आ रहा है, उनके प्रति मन में सम्मान जरूर पैदा हो रहा है कि किस प्रकार से यह आदमी कुछ समझौतों के बावजूद अंत तक इंसानियत की लानत-मलानत नहीं कर सका और इंसान बना रहा.
मैं यह समझता था कि मुझे उपन्यास आदि पढ़ने का धैर्य नहीं है पर इस उपन्यास के विस्तार, फिसलाव, विषय-वस्तु और तरलता ने मुझे ऐसे बिंध लिया कि मैं इससे एक बार जो चिपका तो समाप्त होने के पहले अलग ही नहीं हो सका.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. लखनऊ में पदस्थ हैं. इन दिनों आईआईएम, लखनऊ में अध्ययनरत हैं.
Hari Ram Tripathi
February 15, 2011 at 8:24 am
Late Shri Jai Prakash Sahi is SURYA PRATAP.==H.R.Tripathi
hari ram tripathi
February 21, 2011 at 5:27 am
written by Hari Ram Tripathi, February 14, 2011
Late Shri Jai Prakash Sahi is SURYA PRATAP in this story.Mukutji is Shri Sheo Singh Saroj.The edtor who resigned is Late Shri Veerandra Singh.
This story is undoubtedly a masterpiece.It may be categorised
as SATYA KATHA at present but it will become a very good historical story after a few decades. D N P deserves appriciation for all of his writings .—Dr.Hari Ram Tripathi—Mob=09415020402