: ‘वीइकल’ और ‘रॉन्ग’ शब्द का सही उच्चारण करने वाले को प्रेस क्लब में ड्रिंक्स और डिनर का आफर : नवभारत टाइम्स के सभी वरिष्ठ संपादनकर्मियों को मुझ कनिष्ठतम संपादनकर्मी वीरेंद्र जैन का नमस्कार। मुझे आप लोगों से जो दो बातें साझा करनी हैं उनकी शुरुआत सकारण अपनी उपलब्धियों से करनी पड़ रही है। मेरा आग्रह है कि इसे अन्यथा न लें।
आत्मपरिचय के बिना अपनी बात आप तक संप्रेषित करना असंभव होने के चलते ही मुझे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने जैसा अशोभन कार्य करना पड़ रहा है। यह बताना इसलिए भी आवश्यक है चूंकि आप में से अधिकांश मुझे संभवत: कंपनी के स्पेस और अपने समय का अपव्यय करने पर उतारू अहमक प्रौढ़ के रूप में ही जानते हैं।
मैं एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति का सदस्य हूं और इन दिनों सीबीएसई से संबद्ध भारत के अधिकांश स्कूलों में कक्षा नौ और दस में हिंदी की जो पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ और पूरक पुस्तक ‘संचयन’ पढ़ाई जाती है, उसके निर्माण में मेरा भी योगदान है। जब से सीबीएसई ने सीसीई पैटर्न अपनाया है, मुझे किसी न किसी स्कूल में वर्कशॉप के दौरान अध्यापकों को यह समझाने जाना पड़ता है कि इन्हें नए पैटर्न में कैसे पढ़ाएं, चूंकि पुस्तकें यह पैटर्न अमल में आने से पहले तैयार की गई थीं।
पुस्तक में मेरा नामोल्लेख वीरेंद्र जैन, पत्रकार, सांध्य टाइम्स के रूप में दिया गया है। इसलिए होता यह है कि वर्कशॉप में आए अध्यापक मेरे सामने अखबारी भाषा की भूलों का पिटारा खोलने लगते हैं। मेरा वास्तविक संकट तब शुरू होता है जब उन्हें यह पता लगता है कि मैं सांध्य टाइम्स नाम के उस अखबार में काम नहीं करता जिसके वे पाठक नहीं हैं, बल्कि उस नवभारत टाइम्स में काम करता हूं जिसके वे नियमित पाठक हैं। वे नभाटा में हुई किसी भी भूल के लिए मुझे जिम्मेदार मानकर जो खरी-खोटी सुनाते हैं, वह सुनना, सहना और उनसे पीछा छुड़ाना अपने आप में एक दुष्कर कार्य बन जाता है।
वे मुझसे जानना चाहते हैं कि आपके अखबार का वह कौन भाषा-विज्ञानी या वैयाकरण है जो इतना भी नहीं समझता कि भाषा का प्रयोग व्याकरण सम्मत नियमों से होना चाहिए। अखबार का पन्ना किसी का डबलबेड नहीं है कि जैसे चाहे शब्दों को लिटा-बिठा दिया। दफ्तर में देर हो गई, हारे-थके घर पहुंचे, नींद ने जोर मारा सो उन्हीं कपड़ों में बिस्तर पर लंबवत हो गए। इसके विपरीत समय से पहुंचे तो नाइट शूट पहनने के बाद लंबी तानकर सोए। यह घर में तो चल सकता है अखबार के पन्ने पर नहीं। वहां तो स्पेस अधिक हो तब भी यदि अर्धाक्षर की जगह अनुस्वार के प्रयोग की विधि अपनाई जाती है तो लंबा ही लिखना होगा, लम्बा नहीं। वर्तनी प्रयोग के मामले में जो मानक विधि अपनाने की नीति निर्धारित हो, उसका पालन करना होता है। भले ही किसी शब्द के दो रूप शुद्ध रूप हों लेकिन नीतिगत वर्तनी के प्रयोग की प्रतिबद्धता के चलते उनमें से किसी एक का प्रयोग ही उचित होता है। जिस भाषा के पाठकों से संबोधित हैं उस भाषा के उच्चारण का भी ध्यान रखना होता है। ऐसा प्रयोग नहीं किया जाता जिसका उच्चारण या पठन ही हिंदी में संभव न हो।
नभाटा से ही कुछ उदाहरण देते हुए अध्यापक मुझे यह चुनौती देते हैं कि आपने अपने अखबार में इन शब्दों का प्रयोग किया है न, हमसे तो इनका उच्चारण संभव नहीं हुआ, अब आप ही बोल कर दिखाइए। मसलन ‘वीइकल’ और ‘रॉन्ग’ शब्द का। वे मुझे जो प्रलोभन देते हैं उनका उल्लेख तो यहां नहीं करूंगा, अपनी ओर से यह प्रलोभन अवश्य देना चाहूंगा कि जो कोई भी, जिस किसी दिन भी इनका उच्चारण कर देगा उसे उस शाम प्रेस क्लब में ड्रिंक्स और डिनर का न्योता मेरी ओर से पक्का। प्रयास करने वाले को पहले शब्द के उच्चारण में इ और दूसरे में आधे न् की स्पष्ट ध्वनिभर निकालनी होगी।
इधर हो यह रहा है कि हम यह मानकर चलने लगे हैं कि अंग्रेजी के एन के समतुल्य हिंदी के पास एक ही वर्ण है और वह है न। नतीजा यह है कि अण्णा को अन्ना, मण्डप को मन्डप, अञ्जनि को अन्जनि, गुञ्जन को गुन्जन, और भी न जाने कितने अपरूपों की तरह रॉङ्ग को रॉन्ग लिखा और पढा जाने लगा है। गनीमत यही है कि गङ्गा अभी गन्गा नहीं बनी है। संभव है एक दिन गंगा भी इस रूप में पढ़ने को मिलने लगे। एन के फेर में हमने अर्धाक्षर ही नहीं राणावत और श्रावणी जैसे शब्दों में प्रयुक्त हुए पूर्णाक्षर ण को भी न बनाकर रानावत और श्रावनी लिखना शुरू कर दिया है।
हम यह मानना ही नहीं चाहते कि अंग्रेजी के अकेले एक शब्द ‘एन’ से हिंदी के एक नहीं चार वर्णों का अर्धरूप ध्वनित होता है – ङ् / ञ् / ण् / न् । यह अंग्रेजी की विवशता हो सकती है कि उसकी शब्द संपदा में मात्राओं के लिए पृथक से व्यवस्था नहीं है, हिंदी की नहीं, जिसके एक-एक वर्ण के ही दर्जन भर रूप होते है – क, का, की, कि, कु, कू, के, कै, को, कौ,
कं, क: और अकेले र के प्रयोग के लिए जिसके पास क्र, कृ, र्क जैसे अनेक रूप हैं। इसलिए अंग्रेजी के किसी शब्द में आए एन अक्षर का यथासंदर्भ हमें वही अर्थ लेना होता है जिसके लिए वह प्रयुक्त हुआ है।
…जारी…
इसके आगे का पढ़ने के लिए क्लिक करें- वीरेंद्र जैन का पत्र (अंतिम भाग)
श्रीकांत सौरभ
September 21, 2011 at 10:05 am
बकवास,समयखोर व घटिया लेख . कुछ अपवाद के साथ क्लिष्ट हिन्दी का समर्थन .
kranti kishore mishra
September 21, 2011 at 5:29 pm
Utkrisht evam vastuparak lekh.bhashai alpgyta logo ki kamzori hai..
धर्मेंद्र कुमार
September 25, 2011 at 1:56 pm
आखिर क्यों नवभारत टाइम्स को ही व्याकरण का अंतिम मानक माना जाए…
Dr. Maher Uddin Khan
September 27, 2011 at 6:42 am
jain saheb pahle to ye bataen ki aapka swasth kaisa hai. mere vichar se aab NBT main patrkar kam aur jamoore adhik hain in se koi aasha karna bekar hi nahin balki bhens ke aage been bajana hai. aapne dhayan nahin diya ye log manhole ko mainhole auur namaz aada karne ko aata karna aur premi yugal ko yugal joda likhte hain.aur bhi bahut moorkhtaen karte rahte hain kahan tak ginayen. maheruddin 09312076949