यह कहना मुश्किल है कि आने वाला इतिहास अरुण शौरी को महान पत्रकार के तौर पर याद करेगा या गलती से राजनीति में भटक गए एक नेता के तौर पर। दोनों में से कैसे भी करें, अरुण शौरी को जूझने वाले और सामने वाले के छक्के छुड़ा देने वाले पत्रकार के तौर पर और फिर नेता के तौर पर पहचाना जाता है और आगे भी पहचाना जाता रहेगा। आश्चर्य की बात यह है कि तिहाड़ जेल में बंद भूतपूर्व संचार मंत्री ए राजा के शुभचिंतकों के तौर पर ही अरुण शौरी की गिनती होती है, क्योंकि वे तो अब भी सीबीआई को सलाह दे कर आए हैं कि जैसे भी हो सके राजा को सरकारी गवाह बना लिया जाना चाहिए।
पत्रकारिता में इतने बड़े बड़े उद्योगपतियों का कबाड़ा उन्होंने किया है इतने निकट नेताओं को उनकी गलतियां पकड़ कर कुर्सी से उतरवाया है और सीधे इंदिरा गांधी और राजीव गांधी से पंजा लड़ाया है। कम लोग जानते हैं कि अरुण शौरी के सबसे करीबी मित्र और पत्नी के नाते करीबी रिश्तेदार सुमन दूबे, जो राजीव गांधी के सबसे करीबी दोस्त थे और बीच में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक भी रह चुके हैं, फिर भी सुमन दूबे अरुण शौरी की राय राजीव गांधी के बारे में नहीं बदल पाए। इंडियन एक्सप्रेस के जुझारू मालिक रामनाथ गोयनका तक एक समय राजीव गांधी को पसंद करने लगे थे। रामनाथ गोयनका ने तो यहां तक कहा था कि देश में पहली बार एक ऐसा प्रधानमंत्री आया है जो शक्ल से ही ईमानदार और निश्छल लगता है। मगर जल्दी ही बचपने में राजीव गांधी की छवि का अरुण नेहरू, अरुण सिंहों, रोमी छाबड़ाओं और ऐसे ही बहुत सारे लोगों ने कबाड़ा कर दिया।
अरुण शौरी बोफोर्स के मुद्दे को लेकर सामने आए और इसे खगोलीय मुद्दा बना दिया। यह बात अलग है कि राजनीति में पाखंड के प्रतीक विश्वनाथ प्रताप सिंह को अरुण शौरी ने राजीव गांधी से विश्वासघात करने और कुछ समय के लिए प्रधानमंत्री बन जाने का अवसर भी दिया। बीच में तो अरुण शौरी की राजीव गांधी के प्रति नफरत इतनी बढ़ गई थी कि तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के पास राजीव गांधी की सरकार बर्खास्त करने का एक लंबा चौड़ा पत्र भी कानूनी उपायों और संविधान की धाराओं के साथ भेज दिया था, जिस पर राष्ट्रपति को सिर्फ दस्तखत करने थे।
एक तो राजीव गांधी के पास प्रचंड से भी ज्यादा प्रचंड और उस समय तक अखंड दिखाई पड़ने वाला बहुमत था और दूसरे ज्ञानी जैल सिंह ऐसा कुछ भी करने की हिम्मत नहीं बटोर पाए, जो उनके पहले उनसे ज्यादा पढ़े लिखे और महान राष्ट्रपति नहीं कर पाए थे। फिलहाल अरुण शौरी के पास राजा ही नहीं, पूरे यूपीए को बचा सकने या निपटा देने लायक एक फाइल है और अरुण शौरी के पास जो है, उसकी कीमत कोई नहीं लगा सकता। कीमत उन्होंने तब नहीं लगवाई जब बड़े-बड़े नेता उनके चरणों में बैठा करते थे, दुनिया के कोने-कोने से उन्हें लाने के लिए चार्टर्ड जहाज भेजे जाते थे, बड़े से बड़े औद्योगिक घराने अरुण शौरी को चाय पर बुलाने के लिए पूरा चाय बगान खरीदने को तैयार हो जाते थे।
अरुण शौरी के पास तथ्यों और तर्कों दोनों की ताकत है। पहले शायद उन्हें तथ्य खोजने पड़ते हों मगर अब फाइलें ही फाइलें चल कर उनके पास आ जाती है। संचार घोटाले में अरुण शौरी ने हस्तक्षेप किया तो सिर्फ इसलिए किया क्योंकि वे खुद इस मंत्रालय के मंत्री रह चुके थे और विनिवेश वगैरह की नीतियां सबसे पहले अरुण शौरी ने ही तैयार की थी और चलाई थी। राजा की बदकिस्मती यह थी कि वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं और लगातार यही कहते आ रहे थे कि उन्होंने स्पेक्ट्रम घोटाले में उन्हीं नीतियों का पालन किया जो एनडीए की सरकार यानी अरुण शौरी बना कर गए थे। अरुण शौरी बार-बार कहते रहे कि जो चलाई जा रही है वे उनकी बनाई नीतियां नहीं हैं, लेकिन राजा नहीं माने और सीबीआई के इतिहास में पहली बार किसी ने इतने गंभीर मामले पर खुद को गवाह बनाने का प्रस्ताव रखा और एजेंसी को चुनौती दी कि वह उनसे पूछताछ की तारीख तय कर के बताए।
लेखक आलोक तोमर जाने-माने पत्रकार और विश्लेषक हैं.
Comments on “नेता-पत्रकार अरुण शौरी के शौर्य का सच”
namaskar alok g asha karta hu ki aap ka swasthaya acha hoga , aap ke dwara jo jankari di jati hai vah kaafi gyanvardhak hoti hai.