आलोक तोमर की स्मृति में हर साल पच्चीस हजार रुपये का एवार्ड देने की घोषणा

मध्य प्रदेश की धरती से उपजे जांबाज पत्रकार आलोक तोमर को मध्य प्रदेश के पत्रकारों ने भावभीनी श्रद्धांजलि दी. आइसना (आल इंडिया स्माल न्यूज पेपर्स एसोसिएशन) द्वारा भोपाल के रवींद्र भवन में बीते दिनों आयोजित एक समारोह में संगठन के प्रांतीय अध्यक्ष अवधेश भार्गव ने आलोक तोमर की स्मृति में हर साल किसी जांबाज पत्रकार को पच्चीस हजार रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की.

एक शराबी का अपराधबोध

: मेरी भोपाल यात्रा (1) : भोपाल से आज लौटा. एयरपोर्ट से घर आते आते रात के बारह बज गए. सोने की इच्छा नहीं है. वैसे भी जब पीता नहीं तो नींद भी कम आती है. और आज वही हाल है. सोच रहा हूं छोड़ देने की.

यादों में आलोक : किसने क्या बोला, यहां सुनिए

कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित आलोक तोमर स्मृति कार्यक्रम ‘यादों में आलोक’ में किसने क्या बोला, उसे आप नीचे दिए गए आडियो प्लेयर के जरिए सुन सकते हैं. शुरुआत में आईपीएस अधिकारी अमिताभ का संबोधन है. उसके तुरंत बाद संचालक डा. दुष्यंत ने पुण्य प्रसून बाजपेयी को आवाज दी. पुण्य प्रसून बाजपेयी के संबोधन के ठीक बाद परमानंद पांडेय ने अपनी बात रखी.

यादों में आलोक : आयोजन की कुछ तस्वीरें

होली के दिन आलोकजी के चले जाने की खबर मिली थी. तब गाजीपुर के अपने गांव में था. रंग पुते हाथों को झटका और चुपचाप बगीचे की तरफ चला गया. न कोई झटका लगा, न कोई वज्रपात हुआ, न कोई आंसू निकले, न कोई आह निकला… सिर्फ लगा कि कुछ अंदर से झटके से निकल गया और अचानक इस निकलने से शरीर कमजोर हो गया है.

यादों में आलोक : आयोजन की कुछ बातें, मेरी नजर से

पत्रकार मयंक सक्सेना भारतीय जाति प्रथा के अनुसार कायस्थ हैं, पर आलोक तोमर उनके पिता की तरह थे (या जैसा मयंक ने स्वयं कहा उनके दूसरे पिता थे). दुष्यंत राजस्थान के पत्रकार और लेखक हैं, आलोक तोमर से कोई दूर-दूर का पारिवारिक रिश्ता नहीं था पर उनकी आँखें ऐसे डबडबाई हुई थी जैसे उन्होंने कोई सगा खो दिया हो.

 

क्षमा करें, इसलिए ‘यादों में आलोक तोमर’ में नहीं आया

आलोक तोमर को चाहने वाले कांस्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया, डिप्टी स्पीकर हॉल-नई दिल्ली में एकत्रित हुए और मैं चाहते हुए भी उपस्थित नहीं हो सका। इस आयोजन की तारीफ तो नहीं करूंगा, क्योंकि हमारा, हम सबका फर्ज ही यही है कि कैंसर-ग्रस्त पत्रकारिता को बचाने के लिए आलोक तोमर को जिंदा रखा जाए, इसके बावजूद कि वह सदेह अब हमारे बीच नहीं रहे।

सैकड़ों पत्रकार साथियों ने आलोक को सलाम किया

कलम के धनी स्व. आलोक तोमर को याद करने के लिए मीडिया जगत की सैकड़ों नामी हस्तियां कल दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में जमा हुईं। प्रिंट मीडिया के जरिए देश के सुपर स्टार जर्नलिस्ट बन जाने वाले और न्यू मीडिया यानि वेब के जरिए पढ़े-लिखों के दिल-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ने वाले हमारे समय के सबसे होनहार, साहसी और उर्जावान साथी आलोक तोमर की याद में दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में ‘यादों में आलोक’ नामक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ।

आलोक तोमर को यह सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है

यशवंतजी, आलोक तोमर की याद में आयोजित प्रोग्राम ”यादों में आलोक” काबिले तारीफ था. हॉल तक मुझे ले जाने में आप के अनुरोध से अधिक आलोक तोमर के नाम-काम ने प्रेरित किया. बोलना मैं भी चाहता था लेकिन सिर्फ एक वजह से रुक गया. वजह थी आलोक भाई की एक नसीहत जो  उन्होंने मुझे दी थी. कर नहीं सकते तो बोलो मत. लोग गंभीरता से नहीं लेंगे.

‘यादों में आलोक’ आज : वो होते तो ये होता, वो होते तो वो होता…

आलोक तोमर: आज टाइम निकालिए, दो बजे कांस्टीट्यूशन क्लब पहुंचिए : यादों में आलोक. यही नाम है कार्यक्रम का. आलोक तोमर बहुत जल्द चले गए. अब भी हम जैसे बहुतों को यकीन नहीं कि आलोक जी चले गए. अन्ना हजारे का आंदोलन और उसके बाद चल रहे ड्रामे को देख एक साथी ने फोन कर कहा कि आलोक तोमर जी होते तो जबरदस्त लिखते इस पूरे ड्रामे पे.

आलोक तोमर को चाहने वाले कांस्टीट्यूशन क्लब में 22 को जुटेंगे

प्रिंट मीडिया के जरिए देश के सुपर स्टार जर्नलिस्ट बन जाने वाले और न्यू मीडिया यानि वेब के जरिए पढ़े-लिखों के दिल-दिमाग पर अमिट छाप छोड़ने वाले हमारे समय के सबसे होनहार, साहसी और उर्जावान साथी आलोक तोमर की याद में दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में इसी 22 अप्रैल को एक आयोजन किया जा रहा है. ‘यादों में आलोक’ नामक इस आयोजन में दो सत्र होंगे.

आलोक तोमर के बारे में राजेंद्र माथुर ने ये कहा था….

”आलोक तोमर की रिपोर्टों को पढ़कर एक तो सुख यही होता है कि जो काम कभी-कभी बर्नियर या टेवर्नियर या ऐसे ही नामवाले लोग करते थे, वह अब परिचित नाम और चेहरों वाले लोग भी करने लगे हैं. लेकिन इतना बड़ा कैनवास सामने रखकर मैं आलोक तोमर के बारे में कुछ कहने से बच रहा हूँ, ऐसा कतई न समझा जाए. मेरी राय में हिंदी के गिने-चुने रिपोर्टरों में उनकी गिनती है, और क्योंकि यह काम हिंदी में कम हुआ है, इसलिए वे उन मल्लाहों की तरह हैं जो नए-नए महाद्वीपों की खोज में चार-पांच सौ साल पहले निकल जाया करते थे.”

आलोक तोमर को श्रद्धांजलि देने उमड़ा ग्‍वालियर

देश के जाने-माने पत्रकार और ग्वालियर-चम्बल के सपूत स्वर्गीय आलोक तोमर जी को उनकी प्रारम्भिक कर्मभूमि रही ग्वालियर में अत्यंत भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गयी. ग्रामीण पत्रकारिता विकास संस्‍थान द्वारा आयोजित इस श्रद्धांजलि सभा में अंचल भर के पत्रकार, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, रंगकर्मी और आलोक जी से जुड़े लोग तथा उनके निजी मित्रों ने कला वीथिका में अपने चहेते पत्रकार को भावपूर्ण पुष्पांजलि अर्पित की.

अनुकूलित मानसिकता के पत्रकार न थे आलोक

[caption id="attachment_20039" align="alignnone" width="505"]आलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉयआलोक तोमर जी की तस्वीर पर फूल अर्पित करतीं उनकी पत्नी सुप्रिया रॉय[/caption]

: इसीलिए उनकी कलम शीत-ताप नियंत्रित भाषा नहीं लिखती थी :

आलोक तोमर के अंतिम दिनों के दो वीडियो

दो वीडियो हैं. एक डेढ़ मिनट के करीब और दूसरा आधे मिनट से कुछ कम. बत्रा अस्पताल में कीमियोथिरेपी कराने के दौरान आलोक तोमर जी से मिलने मैं कुछ लोगों के साथ गया था. एक बार अनुरंजन झा के साथ गया था दूसरी बार आचार्य राम गोपाल शुक्ला के साथ. फोटो उतारता तो आलोक तोमर हड़का लेते, …. फोटो मत लो, छाप मत देना, मेरे प्रशंसक दुखी हो जाएंगे मेरा चेहरा-मोहरा-सिर देखकर.

जब भी बेरोजगार होता आलोकजी के पास जाता

वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर जी के पंचतत्व में विलीन होने के बाद तय कर चुका था कि मैं कुछ नही लिखूंगा। क्योंकि जिस जिंदादिल आलोकजी से मिला था, उन्हें काल ने असमय अपने पास बुला लिया। मगर उनके साथ बिताए क्षणों को बांटना भी जरूरी समझा ताकि अपना मन हल्का हो सके।

बहुत याद आएंगे आलोक तोमर

मनोज वाजपेयीक्रिकेट की दुनिया का हाई वोल्टेज मैच होने को है। पूरी दुनिया और सारे समाचार चैनल पाकिस्तान पर दबाव बनाने में लगे हैं कि वो किसी तरह मैच हार जाए। हर दिन के प्रोग्राम और समाचारों से सेमीफाइनल की कीमत बढ़ायी जा रही है। इस सारे हो हल्ले के बीच मुझे एक दुखद खबर मिली है कि हमारे दोस्त और मशहूर जाबांज पत्रकार आलोक तोमर इस दुनिया में नहीं रहे। एक झटका सा लग गया। अचानक ये सारी क्रिकेट की धूम बेमानी सी लगने लगी है।

”उनके साथ ऐसे काम करना जैसे मेरे साथ हो”

मैं सीएनईबी से जुड़ा ही था कि एक दिन मैं अपने बड़े भाई और पिता तुल्य आदरणीय पंकज शुक्ला जी से बात करते-करते जब सीएनईबी के रिसेप्शन पर आया तो वहां पर मेरी पंकज जी ने आलोक जी से मुलाकात कराई, तब उन्होंने कहा इटावा के पास बसे नगला तोर का मैं भी रहने वाला हूँ और एक लम्बे समय से उनका परिवार मध्य प्रदेश के भिण्ड में रह रहा है. उसके कुछ समय बाद एक दिन उनका फोन आया नीरज मैं कल सुबह शताब्दी से इटावा आ रहा हूँ, मुझे भिण्ड जाना है.

स्‍व. आलोक तोमर को काव्‍य श्रद्धासुमन

आदरणीय यशवंतजी, सादर प्रणाम, हालांकि मेरा दिवंगत आलोक तोमर से कोई विशेष व्‍यक्तिगत संबंध नहीं रहा लेकिन मैं उनकी लौह लेखनी का कायल था। वह हिंदी पत्रकारिता के अजेय सेनानी थे। मैं अपने काव्‍य श्रद्धा सुमन साहस और निर्भीकता के पर्याय आलोक तोमर जी को आपके भड़ास4मीडिया के माध्‍यम से प्रस्‍तुत कर रहा हूं। इस गीत में उनके पत्रकारिता जीवन के विविध आयाम उकेरे गये हैं। इस आलोकजी को समर्पित इस गीत को मैंने गत दिवस ही एक कवि सम्‍मेलन में पढ़ा था।

प्रभाष जोशी और आलोक तोमर : एक पाठक का पत्र और दयानंद पांडेय का जवाब

यशवंत भाई और आदरणीय दयानंद जी, अच्छा लेख पर क्षमा चाहता हूं कि क्या मैं जान सकता हूं कि दयानंद जी ने कितने वक्त तक जनसत्ता में काम किया था. जहां तक मेरी जानकारी है शायद केवल एक महीने बतौर प्रूफ रीडर. हो सकता है मैं गलत हूं और चाहूंगा कि दयानंद जी इसका खंडन करें. तो पाठक ही तय करें कि कोई व्यक्ति जिसने केवल एक महीने जनसत्ता में काम किया हो. ऐसे लेख लिखे मानो वो आलोक तोमर को बचपन से जानता हो…और जनसत्ता को मानो उसी ने स्थापित कर दिया.

आलोक तोमर की स्‍मृति में दिया जाएगा भाषाई पत्रकारिता पुरस्‍कार

इंदौर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले भाषाई पत्रकारिता महोत्‍सव के अंतर्गत दिए जाने वाले पत्रकारिता पुरस्‍कार इस वर्ष से वरिष्‍ठ पत्रकार स्‍व. आलोक तोमर की स्‍मृति में प्रदान किए जाएंगे. यह घोषणा इंदौर प्रेस क्‍लब के अध्‍यक्ष प्रवीण खारीवाल ने स्‍व. तोमर की याद में आयोजित शोकसभा में की.

ट्रेफलगार स्क्वैयर और आलोक जी

फरवरी के दूसरे सप्ताह में आलोक जी का कुशल क्षेम जानने के लिए मैं ग्वालियर से दिल्ली गया था। उनकी बैठक में लंदन के ट्रेफलगार स्क्वैयर का चित्र टंगा था। ट्रैफलगार के यु़द्ध में इंग्लैंड की नौसेना के कमांडर नेलसन ने नेपोलियन के जहाजी बेड़े को नेस्तानाबूद कर दिया था। नेलसन इस भीषण युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। अंग्रेज जाति ने उन्हें वीर शिरोमणि का दर्जा दिया।

शायद मोबाइल पर उनकी आवाज आ जाए कैसे हो यार!

आलोक तोमर के बारे में 2006 की शुरुआत से पहले मैंने सिर्फ खबरों के जरिए ही जाना था। सोचता था कि कैसे आदमी होंगे। कहां से खबरे खोज लाते होंगे। कैसे इतने सारे बड़े लोगों से एक साथ मोर्चा खोल लेते हैं। पर 2006 में इंडियन एक्सप्रेस में आने के बाद जनसत्ता के अंबरीश कुमार से उनके बारे में काफी कुछ सुना। एक्सप्रेस के अंग्रेजी दां माहौल में अंबरीश जी सबसे ज्यादा या तो मुझसे बात करते थे या फिर बाद में ज्वाइन करने वाले वीरेंद्रनाथ भट्ट जी से।

काल तुझसे होड़ है मेरी

अपनी बीमारी के दौरान भी आलोक तोमर की कलम रूकी नहीं थी. वे लगातार लिख रहे थे. अपने घातक कैंसर के बारे में जानने के बाद भी वह वे कहीं से विचलित नहीं थे. बार-बार कहते थे कि मेरा नहीं कैंसर का इलाज चल रहा है. देखते हैं वो अपने को मेरी काया से कैसे बचा पाता है. वे इतने निडर थे कि उन्‍होंने काल से भी होड़ ले रखी थी.

भिंड के वाटर वर्क्स से दिल्‍ली के सीआर पार्क तक एक जैसे आलोक

16 जनवरी 2011, सवेरे अचानक फिर शरद श्रीवास्तव का फोन आया.. बगैर भूमिका के बोले -अभी दिल्ली चलना है, जल्दी से कपडे़ अटैची में डालो. शरीर में एकदम बिजली सी कौंध गयी. रात को ही बात हुई थी और तय हुआ था 21 को चलेंगे.. अचानक क्या हुआ?  एकदम मुंह से निकला- क्या भाई साहब की तबीयत बिगड़ गयी है… जबाब हाँ में था… मात्र एक घंटे में हम लोग दिल्ली रवाना हो गए.

मुझे मालूम है, तुम मर नहीं सकते…

[caption id="attachment_19935" align="alignleft" width="74"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]ये लेख या संस्मरण या स्मृतिका जो कह लें, कई लोगों के कहने के बाद और खुद के भी कई असफल प्रयासों के बाद लिख रहा हूं क्योंकि 21 मार्च से जितनी भी बार कलम उठाई है हर बार बस आंसू ही निकले हैं… शब्द एक नहीं फूट पाया। अवाक हूं कि आखिर आलोक तोमर कैसे मर सकते हैं? बार-बार खुद को विश्वास दिलाता हूं कि हां अब तात चले गए हैं और उतनी ही बार अवचेतन, चेतन को झिड़क देता है कि क्या बकवास करते हो, भला आलोक तोमर के प्राण लेने का साहस किसमें है.

इस शोर के बीच पसरा सन्‍नाटा

मैं डेटलाइन इंडिया में था। आलोक जी एस1 चैनल में ज्वाइन करने का मन बना चुके थे। बताया कि मैं कल से चैनल में काम करूंगा और आप यहां का काम संभालेंगे। मैंने कहा-आप चिंता मत कीजिए। ‘‘मैं हूं ना’’। उन्होंने कहा मुझे पता है कि आप हैं। फिर हल्की फुल्की बातचीत हुई और आखिर में उन्होंने बताया कि आगे से बात करते वक्त इस बात का खयाल रखिएगा कि आप एक चैनल हेड से बात कर रहे हैं। मैंने कहा कि आप भी मत भूलिएगा कि मैं भी एक संस्था का सर्वेसर्वा हूं और इसीलिए बातचीत हमेशा बराबरी के स्तर पर ही होगी। मुझे लगता है कि आपको ऐतराज नहीं होना चाहिए। वे मान गए।

वे युवाओं के लिए आदर्श थे और रहेंगे

आलोक जी के निधन की ख़बर सुनकर पहली चिंता हुई कि कौन लिखेगा अब बेबाक बातें। पत्रकारिता को अपने कर्म से कौन करेगा सार्थक। शाययद वही एक स्तम्भ थे, जो निडर पत्रकारिता को थामे हुए थे। मेरी व्यक्तिगत पहचान उनसे नहीं थी। लेकिन एकबार उनसे मिला था। वो हमारे कॉलेज आए थे। हम नौसिखिए पत्रकारों को ये बताने कि वो तिहाड़ क्यों गए थे? साथ ही साथ ये भी कह गए कि अगर जरूरत पड़ी तो तुम लोग भी ना घबराना, क्योंकि तिहाड़ से निकलने के बाद वो सीधा भोपाल माखनलाल विश्वविद्यालय ही आऐ थे।

तुम मेरे आलोक थे

ये कविता मेरे तात (आलोक तोमर) को समर्पित है…तात आप अजीब सी हालत कर गए हैं… आपसे तमाम बार झगड़ा हुआ, बोलचाल भी बंद हुई और आप बीमार भी पड़े पर ऐसी बदहवासी वाली स्थिति कभी नहीं आई… तमाम लोग जिनको आपके बारे में तमाम भ्रम रहे उनसे मैं कभी लड़ा नहीं, क्योंकि वो आपसे कभी मिले ही नहीं थे… तो वो क्या जानते आपके बारे में.

”आलोक को प्रभाष जोशी की तानाशाही ने मार डाला था”

दयानंद पांडेय: जोशी के अर्जुन और एकलव्‍य दोनों थे तोमर : छोटा हूं ज़िंदगी से पर मौत से बडा हूं. आलोक तोमर के निधन की खबर जब होली के दिन मिली तो सोम ठाकुर के एक गीत की यही पंक्तियां याद आ गईं. सचमुच मौत आलोक तोमर से बहुत छोटी साबित हुई. लेकिन अपना अपराधबोध भी अब साल रहा है. माफ़ करना आलोक, मैं तुम्हें देखने, मिलने नहीं आ सका. चाह कर भी.

न्यूज एक्सप्रेस आफिस में आलोक तोमर की याद में स्मृति सभा

आलोक तोमर ऐसे पत्रकार थे जिनका साहित्य, संगीत और विचार तीनों से गहरा संबंध था और इसने उनकी पत्रकारिता को एक नई पहचान दी। पिछले ढाई तीन दशकों में अपनी रिपोर्टिंग के दम पर अगर किसी पत्रकार ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनायी है तो वे अकेले आलोक तोमर रहे। वे जीवन पर्यंत सक्रिय रहे जो कि एक पत्रकार के लिए बहुत जरूरी चीज होती है।

आलोक के जाने से एक मजबूत स्‍तंभ ढह गया

झारखण्ड की सांस्कृतिक राजधानी देवघर में प्रेस क्लब द्वारा आलोक तोमरजी को श्रद्धां‍जलि दी गयी. देवघर के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पत्रकारों ने दो मिनट का मौन रख दिवंगत आत्मा की शांति के लिए बाबा बैद्यनाथ से प्रार्थना किया.

कौन बनेगा करोड़पति शुरू हो रहा है, तुम वहां ज्‍वाइन करो

सुनकर विश्वास नहीं होता कि आलोक तोमर जी अब हमारे बीच नहीं रहे। उनकी बीमारी के बारे में दो-तीन महीने पहले ही पता चला था, लेकिन दिल्ली में रहते हुए भी उनसे नहीं मिल पाया। इसका मुझे बेहद अफसोस है और अपनी असुरक्षा, भय और अनिश्चितता वाली नौकरी पर खीझ भी कि उनके लिए वक्त नहीं निकाल पाया।

आलोक ने देखा था हिमालय की वादियों में सृजनपीठ का सपना

उत्तराखंड के नैसर्गिक वातावरण ने पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि बनाया, वहीं आलोक जी के अंतर्मन में हिमालय के प्रति अटूट लगाव व सानिध्य ने उनके व्यक्तित्व को दृढ़ता प्रदान की. रामगढ़ की चर्चा मात्र से उन्हें सकून मिल जाता था. उन्हें वहां माधवराव सिंधिया, सिंघानिया या बिरला परिवार की रियासत ने आकर्षित नहीं किया न ही अकबर अहमद डम्पी या अम्बिका सोनी के काटेज ने उन्हें अपनी ओर खींचा.

आलोक जी को अभी जाना नहीं था!

जीवन की भरी दोपहर में ऐन पचास साल की उम्र में आलोक तोमर को अभी जाना नहीं था, लेकिन नियति को क्या कहिए कि कैंसर के इलाज के बहाने से घर से उठाकर वह उन्हें बत्रा अस्पताल ले गई और वहां वेंटिलेटर पर दो बार हृदयाघात के बाद उन्हें नहीं, उनके नश्वर शरीर को घरवालों को लौटाया।

”इन तस्‍वीरों को देखकर नहीं रोक पाया अपने आंसू”

जिंदगी में आज तक मैं कभी भी आलोक तोमर जी से नहीं मिला और न ही अंतिम क्षणों में अपने आखों को उनकी एक झलक ही दिखला पाया. हाँ उनके बारे में सुना बहुत कुछ था. कुछ दिन पहले एक मित्र ने तोमर जी के जिन्दादिली का एहसास कराया था. कुछ चीजें भड़ास के माध्यम से पहले भी पढ़ने का मौका मिला था.

मेरी हालत पे तरस खाने वालों मुझे मुआफ करो

मेरे जैसे एक पत्रकार के लिए इससे ज्‍यादा दुर्भाग्यपूर्ण और क्‍या हो सकता है कि मुझे आलोक जी के इस दुनिया से जाने की खबर तब मिली जब उनका अंतिम संस्कार हो चुका था। हुआ यह की पिछले दो दिन मैं कुछ ऐसे काम में लगा था कि मैंने न तो कोई खबर सुनी और न ही मुझे किसी से फोन पर आलोक जी की मौत का पता चला।

खामोश हो गई एक ताकतवर कलम

आलोक जी के जाने की खबर से मर्माहत हूं और चिंतित भी। मर्माहत इसलिए कि इस बार वह वीर जिंदगी की लड़ाई कैसे हार गया, जो बड़ों-बड़ों से बेधड़क पंगा लेता रहा और उनकी काली करतूतों को जग जाहिर करता रहा। चिंतित इसलिए कि आलोक भाई के जाने का अर्थ बहुत व्यापक है।उनका जाना एक ताकतवर कलम का खामोश हो जाना है। ऐसी कलम जिसने न कभी दैन्यता दिखाई और न ही किसी के सामने झुकी। उसे न अर्थ खरीद सका और न कोई भय डरा सका।

काश! मैंने थोड़ी जल्‍दबाजी दिखाई होती

होली के रंग और बधाईयों के माहौल में जब हमने अपना कम्प्यूटर खोला और फेसबुक पर आनलाइन हुए तो एक दुखदायी खबर वहां इंतजार कर रही थी। हमें जानकारी मिली की वरिष्ठ पत्रकार और पत्रकारिता की स्वंय में एक संस्था माने जाने वाले आलोक तोमर जी का निधन हो गया। इस खबर को सुनकर मन एकदम से भारी हो गया। होली की खुशियां एक दर्द में बदल गई।

वे बोले- ऐसे लिखेंगे तो काम नहीं चलेगा

पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी की समस्या आन पड़ी थी। संपर्क और संबंध इतने अच्छे नहीं थे कि इसके आसानी से हासिल होने की कोई गुंजाईश रहती। सो, फक्कड़ की तरह भटकते रहने के दौरान डेटलाइन इंडिया का नाम सुना। उसके संचालक आलोक तोमर हैं, यह भी पहली बार जाना। मुलाकात से पहले मन में कई तरह के सवाल थे। पहला सवाल तो यह था कि जिस व्यक्ति के बारे में इतना सब कुछ जानता हूं उससे कितनी विनम्र बातचीत हो पाएगी और अगर गड़बड़ी हुई तो यह संभावना भी जाती रहेगी।

चला गया चंबल का शेर

आलोक जी अब इस दुनिया में नहीं हैं सुनकर विश्वास नहीं होता, लेकिन यह सत्य है जिसे स्वीकार करना ही होगा। आलोक  जी से मेरी तीन मुलाकातें थीं, पहली बार उन्हें ग्वालियर चैंबर ऑफ कॉमर्स में मिला, यंग जर्नलिस्ट एसोसिएशन द्वारा उनका और श्री राजेन्द्र शर्मा (स्वदेश) का सम्मान समारोह था। आलोक जी की हाल ही में शादी हुई थी और वह सुप्रिया जी के साथ आए थे।

श्रद्धांजलि नहीं, ‘श्रद्धाशब्द’ आलोक जी आपके लिए!

भाई साहब! मेरे लिए श्रद्धांजलि में यही लिख दीजिएगा‘, आलोक तोमर से मेरी टेलीफोन पर अंतिम बातचीत के ये शब्द रविवार को तब मेरे जेहन में कौंध गए जब सीएनईबी न्यूज चैनल के प्रमुख अनुरंजन झा ने टेलीफोन पर आलोक के निधन की खबर दिल्ली से दी। इस बातचीत के समय आलोक तोमर की आवाज अत्यंत क्षीण थी, फिर भी वे बात कर रहे थे, मैंने कहा कि यह जीवटता आप में ही हो सकती है।

देश भर में श्रद्धांजलियों और शोक सभाओं का तांता : पांच-छह लाइन की खबर को एक पेज का बनवा दिया था

: देश भर में आलोक तोमर के निधन से लोग दुखी : जाने माने वरिष्‍ठ पत्रकार आलोक तोमर के निधन पर देश भर के पत्रकारों में शोक की लहर है. कई राज्‍यों में आलोक तोमर के निधन पर शोक सभा का आयोजन कर उनकी आत्‍मा की शांति के लिए प्रार्थनाएं की जा रही हैं. मध्‍य प्रदेश, उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, झारखंड, राजस्‍थान के तमाम पत्रकार एवं पत्रकार संगठन शोक संवेदनाएं व्‍य‍क्‍त कर रहे हैं.

जनसत्ता, प्रभाष जोशी और आलोक तोमर

आज आलोक जी हम लोगों के बीच नहीं हैं, उनके गुरु और संरक्षक प्रभाष जोशी जी भी नहीं हैं और यदि सच पूछा जाए तो वह जनसत्ता अखबार भी नहीं है, जो एक समय हुआ करता था और जिसे हम “जनसत्ता” अखबार के रूप में जानते और मानते थे. इसके साथ ही यह बात भी सही है कि यद्यपि प्रभाष जी ने और आलोक जी ने जनसत्ता के पहले और बाद में बहुत कुछ किया, लेकिन कुछ ऐसा संयोग और कुछ ऐसी केमिस्ट्री रही कि यदि इन दोनों लोगों के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग करना हो तो सबसे पहले जेहन में यही आता है-“जनसत्ता”.

लगता है कि मैं फिर से अनाथ हो गया

आदरणीय यशवंत जी, प्रणाम, सादर चरण स्पर्श, हजारों शाम नर्गिस अपनी बे नूरी पे रोती है.. बड़ी मुश्किल से होता है, चमन में दीदावर पैदा… क्षमा कीजिएगा, अपना नाम नहीं बता सकता क्योंकि आपकी तरह मैंने भी दोस्तों से ज्यादा दुश्मन बनाये हैं. भड़ास का शुरू से ही नियमित पाठक हूँ. बहुत से लेखों पर कुछ कहने लिखने का मन भी करता है लेकिन एक अनजाना डर मुझे रोकता है. कायर मत समझिएगा क्योंकि आपके गृह जनपद के पास का ही हूँ और पूर्वांचल के लोग कायर नहीं होते.

न्‍यू मीडिया के माध्‍यम से उन्‍होंने राजनेताओं और व्‍यवस्‍था को हिलाकर रख दिया

वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर जी ब्रम्हलीन हो गये हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। चम्बल के बीहड़ों से निकलकर देश की राजधानी दिल्ली में पत्रकारिता जगत में जो मुकाम उन्होंने हासिल किया है। वह वास्तव में अद्भुत है। आलोक तोमर जी के दिवंगत होने के पश्चात उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर समकालीन और वरिष्ठ व कनिष्ठ वे पत्रकार जो उनके पत्रकारीय जीवन के सहयात्री रहे लगातार लिख रहे हैं।

मेरे लिए तो वे भगवान थे

चिरायु हों सभी पत्रकार लेकिन आलोक के साथ एक युग का अंत हुआ है. उन सा न कोई था, न कोई होगा. उस शब्दावली, उस शैली और उस तेवर को दुनिया तरसेगी. मेरे लिए तो वे भगवान थे. उत्तराखंड के एक गाँव से उठ कर जनसत्ता (चंडीगढ़) की मेरिट में मैं उन्हीं का अनुसरण कर टाप कर पाया था.

”दिल्‍ली में साली हवा भी कम हो गई है”

यकीन तो नहीं होता लेकिन यकीन करना पड़ेगा. हमारे बीच अब आलोक तोमर नहीं रहे. अभी पिछले माह फरवरी को मैं अबंरीश जी के साथ उनके घर गया था. घर पहुंचने के बाद आलोकजी ने यह अहसास ही नहीं होने दिया कि वे बीमार चल रहे हैं. उनकी आवाज धीमी और फंसी हुई सी जरूर थी लेकिन चमचमाते दिनों को याद करने के दौरान उनकी आंखों में जो चमक चढ़-उतर रही थी, उसके बाद मुझे यकीन हो गया था कि चाहे जो भी हो आलोकजी अपनी जीवंतता के साथ लंबे समय तक हमारे बीच मौजूद रहेंगे ही.

राख में बदल गया बारूद

लोधी रोड के शमशान घाट में आलोक तोमर को अंतिम विदाई के लिए पहुंचा तो जाम के चलते कुछ देर हो गई थी. उनकी चिता से लपटे निकल रही थी. वहीं खड़ा रह गया. करीब बीस साल का गुजरा वक्त याद आ गया. जनसत्ता में प्रभाष जोशी के बाद अगर कोई दूसरा नाम सबसे ज्यादा चर्चित रहा तो वह आलोक तोमर का था. जनसत्ता ने उन्हें बनाया तो जनसत्ता को भी आलोक तोमर ने शीर्ष पर पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

मेरे लिए 09811222998 ही आलोक तोमर थे

एक लड़ाके की मौत पर आंसू टाइप कुछ शब्द बहाने से कहीं बेहतर उन्हें श्रद्धांजलि इस तरह दी जाए कि उनके व्यक्तित्व के वे कुछ खास बातें सामने लाई जाएं, जो उन्हें आलोक तोमर बनाती थीं। क्या कोई आदमी महज एक नंबर हो सकता है…मेरे लिए आलोक तोमर महज एक नंबर ही थे।उनका मोबाइल नंबर 098112-22998। मगर ये नंबर मेरे लिए किसी लॉटरी के नंबर से कम आकर्षक नहीं था।

पहचाना, ये आलोक तोमर जी हैं

आलोक सर कितने निर्भिक और हिम्‍मती इंसान थे इसका अंदाजा उनकी लेखनी से ही लग जाता था, पर वे कितने सरल, सहज और जीवट थे यह उनसे मिलकर ही जाना जा सकता था. मैं शायद उन खुशनसीब लोगों में से हूं, जिनको आलोक सर के दर्शन करने तथा बात करने का सौभाग्‍य प्राप्‍त हुआ. पहली मुलाकात में ही उनका आत्‍मबल देखकर मेरे भीतर भी ऊर्जा का संचार हो गया था.

Alok Tomar will always remain alive for us

The news of sudden demise of senior journalist Alok Tomar is unbelievable. It shattered me completely. It is like a personal loss to me. He was a very brave voice of Indian media, who always stood for truth and courage. He will always be remembered for his bold, straight-forward and trustworthy writings. He always fought against evils in journalism and politics, which made thousands of people as his admirers.

रुला गया आलोक तोमर का यूं चले जाना

रविवार की सुबह जब पूरा उत्तर भारत होली के जश्न में डूबा था, ठीक तभी एक ऐसी खबर आई, जो समूचे पत्रकार जगत को शोक के काले रंग में भिगो गई। खबर यह थी कि वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर अब इस दुनिया में नहीं रहे। यह तो सही है कि जो व्यक्ति सफल होता है, उसके शत्रु भी होते हैं और मित्र भी। चूंकि प्रभाषजी के निधन के बाद आलोक ने मीडिया की शुचिता की मशाल भी अपने हाथों में थाम ली थी। अत: कुछ मीडिया घरानों व कुछ पत्रकारों को भी वे समय-समय पर आईना दिखाते रहते थे।

इसी पेड़ पर टेक लगाकर हमलोगों की समस्‍याएं सुलझाते थे

आलोक जी अक्सर सीएनईबी के बाहर इस पेड़ पर टेक लगाकर इसी अंदाज़ मे खड़े होते थे. ऑफिस के लोगों के साथ यहीं बतियाते थे तथा यहीं खड़े होकर ऑफिस के लोगों की व्यक्तिगत समस्याएं सुलझाते थे. पहली बार मेरी उनसे भेंट भी इसी पेड़ के नीचे हुई थी. काफी देर बात हुई थी. अब मैं जब भी ऑफिस जाऊंगा इस पेड़ पर टेक लगाये आलोक जी मुझे हर बार नज़र आएंगे. उनकी यही सरल अदा लोगों को अपना दीवाना बना लेती थी.

”यही क्रांति है, इसे कभी खत्‍म नहीं होना चाहिए”

सेलफोन पर बजती मृदंग की धुन इस बार कुछ देर तक बजी,”भाभी प्रणाम मैं आवेश कैसे हैं सर”? भैया… जैसे मैंने उनकी आँखों में रूके आंसुओं के सैलाब के आगे खड़ी दीवार को तोड़ दिया, मैं उन बदकिस्मतों में था जिन्हें आलोक सर के कैंसर होने का सबसे पहले पता चला. वो मेरे लिए मेरे गुरु ही नहीं पिता सरीखे मेरे बड़े भाई थे. वो भाई जो मुझे जितना डांट लगाता था उससे कहीं ज्यादा प्रेम करता था.

अब कौन मौत को ठेंगा दिखाते हुए कारपोरेट मीडिया को चेतावनी देगा?

कबसे भड़ास को रिफ्रेश पर रिफ्रेश किये जा रहा हूं. लगभग हर बार आलोक जी के बारे में एक नयी श्रद्धांजलि पढ़ने को मिल रहा है. मन है कि भर ही नहीं रहा. लगता है ऐसे ही उनका संस्मरण पढ़ता रहूं, हर बार उनके व्यक्तित्व के एक नए पक्ष से रु-ब-रू होता रहूं. भरोसे के संकट के इस दौर में आलोक जी का जाना एक भयंकर निर्वात छोड़कर गया है.

अब मेरी रिक्‍वेस्‍ट सदा पेंडिंग ही रहेगी!

जाने-माने वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर जी अब हमारे बीच नहीं रहे, कल होली के दिन वो हमें अलविदा कह गये. ये जानकर बहुत दुःख हुआ. जिस दिन सारा देश होली के रंग में डूबा हुआ था, उस दिन आलोक तोमर जी कैंसर से लड़ाई लड़ रहे थे. कैंसर से ये उनकी लड़ाई तक़रीबन चार-पांच महीने से कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी. आलोक तोमर जी भी कहा हार मानने वाले थे, कई बार कैंसर उन्हें हॉस्‍पीटल तक खींच लाया, लेकिन हर बार वो कैंसर को मात देकर घर लौट आया करते थे, लेकिन इस बार…यकीन नही होता, पर मौत एक सच्चाई है.

मैं उनका सौवां अंश भी नहीं बन पाया

मुझे किसी की भी मृत्यु ज्यादा दुःख नहीं पहुंचाती. पिछले पांच सालों का लेखाजोखा याद किया तो लगा कि इस दौरान कई लोगों की मृत्यु हुई. इनमें कुछ परिजन थे और कुछ दोस्त भी. मगर किसी की मौत मुझे आत्मा के स्तर पर दुखी कर गई हो ऐसा याद नहीं आता. कभी-कभी तो लगने लगता कि कहीं मैं बहुत संवेदनहीन तो नहीं हो गया? सोचता कि सुबह से लेकर देर रात तक लगातार काम करने के कारण संवेदनाएं कम होती जा रही हैं. फिर लगता कि मैंने ओशो की “मृत्यु एक उत्सव” सीडी इतनी बार सुनी है कि उसका प्रभाव कहीं गहरे उतर गया है. इसलिए मृत्यु पर ज्यादा असर नहीं पड़ता.

आलोक तोमर पंचतत्‍व में विलीन

आलोक तोमर होने का शायद यही मतलब था. बेबाक पत्रकार खामोश लेटा था. किसी को शायद विश्‍वास नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है. राहुल देव का इधर-उधर व्‍याकुलता से टहलना, कुमार संजॉय सिंह की आंखों के कोरों का भिंगना, अनुरंजन झा का पारिवारिक सदस्‍य की तरह परेशान होना, उनके चाहने वालों, उनसे नाराज रहने वालों का आना या फिर श्रद्धांजलि देते समय तमाम छोटे-बडे़ की आंखों का नम होना, काफी था बताने के लिए ये लेटा शख्‍स कितना खास था, इन लोगों के लिए.

सांसों की डोर टूटने के बाद चिरनिद्रा में आलोक तोमर

कल तक जो सांसों सा था, आज वही सांसें बंद किए सोया है. आलोक जी की कुछ तस्वीरें मिली हैं. चिरनिद्रा में लीन. शोक-संतप्त परिजन. दूसरों के चुप रहने, लेटे रहने और शांत रहने को चुनौती देते रहने वाले, कुछ नया करने लिखने भिड़ने को उकसाते रहने वाले आलोक तोमर को चिरनिद्रा में देखकर स्वीकार कर पाना मुश्किल है. लेकिन कुछ कड़वे सत्य ऐसे होते हैं जिन्हें सबको मजबूरन या प्यार से, मानन ही पड़ता है. कुछ तस्वीरें यूं हैं.

वे चले गए, अधूरी रह गई मेरी ख्‍वाहिश

आदरणीय आलोक तोमर नहीं रहे. सुनकर भरोसा नहीं होता. सच कहें तो ऐसी जिजीविषा और जीवट वाला व्यक्ति जीवन में कभी देखा ही नहीं था, इसलिए मन यह मानने को कतई तैयार ही नहीं हुआ कि मौत ऐसे शख्स को भी इस तरह हम सब से छीन सकती है. सालों पहले जनसत्ता में उनकी एक झलक देखने के सिवाय आलोक जी से मेरा कभी सीधे साक्षात्कार नहीं हुआ. चौदह जनवरी की रात अचानक आलोक जी फेसबुक पर संपर्क में आ गये. लगा मन की मुराद पूरी हो गयी. पहले ही सन्देश के साथ ऐसा लगा जैसे एक दूसरे को दशकों से जानते हों.

कूच करने के लिए पचास साल भी कोई उम्र होती है

आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना. ठीक होली के दिन. शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगे कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले. आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा, लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं. आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा, इस बात को वे बार-बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन  अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे.

इतना हठी और जिद्दी व्यक्ति मैंने जीवन में नहीं देखा

मैं और नूतन दिल्ली से लौट आये हैं, आलोक तोमर जी से मिल आये हैं. वे वहाँ चित्तरंजन पार्क में अपने घर में चुपचाप शांत भाव से लेते हुए थे. एक शीशे के चौकोर से बक्से में उन्हें लिटाया गया था. जैसा कि मैंने उम्मीद किया था वे उतने ही शांत भाव से लेटे थे जितना वे जीवन भर कभी नहीं रहे थे.

तुम्हें क्या लगता है मैं बीमार हूं, आज का नवभारत टाइम्स देखो…

: मैं तलाशता हूं अपना नाम और धाम! : पिछले दिनों मैं बनारस गया था। गंगा के घाट पर अपने फोन से अपनी एक तस्वीर उतारी ब्लैकबेरी के जरिए और फेसबुक पर डाल दिया। अभी मैं घाट पर ही था कि एक मैसेज आया- घर आए नहीं घाट पहुंच गए। वो संदेश आलोक जी का था। दरअसल एक रोज पहले ही हमने उनसे कहा था कि घर आ रहा हूं आपके लेकिन बनारस पहुंच गया।

आलोक तोमर की एक कविता

मेरी हालत इस वक़्त आलोक जी के लिए कुछ भी लिख पाने की नहीं है…. आश्चर्य है कि किस तरह इतना बोलने वाला एक शख्स पूरी दुनिया को निःशब्द कर के चला गया है…. पता नहीं क्यों मैं भरोसा नहीं कर पा रहा…. आलोक तोमर कैसे मर सकते हैं…. और क्या उनके न होने पर भी उनके शब्द कानों से कभी दूर हो पाएंगे…. पता नहीं…. ज़्यादा नहीं कह पाऊंगा…

चिरनिद्रा में आलोक और सुप्रिया की सिसकियां

मुझे मेरे पति अमिताभ जी ने करीब बारह बजे बताया कि यशवंत जी का फोन आया था, आलोक तोमर जी नहीं रहे. मैं यह सुन कर एकदम से अचंभित रह गयी. मैंने आलोक जी से कभी मुलाकात नहीं की थी पर भड़ास पर उन्हें नियमित पढ़ा करती थी, बल्कि सच तो यह है कि मुझे पूरे भड़ास में सबसे अच्छे लेख उन्ही के लगते थे.

बड़ी मनहूस रात है

बड़ी मनहूस रात है. आज दारू नहीं पी. कोई उन्माद-उम्मीद नहीं बची. आलोक भइया का चेहरा घूम रहा है आंखों के आगे. खुद को कमजोर महसूस कर रहा हूं. हम फक्कड़ों के अघोषित संरक्षक थे. अब कौन देगा साहस और जुनून को जीने की जिद. अपने गांव में घर के छत पर अकेला लेटा मैं चंद्रमा के इर्द-गिर्द सितारों में आलोक सर को तलाश रहा हूं. लग रहा है आज चंद्रमा नहीं, आलोक जी उग आए हैं. धरती से आसमान तक की यात्रा खत्म कर हम लोगों को मंद-मंद मुस्कराते दिखा रहे हों…. कि…

सुप्रिया जी के लिए मन भारी हो उठा है

पिछले साल मई में आलोक जी और सुप्रिया जी से इंदौर में मुलाकात हुई। हम सभी इंदौर प्रेस क्लब की तरफ से आयोजित एक सेमिनार में हिस्सा लेने गए थे। वे दोनों एक ऐसे दंपत्ति के तौर पर दिखे जिनमें जबर्दस्त आपसी समझ थी। देर रात तक सुप्रिया आलोक जी से कहती रहीं कि चलिए उज्जैन के महाकालेश्वर के दर्शन कर आएं, मेरा बड़ा मन है। आलोक जी साथ चल न सके। सुप्रिया जी हमारे साथ चलीं। हम कुल चार पत्रकार थे।

”कम्प्यूटरजी लॉक कर दिया जाए” लिखने वाले की जिंदगी का यूं लॉक होना

मन बहुत बेहद भारी है, लिखने का मानस ना भी हो तो लिख रहा हूं कि जिसने लिखाना सिखाया लिखने का हौसला दिया उस पर लिखना जरूरी है…. ‘बको, संपादक बको’ ये शब्द अब मेरे लिए कभी नहीं होगे. मुख्यधारा की पत्रकारिता में मेरे पहले संपादक जिसने क्या कुछ नहीं सिखाया, आज ये सोचता हूं तो लगता है पत्रकारिता में जो जानता हूं, लिखना सीखा है अगर उसमें से आलोक जी की पाठशाला के पाठ निकाल दूं तो कुछ बचेगा क्या?

भाई साहब, मेरी श्रद्धांजलि में यही लिख दीजिएगा

वरिष्‍ठ पत्रकार एवं दैनिक 1857 के चीफ एडिटर एसएन विनोद ने कहा कि लोग कहते हैं पत्रकारिता में आजकल मूल्‍यों का ह्रास हो गया है, नैतिकता नहीं रही, सिद्धांत गौण हो गए हैं, निडरता की जगह चाटुकारिता ने ले ली है, अगर इन सब को एक साथ चुनौती देना हो तो आलोक तोमर को सामने खड़ा कर दो. आलोक तोमर एक ऐसा व्‍यक्ति जिसने कभी समझौता नहीं किया. जिंदगी में संघर्ष किया, दुख झेले पर कभी झुके नहीं. जीवटता ऐसी की कैंसर का पता होने तथा जिंदगी के कुछ लमहों के बचे होने के बावजूद उन्‍होंने अपना लेखन जारी रखा.

कल दस बजे लोधी रोड श्‍मशान पर होगा अंतिम संस्‍कार

आलोक तोमर का अंतिम संस्‍कार कल सोमवार को दस बजे लोधी रोड श्‍मशान घाट पर किया जाएगा. आज उनके रिश्‍तेदारों के आने का इंताजार किया जा रहा है. उनकी शव यात्रा कल सुबह नौ बजे उनके निवास स्‍थान डी-598/ए सीआर पार्क से निकलेगी. इसके बाद उनका शव लोधी रोड स्थित श्‍मशान घाट ले जाया जाएगा. …

बड़े ग़ौर से सुन रहा था ज़माना, हम ही सो गये दास्तां कहते कहते

बीमारी के जानलेवा हमले के दौरान आलोक जी से मेरी आख़िरी मुलाक़ात कुछ महीने पहले सीएनईबी न्यूज़ चैनल में हुई। बेहद प्यार और अपनेपन से अलग ले जाकर ख़ूब सारी बातें की… बत्रा जाना है यार, बेहद मुश्किल लड़ाई में उलझा हूं, मौत से जंग है, हार जीत नहीं आखिरी सांस तक लड़ने की फिक्र है… शायद उनके ये शब्द, सभी पत्रकारों के लिए एक पैगाम है।

कैंसर नहीं, हार्ट अटैक बना मौत का कारण!

आलोक तोमर को कैंसर परास्त न कर सका. वे तो कैंसर को परास्त करने की पूरी तैयारी कर चुके थे और इसी अभियान के तहत कैंसर वाली गांठ घटकर बेहद मामूली हो चुकी थी. ऐसा कीमियो, रेडियोथिरेपी व इच्छाशक्ति के कारण संभव हुआ. पर अचानक आए हार्ट अटैक ने दिमाग में आक्सीजन के प्रवाह को बाधित कर दिया. इससे ब्रेन हैमरेज हो गया और आलोक तोमर कोमा में चले गए थे.

आलोक तोमर का शव उनके घर पहुंचा, अंतिम संस्‍कार कल

आलोक तोमर का बत्रा हास्‍पीटल में निधन के बाद उनका शव उनके घर पर लाया गया है. उनके निधन की खबर सुनकर तमाम लोग स्‍तब्‍ध हैं. कई लोग विश्‍वास नहीं कर पा रहे हैं. उनके शुभचिंतक, उनके जानने वाले अंतिम दर्शन के लिए उनके घर पहुंच रहे हैं. आलोक तोमर का अंतिम संस्‍कार कल किया जाएगा. उनके नजदीकी रिश्‍तेदारों का इंतजार किया जा रहा है.

आलोक तोमर उर्फ सर्वमान्य क्रांतिदूत और दैदीप्यमान ज्योतिपुंज

: आलोक तोमर- तू मर नहीं सकता : मुझे उम्मीद नहीं थी पर जानकारी तो थी ही. वैसे ही जैसे हर कोई बखूबी जानता था कि आलोक तोमर साहब को कैंसर नामक भयावह बीमारी है जिनका सिर्फ एक अंत होता है- मौत, पर इनमें से हर आदमी ये सोचता था कि आलोक तोमर जी के मामले में शायद ऐसा ना हो, शायद नियति उलट जाए.

दूसरा आलोक तोमर न दिखने के सवाल पर आलोक तोमर का जवाब

ये सवाल मैंने आलोक तोमर से किया था, उनसे पहली मुलाकात के दौरान, और वो मुलाकात भी इसलिए हुई थी क्योंकि मुझे उनका इंटरव्यू करना था, भड़ास4मीडिया के लिए. अब कोई दूसरा आलोक तोमर नहीं दिखता, ऐसा क्यों? इस सवाल के जवाब में आलोकजी ने जो कुछ कहा था- वो इस प्रकार है-

आज आपकी और अधिक जरूरत थी आलोक भैय्या

[caption id="attachment_19887" align="alignleft" width="94"]अनामी शरणअनामी शरण[/caption]18 मार्च, 2011 की रात करीब साढ़े दस बजे मैं कम्प्यूटर के सामने बैठा कुछ काम कर रहा था कि एकाएक आलोक कुमार का फोन आया। आलोक भैय्या (तोमर) की खराब सेहत का हवाला देते हुए बताया कि सुप्रिया भाभी बात करना चाहती हैं। मैं एकदम हतप्रभ रह गया और भाभी से बातचीत में भी यह छिपा नहीं पाया कि भैय्या से मैं नाराज हूं। भाभी की शीतल बातों से मन शर्मसार सा हो गया। मेरी पत्नी ममता से भाभी ने बात की और फिर कैंसर से पीड़ित और खराब हालात में बत्रा में दाखिल आलोक तोमर को लेकर मेरे मन में संबधों के 28 साल पुरानी फिल्म घूमने लगी।

आलोक तोमर का निधन

आलोक तोमरवरिष्ठ पत्रकार, जांबाज पत्रकार, चर्चित पत्रकार, अदभुत पत्रकार आलोक तोमर हम लोगों के बीच नहीं रहे. आज उनका निधन हो गया. वे पिछले कई दिनों से जीवन और मौत से संघर्ष कर रहे थे. दिल्ली के बत्रा अस्पताल में भर्ती आलोक तोमर को कैंसर था. डाक्टरों ने बहुत पहले उनके न बचने के बारे में कह दिया था.

आलोक तोमर गंभीर हालत में बत्रा में भर्ती

जीवट पत्रकार आलोक तोमर की कैंसर से जंग जारी है. कैंसर पर अक्सर आलोक भारी पड़ते दिखते हैं, यदाकदा कैंसर का पलड़ा भारी पड़ते दिखता है, लेकिन अंततः बाजी आलोक के हाथ आती रही है. पर इस खबर को लिखे जाने के वक्त कैंसर ने आलोक तोमर को बुरी तरह परेशान कर रखा है. उन्हें दिल्ली के बत्रा अस्पताल में भर्ती कराया गया है. फिलहाल वे वेंटिलेटर पर हैं.

नेता-पत्रकार अरुण शौरी के शौर्य का सच

आलोकजीयह कहना मुश्किल है कि आने वाला इतिहास अरुण शौरी को महान पत्रकार के तौर पर याद करेगा या गलती से राजनीति में भटक गए एक नेता के तौर पर। दोनों में से कैसे भी करें, अरुण शौरी को जूझने वाले और सामने वाले के छक्के छुड़ा देने वाले पत्रकार के तौर पर और फिर नेता के तौर पर पहचाना जाता है और आगे भी पहचाना जाता रहेगा। आश्चर्य की बात यह है कि तिहाड़ जेल में बंद भूतपूर्व संचार मंत्री ए राजा के शुभचिंतकों के तौर पर ही अरुण शौरी की गिनती होती है, क्योंकि वे तो अब भी सीबीआई को सलाह दे कर आए हैं कि जैसे भी हो सके राजा को सरकारी गवाह बना लिया जाना चाहिए।

पीएम की पीसी : गूंगा, लाचार और बेचारा मनमोहन!

Alok Tomarप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने छह महीने में अपनी दूसरी प्रेस कांफ्रेंस काफी डरते डरते शुरू की और कहा कि सरकार से गलतियां होती हैं मगर लोकतंत्र में मीडिया को अच्छे पक्ष भी देखने चाहिए। महंगाई और मुद्रास्फीति जैसे विषयों पर बोलने के बाद सबसे पहला सवाल ए राजा और टू जी स्पेक्ट्रम का था और मनमोहन सिंह ने पहली बार मंजूर किया कि ए राजा ने उनसे कहा कुछ और किया कुछ और।

मनमोहन सबसे कलंकित प्रधानमंत्रियों में से एक!

आलोक तोमर: झूठे, बेईमान, नादान मनमोहन! : प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शायद इस देश के इतिहास के अब तक के सबसे कलंकित प्रधानमंत्रियों में से एक साबित होने वाले हैं। वैसे तो वे अपने आपको महात्मा गांधी साबित करने में जुटे हुए हैं लेकिन जो भी घपला होता है उसके बारे में आधिकारिक और अदालती तौर पर पता चलता हैं कि जो हुआ वह मनमोहन सिंह की पूरी जानकारी में हुआ।

आरुषि हत्याकांड : कोर्ट ने न्याय की हत्या की

आलोक तोमरनोएडा की एक विशेष अदालत ने न्याय की हत्या कर दी। गनीमत है कि यह अदालत देश की आखिरी अदालत नहीं है और फिलहाल इतिहास में यह लिखने के लिए बाध्य नहीं है कि डॉक्टर राजेश और डॉक्टर नुपुर तलवार ने लगभग सवा दो साल पहले अपनी चौदह साल की मासूम बेटी की हत्या कर दी।

ईश्वर न करें आपको कैंसर हो

आलोकजी: हो गया तो बिक जाएंगे, लुट जाएंगे : कैंसर का नाम सबको स्तब्ध और अवाक कर देने के लिए काफी है। आज भी आम तौर पर इसे सजा-ए-मौत का ऐलान ही माना जाता है और जो लोग बच जाते हैं वे शायद पूर्वजन्म के पुण्यों के और अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर बचते हैं। लेकिन भारत में कैंसर की कहानी सिर्फ इतनी नहीं है। सिगरेट और तंबाकू के लगातार प्रसार और विस्तार से कैंसर बढ़ता जा रहा है और आबादी के बड़े हिस्से को आतंकित कर रहा है।

भीमसेन जोशी : एक अनिर्वाण का निर्वाण

[caption id="attachment_19333" align="alignleft" width="94"]भीमसेन जोशीभीमसेन जोशी[/caption]भीमसेन जोशी का अचानक चले जाना जितना चौकाता है उससे ज्यादा चौकाता है उनका इतने दिन काल से होड़ कर के जीतते रहना।  जिस तरह की औघड़ और अराजक जीवन शैली भीमसेन जोशी ने अपनाई थी उसमें लोग ज्यादा चलते नहीं। रात तीन बजे तक फेफड़ों की पूरी ताकत लगा कर अपनी शास्त्रीय मिठास से लोगों को मुग्ध करना।

रतन टाटा और अनिल अंबानी के बीच ठन गई

आलोक तोमरनीरा राडिया के अब तक मुहावरा बन गए टेपों से सबसे ज्यादा घबराया हुआ कौन है? यह नाम किसी दलाल या पत्रकार या अधिकारी का नहीं हैं बल्कि देश का एक सबसे बड़ा उद्योगपति रतन टाटा है। रतन टाटा ने तो मीडिया मैनेज करने का खुला इल्जाम अनिल अंबानी पर लगा दिया है। रतन टाटा ने अपने अधिकारियों से उन सभी  टीवी चैनलों, अखबारों तथा पत्रिकाओं के विज्ञापन बंद कर देने के लिए कहा है जो नीरा राडिया प्रसंग में रतन टाटा और नीरा के बीच हुई अंतरंग बातचीतों को सार्वजनिक रूप से और रतन टाटा की राय में बढ़ा चढ़ा कर प्रसारित और प्रकाशित कर रहे हैं।

क्या आलोक तोमर की उम्र बस 3 माह शेष है?

आलोक तोमरबहुत कम लोग होते हैं, या कहिए कि एक-दो लोग ऐसे होते हैं जो मृत्यु का भी उत्सव मनाते हैं, जीते-जी. आलोक तोमर उन्हीं में से एक हैं. मरने के पहले वे मौत को भरपूर जीने में लगे हैं. ऐसा दुस्साहस वे पहली बार नहीं कर रहे. सच कहिए तो उनकी जिंदगी दुस्साहसों की ही कहानी है, दिल्ली आने से लेकर प्रेम करने तक और बुलंदियों पर पहुंच जाने तक. आलोक तोमर ने आज फेसबुक पर अपने स्टेटस अपडेट में ऐसी बातें लिख दीं जिससे कई लोग सिहर गए.

आलोक, यशवंत, अमिताभ- इतिहास गवाह है

अमिताभ मैं यहाँ तीन ऐसे लोगों के बारे में छिद्रान्वेषण करूँगा जो हैं तो तीन अलग-अलग स्थानों के, अवस्था और वय में भी थोड़े आगे-पीछे हैं और शकल-सूरत से तो शायद बिलकुल नहीं मिलते. यानी बाहरी तौर पर इन तीनों में ज्यादा समानता नज़र नहीं आएगी. पर आंतरिक तौर पर इन तीनों में कुछ ऐसा ऐंठपन, जिद्दीपन और झक्कीपना है कि कभी-कभी मुझे लगता है कि कहीं ये तीनों पिछले जनम के भाई तो नहीं हैं.

मीडिया में खड़ी हिजड़ों की फौज

आलोक तोमरसेवा में सविनय निवेदन है कि मुझे कुछ लोगों के कर्तव्य, अधिकार, इरादे और तात्पर्य ठीक से समझ में नहीं आ रहे। या तो मैं अनाड़ी हूं या जन्मजात मूर्ख, जो ये जटिल खेल समझ नहीं पाता। अगर किसी को समझ में आ जाए तो कृपया ज्ञान देने में संकोच न करे। एक निरीह सा प्रश्न यह है कि प्रणय रॉय, अरुण पुरी, शोभना भरतिया, राघव बहल, विनीत जैन, परेश नाथ और शेखर गुप्ता आदि नीरा राडिया के सवाल पर इतने संदिग्ध रूप से खामोश क्यों हैं कि पूछना पड़े कि भाई साहब/बहन जी, आपकी पॉलिटिक्स क्या हैं?

दोस्‍ती के असली मतलब

आलोक तोमर मैं पहली बार भड़ास के कार्यालय में आया हूं और बहुत अच्‍छा लग रहा है. इसलिए नहीं कि कार्यालय बहुत भव्‍य और कारपोरेट संस्‍कृति का है लेकिन इसकी आत्‍मीयता, सरलता और काम के प्रति प्रतिबद्धता हर कोने में नजर आती है. यहां आने का पहले कोई इरादा नहीं था क्‍योंकि यहां आए बगैर भी कई वर्ष से भड़ास अपनी ही जगह बन गई है लेकिन यों ही यशवंत से बात हुई रास्‍ते भटकते हुए आ पहुंचा. सबसे पहले तो यह है कि पिछली बार आपने इन्‍हीं पन्‍नों पर पढ़ा था कि मेरा कैंसर फैल गया है और मैं खतरे की सीमा में आ गया हूं. कैंसर का इलाज चल रहा है और यहां आप गौर करें कि मैंने लिखा है कि इलाज मेरा नहीं कैंसर का चल रहा है.

प्रणय रॉय सच क्यों नहीं बोलते?

आलोक तोमरभारत के दो सबसे नामी संपादकों के बीच आर-पार की लड़ाई चल रही है। इनमें से एक संपादक एमजे अकबर एक जमाने में सांसद रह चुके हैं और वे एनडीटीवी के प्रणय रॉय को नंगा करने पर उतारू हैं। हमारे साथ अकबर के अखबार संडे गार्जियन ने भी बहुत विस्तार से एनडीटीवी के शेयर घोटाले के विवरण छापे थे और सबसे पहले संडे गार्जियन ने ही प्रणय रॉय के वकीलों के नोटिस का जवाब दिया है। इस नोटिस में प्रणय रॉय ने अपने इज्जत की कीमत सौ करोड़ रुपए लगाई है।

विकिलीक्स ने खोली राहुल गांधी की पोल

भले ही वफादार कांग्रेसी नेता कुछ भी कहते रहे लेकिन विकिलीक्स के खुलासे के बाद राहुल गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाना खतरे से खाली नहीं जान पड़ता। विकिलीक्स के खुलासों में भारत के अब तक सबसे बड़े नेता का नाम राहुल गांधी के तौर पर सामने आया हैं और वह भी बहुत खतरनाक संदर्भो मे। राहुल गांधी इस खुलासे के बारे में बहुत संदिग्ध रूप से खामोश हैं और आम तौर पर नादान बालकों के साथ ऐसा ही होता है।

आलोक तोमर और अच्छे-बुरे आदमी

अमिताभ ठाकुरमैं आप सबके सामने यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता कि मैं अलोक तोमर नामक इस जीव का एक बहुत बड़ा फैन हूँ. मैं उन्हें पहले ज्यादा नहीं जानता था, जैसे वे मुझे बिलकुल नहीं जानते रहे होंगे (क्योंकि मैंने कोई भी ऐसा सुकृत्य या दुष्कृत्य नहीं किया था जो देशस्तरीय हो और जिसके कारण अलोक तोमर जैसा दिल्ली में बैठा एक बड़ा पत्रकार मेरा नाम जानने को बाध्य हुआ हो). हां, उनका नाम जरूर सुन रखा था, दिल्ली के एक नामचीन पत्रकार के तौर पर.

प्रणय रॉय, आप हमें माफ ही कर दें!

आलोक तोमरडॉक्टर प्रणय रॉय और उनकी धर्म पत्नी राधिका ने नोटिस भिजवाया है। इनकी कंपनी एनडीटीवी की तरफ से ये नोटिस भिजवाया गया है। एनडीटीवी ने ऐसे कामों के लिए एक भारी भरकम कॉरपोरेट कानूनी कंपनी की सेवाएं ले रखी हैं। एनडीटीवी की ओर से लीगल नोटिस मुझे, यशवंत को, एमजे अकबर को, डेटलाइन इंडिया को, भड़ास4मीडिया को, दी संडे गार्जियन को थमाया गया है, मेल के जरिए भी और डाक से भेजकर भी।

सुधांशु महाराज उर्फ यशपाल का असली चेहरा

आलोक तोमरयशपाल नाम के एक आदमी के खिलाफ चोरी, ठगी और आयकर घोटालों के कई मामले दर्ज हैं। एक मामले में गैर जमानती वारंट जारी हो चुका है लेकिन बंदा ताकतवर हैं और दिल्ली में एक विराट आश्रम चलाता है और धार्मिक चैनलों पर अक्सर प्रकट होता है और उसने अपना नाम आचार्य श्री सुधांशु जी महाराज रख लिया है। सुधांशु महाराज के नाम से परिचित इस आदमी के बारे में बहुत सारी सरकारी फाइलों में बहुत सारे रहस्य छिपे हुए हैं।

आलोक तोमर का कैंसर फैला, बत्रा में भर्ती

देश के जाने-माने पत्रकार आलोक तोमर की तबीयत ज्यादा खराब हो गई है. गले और फेफड़ का कैंसर कीमीयोथिरेपी के बावजूद कम होने की बजाय बढ़ गया है. इस कारण डाक्टरों ने उन्हें एडमिट होकर लगातार पांच दिन तक कीमीयोथिरेपी कराने की सलाह दी है. इस कारण आलोक तोमर आजकल दिल्ली के साकेत स्थित बत्रा हास्पिटल में भर्ती हैं और आज उनके कीमीयोथिरेपी का पांचवां दिन है. डाक्टरों ने उनके शरीर का जब पूरा चेकअप कराया तो मालूम चला कि उन पर अब तक की गई कीमीयोथिरेपी का कोई असर नहीं हुआ है. कैंसर ने विस्तार ले लिया है. अब उनकी लगातार कीमीयोथिरेपी की जा रही है, जिसका आज पांचवां दिन है. लगातार कीमीयोथिरेपी का साइड इफेक्ट ये हुआ है कि उनका शरीर सूजकर दोगुना हो चुका है, शरीर बेहद काला नजर आने लगा है. सिर के बाल काफी गिर गए हैं.

प्रभु चावला की कमी किसे अखरेगी?

आलोक आखिरकार इंडिया टुडे समूह ने प्रभु चावला से प्रिंट छुड़ा ही दिया। साठ साल की उम्र में जब लोग रिटायर होते हैं, प्रभु चावला एक बार फिर इंडियन एक्सप्रेस की नौकरी करने चल दिए। इंडियन एक्सप्रेस का विचित्र तथ्य यह है कि इसके दो हिस्से हैं। एक मूल इंडियन एक्सप्रेस जो उत्तर और पश्चिम भारत से निकलता हैं और दूसरा न्यू इंडियन एक्सप्रेस जो बंटवारे के बाद दक्षिण भारतीय प्रदेशों से चलता है। यह संयोग भी हो सकता है कि इस इंडियन एक्सप्रेस के ताकतवर संपादक शेखर गुप्ता एनडीटीवी के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम के संचालक हैं और प्रभु चावला को विस्थापित करने के पीछे उन एम जे अकबर का नाम लिया जाता है, जिन्होंने अपने अखबार संडे गार्जियन में एनडीटीवी की आर्थिक अनियमितताओं की खाट खड़ी की हैं और अब मुकदमा झेल रही है। इसके अलावा इन तीनों अखबारी हस्तियों में प्रभु चावला का सीधी बात शो जो टीवी पर आता है वह काफी टेढ़ा और हास्यास्पद है।

विकिलीक्स और असांजे का साथ दें

जो लोग पत्रकारिता या अभिव्यक्ति के किसी भी किस्म के धंधे में हैं और उन्हें विकिलीक्स के जूलियन असांजे की दुर्गति से कोई फर्क नहीं पड़ रहा है उन्हें बहुत जल्दी शर्मिंदा होना पड़ेगा। या तो बाराक ओबामा का माफिया गिरोह असांजे को मार डालेगा या ओसामा बिन लादेन की तरह हम खोजते ही रह जाएंगे कि वे जिंदा हैं भी या नहीं। आखिर जूलियन असांजे ने गुनाह क्या किया है? वे नुक्कड़ छाप नेताओं की तरह हवा में आरोप नहीं उछाल रहे हैं। उनके हाथ में वे दस्तावेज हैं जिनसे अमेरिका का असली चेहरा उजागर होता है और जिन पर बराक ओबामा को शर्म आनी चाहिए। पूरी दुनिया में अमेरिका के राजदूत अपनी जानकारी के हिसाब से जो सच लिख कर भेजते रहे और मानवाधिकारों की खुल कर बात करते रहे, उसे भी छिपा लिया गया।

अब डाक्टर प्रणय राय फंसे एक घोटाले में!

आलोक तोमरयह एक ऐसे घोटाले की खबर है जिसे पढ़ कर आप बरखा दत्त और वीर सांघवी के कर्म को भूल जाएंगे। यह घोटाला करने का आरोप एनडीटीवी के चेयरमैन प्रणय रॉय पर है और इसे गंभीरता से लेने पर प्रणय रॉय हर्षद मेहता और केतन पारिख से ज्यादा अलग नजर नहीं आएंगे।  यह इल्जाम किसी आम आदमी ने नहीं लगाया। देश के सम्मानित पत्रकारों में से एक, भूतपूर्व सांसद, हेडलाइंस टुडे चैनल के मुखिया और संडे गार्जियन के संपादक एमजे अकबर ने बाकायदा लिख कर लगाया है और प्रणय रॉय और उनकी राधिका रॉय को चुनौती दी है कि इसका खंडन करे। यह घोटाला आईसीआईसीआई बैंक के साथ मिल कर किया गया बताया गया है।

बरखा दत्त अपने ही चैनल के पर्दे पर बेपर्दा

आलोक तोमरटेलीविजन मीडिया की सुपर स्टार बरखा दत्त को बचाने के लिए उनके चैनल एनडीटीवी ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पहली बार अपने ही किसी पत्रकार का अपने ही पर्दे पर कोर्ट मार्शल करवाया और सच यह है कि इस कोशिश से बरखा दत्त को और अधिक अपमान का सामना करना पड़ा। बरखा दत्त किसी भी सवाल का सही जवाब नहीं दे पाई और आखिरकार उन्होने सवाल करने वालों से ही सवाल करने शुरू कर दिए। चैनल उनका था, कार्यक्रम संचालित कर रही देवी जी उनके अधीन काम करती हैं और संपादकों का जो पैनल बरखा से पूछताछ करने बैठा था उसमें वे मनु जोसेफ भी थे जिन्होंने ओपेन मैग्जीन के जरिए नीरा राडिया और बरखा के टेप उजागर किए हैं।

नीरा और कनिमोझी के कुछ गजब खेल, सुनें ये टेप

नीरा-कनिकनिमोझी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके के नेता एम करुणानिधि की दूसरी शादी से हुई पहली बेटी है। बुढ़ापे की संतान के प्रति पिता का प्रेम बहुत है और कनिमोझी भी पिता के राजनैतिक संकटों से सुलझने के लिए दिल्ली में दादागीरी से ले कर जोड़ तोड़ में लगना कोई बुरी बात नहीं मानती। प्रवर्तन निदेशालय ने तो अपने आपको बेदाग और कानून का आदर करने वाली करार दे रही सुपर दलाल नीरा राडिया अपनी सेवाएं बेचने के लिए तैयार थी हीं। अखबारों और टीवी चैनलों पर भी वे मतलब की अफवाहे चलवा रही थी। वार्तालाप का ये हिस्सा आपका ज्ञान कुछ बढ़ाएगा-

रतन टाटा और नीरा राडिया के बीच का घनचक्कर

: अंतरंग बातचीत के अन्य टेप सार्वजनिक न हो जाएं, इससे घबराए हुए हैं टाटा : प्रशांत भूषण का कहना है कि कोई निजी बातचीत नहीं है, सब धंधेपानी का मामला है : रतन टाटा 74 साल के हैं। रिश्ते में टाटा उद्योग समूह के संस्थापक जमशेद जी टाटा के पोते लगते हैं। इनकी कभी शादी नहीं हुई। नीरा राडिया के साथ फोन पर सात समुंदर पार से भी हुई उनकी फोन बातचीत के जो अंश सामने आए हैं उनमें ब्लैक क्राउन, स्विमिंग पुल और चांदनी रात में डिनर आदि का काफी वर्णन है। इससे समझा जा सकता है कि रतन टाटा सर्वोच्च न्यायालय क्यों गए हैं और क्यों उन्हें डर लग रहा है कि उनकी निजी बातें सामने नहीं आ जाए?

टोनी-राडिया ने भाजपा तक को फिक्स कर दिया था

आलोक तोमर: अरुण शौरी ने जो कहा और सुना : अरुण शौरी से बड़े बड़े नहीं निपट पाए। इंदिरा गांधी नहीं निपट पाईं, राजीव गांधी नहीं निपट पाएं और जब झगड़ा हो गया था तो महाबली रामनाथ गोयनका भी नहीं निपट पाए थे। अब भाजपा के सबसे हास्यास्पद चरित्र वैंकेया नायडू अरुण शौरी को निपटाने में लगे है और अब तक का इतिहास गवाह है कि शौरी को निपटाने वाले निपट जाते है।

टाटा से बोली राडिया- राजा तो कनिमोझी के पीछे पागल है

[caption id="attachment_18663" align="alignleft" width="94"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]टाटा घराने को आम धारणा में काफी बेदाग और ईमानदार उद्योग समूह माना जाता है। मगर नीरा राडिया की दलाल सेवाएं लेने की जरूरत रतन टाटा को भी पड़ गई। वैसे नीरा राडिया भी कच्ची गोलियां नहीं खेली है और रतन टाटा के बारे में काफी कुछ जानती है। रतन टाटा जानते हैं कि नीरा जानती है इसलिए दुनिया के कोने कोने से नीरा राडिया को फोन कर के गप लड़ाते रहते हैं।

पत्रकारिता के महाबलियों की नैतिकता!

आलोक तोमरप्रणय रॉय बरखा के लिए और वीर सांघवी अपने लिए कह रहे हैं कि उन्होंने तो पत्रकारिता के उस धर्म का पालन किया था जिसमें सूत्रों से जानकारी लेना कोई गुनाह नहीं होता और बातचीत में अपने पास जो जानकारी है वह भी बतानी पड़ती है। यह बात अलग है कि छैल छबीली बरखा दत्त और रसिया वीर सांघवी की जो बातचीत हमारे पास हैं वह दलाली और शुद्व दलाली का है। सुहेल सेठ की बातचीत का वर्णन अभी तक इसलिए नहीं किया क्योंकि सुहेल दलाल है और उन्हें अपने आपको फिक्सर कहने में कोई दिक्कत पेश नहीं आती।

टाइम्स और दैनिक भास्कर को ऐसे खरीदा…

आलोक तोमर: रतन टाटा और नीरा राडिया की बातचीत का टेप : प्रभु चावला ने सफाई दी हैं कि उन्होंने नीरा राडिया के साथ अपनी तेरह मिनट की बातचीत में टू जी स्पेक्ट्रम नीलामी के बारे में कोई बात नहीं की। दलाल कुल शिरोमणि प्रभु चावला कहते हैं कि नीरा ने तो उन्हें उनका ज्ञान जानने के लिए फोन किया था। इसके सबूत में उन्होंने वही बातचीत फिर भेज दी है जो हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं।

इन टेपों में वीर सांघवी ने सोनिया गांधी की चाभी अपने पास होने का दावा कर दिया

आलोक तोमर: वीर सांघवी के नीरा राडिया से बातचीत के कई और टेप जारी : देश के बड़े-बड़े मुद्दों पर ये ऐसे बात करते हैं जैसे सब कुछ इनके इशारे पर होता है : दलाली के टेपों ने मीडिया जगत में मचाई खलबली : वीर सांघवी मुंबई के रईस परिवार के बेटे हैं और पत्रकारिता में 22 साल की उम्र में संपादक बन गए थे। अब पचास से ज्यादा के हैं लेकिन रंगबाजी और कभी टीवी चैनलों में से किसी के लिए तो कभी शुद्ध दलाली वाले कॉलमों के लिए दुनिया के कोने-कोने में घूमते रहते हैं। इसके बावजूद जयपुर में हों या गोवा में, महादलाल नीरा राडिया के लिए मुकेश अंबानी की सेवा करने का वक्त निकाल लेते हैं। हमारे पास वीर सांघवी जैसे सफल पत्रकार के दलाली से जुड़े आठ टेप हैं। एक-एक कर के आपको पढ़वाएंगे भी और सुनवाएंगे भी। देखते जाइए कि हमारी पत्रकारिता के महानायकों के असली चेहरे कितने बदसूरत हैं। लीजिए आठ में से कुछ टेपों में हुई बातचीत के ट्रांसक्रिप्ट को पढ़िए और फिर सभी आठों टेपों को एक-एक करके सुनते जाइए-

इस टेप को सुनने के बाद तो हर कोई कहेगा- प्रभु चावला दलाल है!

आलोक तोमर: नीरा राडिया से प्रभु चावला की बातचीत का टेप जारी : अब किसी को संदेह नहीं रह जाएगा कि प्रभु चावला दलाल है. मीडिया के लोग तो पहले से जानते थे लेकिन देश की जानता अब जानेगी.  बड़े लोग फोन पर कैसी कैसी बातें करते हैं, देश-संविधान-समाज को लेकर कितनी गंदी-गंदी बातें करते हैं, ये सब जानना हो तो नीचे दिए गए आडियो प्लेयर पर क्लिक करके उसे सुनें. हालांकि उस बातचीत के काफी अंशों को हमने ट्रांसक्रिप्ट कर दिया है, सो उसे पढ़ भी सकते हैं लेकिन आपको यकीन तभी आ सकेगा जब आप आडियो सुनेंगे, नीरा-प्रभु की बातचीत सुनेंगे. पूरा देश जानता था कि प्रभु चावला दलाल हैं, उन्हें प्राथमिक कक्षा के बराबर अंग्रेजी आती है, पत्रकारिता के नाम पर वे पचास धंधे करते हैं मगर इंडिया टुडे के चेयरमैन अरुण पुरी को यह कहानी देर मे समझ में आई. सुपर दलाल नीरा राडिया और सफल दलाल प्रभु चावला के बीच बातचीत का जो ये एक टेप हमारे पास है वो अब कई जगहों पर घूम-टहल रहा है. इस टेप के माध्यम से आप प्रभु चावला की घटिया अंग्रेजी को सुनने का लाभ प्राप्त कर सकते हैं. पूरी कहानी और पूरी बातचीत पेश है.

डाक्टर प्रणय रॉय को दलाली से कोई फर्क नहीं पड़ता!

आलोक तोमर: प्रणय की बरखा में कीचड़ ही कीचड़ : एनडीटीवी और उनके मुखिया प्रणय रॉय की क्या मजबूरी है ये तो वे ही जानते होंगे मगर बरखा दत्त को बचाने के मामले में जो बेशर्म बयान एनडीटीवी ने अपनी वेबसाइट पर दिया है वह नहीं ही दिया जाता तो बेहतर होता। इस बयान के पहले तक तो सिर्फ संदेह था मगर अब किसी के दिमाग में शक बाकी नहीं बचा है कि प्रणय रॉय को दलाली से कोई फर्क नहीं पड़ता। भांति भांति की सौंदर्य मुद्राएं बिखेरने वाली और अपने आपको संवेदनशील पत्रकार साबित करने में हर कोशिश करने वाली बरखा दत्त के बारे में एनडीटीवी ने धमकी के अंदाज में लिखा है- ”बरखा दत्त सारे पत्रकारों की तरह हर तरह के लोगों से मिलती हैं और बात करती हैं। इन बातों को संदर्भ से हटा कर देखना अपने आपमें गलत है और अनैतिक है।”

इस देश, इस लोकतंत्र को दलाल चला रहे

आलोक तोमर: भारत में दलाल मेव जयते! : बरखा दत्त और वीर सांघवी ने भरोसा तोड़ा है : 1965 के भारत पाकिस्तान युद्व के दौरान दिल्ली के हिंदुस्तान टाइम्स के एक युवा रिपोर्टर ने सीमा पर जा कर रिपोर्टिंग करने की अनुमति मांगी। तब तक पत्रकारिता में ऐसे दिन नहीं आए थे कि लड़कियों को खतरनाक या महत्वपूर्ण काम दिए जाएं। रिपोटर प्रभा दत्त जिद पर अड़ी थी। उन्होंने छुट्टी ली, अमृतसर में अपने रिश्तेदारों के घर गई, वहां सैनिक अधिकारियों से अनुरोध कर के सीमा पर चली गई और वहां से अपने आप रिपोर्टिंग कर के खबरे भेजना शुरू कर दी। लौट कर आईं तब तो प्रभा दत्त सितारा बन चुकी थी।

कैंसर से जो जूझे, वो कैंसर के पीछे की गणित बूझे

आलोक तोमर: मौत की भी एक सीमा रेखा होती है : कैंसर एक ऐसा नाम हैं जिसे अब भी जीवन का पूर्ण विराम माना जाता है। होने को कुछ नया नहीं होता। शरीर के कुछ अंगो की कोशिकाएं बहुत तेजी से विभाजन शुरू कर देती है। विभाजन पहले भी होता था लेकिन पुरानी कोशिकाओ के मरने और नई बनने के बीच एक संतुलन रहता है जिसके बिगड़ जाने का नाम ही कैंसर है। क्या आपको आश्चर्य नहीं होता कि जहां एचआईवी को खत्म करने वाली वैक्सीन पर अंतिम प्रयोग हो रहे हैं और एचआईवी के निषेध के लिए बहुत सार उपाय हो चुके हैं, वहां आयुर्वेद के जमाने से कर्कट रोग के नाम से परिचित इस बीमारी का आज तक कोई पक्का निदान नहीं तैयार हो पाया।

दीवालिया विजय माल्या की दीवाली

[caption id="attachment_18347" align="alignleft" width="57"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]राज्यसभा में दूसरी बार अपने लिए एक सीट खरीद लेने वाले विजय माल्या भारत सरकार की तेल कंपनियों का उधार नहीं चुका रहे हैं। उनकी कंपनी किंग फिशर सबसे बड़े कर्जदारों में से एक है। मगर भारत सरकार, खास तौर पर तेल मंत्री मुरली देवड़ा पर विजय माल्या का जादू चलता है। इसी कारण विजय माल्या बिलकुल मजे में जी-खा रहे हैं।

मां के पांव छुओ, बृजलाल!

आलोक तोमर: मायावती के चरणों में सैंडिल पहनाने वाले उत्तर प्रदेश पुलिस के सबसे चर्चित आईपीएस यानी अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक बृजलाल के बेचारे बन जाने का राज क्या है : भारतीय दंड विधान का दंड यानी डंडा जिसके हाथ में आ जाता है वह अपने आपको खुदा से कम नहीं समझता। बीट कांस्टेबल अपने हिस्से के इलाके का खुदा होता है, थानेदार एक पूरी बस्ती का खुदा होता है, डीएसपी एक इलाके का खुदा होता है और एसपी पूरे जिले का खुदा होता है।

बहुत पहले चालू हुआ था चावला का पतन

आलोक तोमर: त्वरित टिप्पणी : प्रभु चावला का अतीत दुनियादारी के अंदाज में काफी सफल रहा है. जब वे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में पढ़ते थे तो बस का किराया नहीं होता था. बाद के दिनों में वे इतने सफल हुए कि कई बार वे दूसरों के पैसे से चार्टर जहाजों का इस्‍तेमाल भी करते रहे. जो लोग इन्‍हें चार्टर जहाज देते हैं, वे काशी के पंडों को दान देने वाले लोग नहीं है. ये साहब काम करवाते वो साहब दाम देते.

सीएनईबी में ”राहुल राज” था कब?

आलोक तोमरअचानक सीएनईबी टीवी चैनल की इतनी ज्यादा चर्चा होने लगी है कि अगर यह चर्चा पहले से होती रहती तो चैनल की टीआरपी कुछ और बढ़ जाती। इस खबर का शीर्षक दिया गया है कि सीएनईबी में राहुल राज का खात्मा हो रहा है। शीर्षक आपत्तिजनक भले ही न हो मगर पत्रकारिता के संदर्भों को दूसरी ओर मोड़ कर ले जाता हैं।

चोर नेताओं ने अखबार पर हमला बोला

अगर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने न्याय किया और एमपी विधानसभा के अपने रिकॉर्ड पर कार्रवाई की तो इस प्रदेश के कई विधायक जालसाजी के आरोप में जेल जाएंगे। उनने फर्जी यात्रा बिल के जरिए बेशर्मी से करोड़ों रुपए की चोरी की है।

अति स्थानीय होने का दौर

आलोक तोमरहिंदी के ही नहीं, भारत के सबसे सिद्ध और प्रसिद्ध संपादकों में से एक राजेंद्र माथुर ने एक बार कहा था कि राष्ट्रीय अखबार की धारणा तेज चलने वाली रेलगाड़ियों, टैक्सियों और हवाई जहाजों ने छीन ली है। उनका कहना था कि जिन्हें राष्ट्रीय अखबार कहा जाता है वे उतने ही राष्ट्रीय हैं जितने दूर तक उन्हें रेल, जहाज और टैक्सियां समय पर ले जा सकते हैं। वह पीढ़ी अभी मौजूद है जिसने दिल्ली का अखबार मध्य प्रदेश, बिहार या राजस्थान के किसी गांव में डाक एडीशन के तौर पर दो या तीन दिन बाद पढ़ा था। अब जमाना बदल गया है और आम तौर पर हर जिले का अपना एक ऐसा अखबार है जिसे पढ़ कर भिंड, जौनपुर या आरा के पाठक को अधूरा अधूरा नहीं लगता। अब कहीं का पाठक भी हो, संसद या व्हाइट हाउस की खबरों के लिए अखबार नहीं पढ़ता। उसके लिए उसके पास टीवी के समाचार चैनल हैं। इतना जरूर है कि प्रिंट माध्यम की प्रामाणिकता इतनी बनी हुई है कि टीवी की खबरों की भी पुष्टि अखबारों से ही की जाती है।

तब हम दूसरा न्यास बनाएंगे : आलोक तोमर

: राय साहब ने इस न्यास में मुझे शामिल होने लायक नहीं समझा : लेकिन इस न्यास में कई बेइमान लोग रख दिए : अंबरीश के बाद नैनीताल में मैं भी घर बनवाने जा रहा हूं : प्रभाषजी जैसे फक्कड़ बैरागी को इन भाई लोगों ने उत्सवमूर्ति बना दिया : पता नहीं हमारे मित्र संजय तिवारी को अचानक क्या हो गया है? प्रभाष परंपरा न्यास का जिस दिन गठन हुआ था उस दिन प्रभाष जी के घर एक अच्छी खासी बैठक हुई थी और तय हुआ था कि नामवर सिंह के संरक्षण में यह न्यास काम करेगा। जिन्हें नहीं पता हो उन्हें बताना जरूरी है कि प्रभाष परंपरा न्यास यह नाम मेरा दिया हुआ है और इस न्यास में आंकड़ों की हेराफेरी करने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं, लेखकों की रायल्टी हजम करने वाले एक प्रसिद्ध प्रकाशक हैं जिन्होंने खुद प्रभाष जी से लाखों रुपए कमाएं हैं, एक पत्रिका के मालिक हैं जो राज्यसभा में जाने के लिए आतुर बताए जाते हैं।

कैंसर को हराने में जुटे हैं आलोक तोमर

आलोक तोमरप्रख्यात पत्रकार आलोक तोमर इन दिनों कैंसर से लड़ रहे हैं. भ्रष्ट व्यवस्था, भ्रष्ट नेताओं, भ्रष्ट मीडिया दिग्गजों की पोल खोलने वाला यह शख्स, अपनी लेखनी से मानवीय त्रासदियों का खुलासा कर सत्ता-संस्थानों को हिलाने वाला यह आदमी, आजकल अपने मुश्किल दिनों में गुजर रहा है. मानसिक और शारीरिक कष्टों को झेल रहा है. पर हौसला देखिए. कैंसर को मात देने में जुटे आलोक तोमर आज अपने सीएनईबी आफिस पहुंच गए, जहां वे काम करते हैं. यह तब जबकि उनकी कीमियो थिरेपी शुरू हो गई है. कई घंटे उन्हें बत्रा अस्पताल में रहना पड़ता है. कीमियो के दौर से गुजरने के बाद आलोक का आफिस जाने के लिए तैयार होना और आफिस पहुंच जाना बताता है कि अगर अंदर जिजीविषा हो तो बड़े से बड़े दुख भगाए जा सकते हैं. कष्टों को मात दिया जा सकता है.

मीडिया घरानों को ब्लैकमेल करने वाली जोड़ी

आलोक तोमर: अभिषेक वर्मा और अशोक अग्रवाल की दास्तान : राम कृष्ण डालमिया का नाम अब बहुत लोगों को याद नहीं है। 1950 के दशक में वे देश के सबसे रईस आदमी थे। यह वह समय था जब अंबानी कतर में एक पेट्रोल पंप पर काम किया करते थे। डालमिया राजस्थान के झुनझुनु जिले के चिरावा गांव के एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे।

सेठजी, मीडिया ना बन जाइए

Alok Tomar : करोड़ों रुपये फूकेंगे पर लाभ चवन्नी का ना मिलेगा : यकीन न हो तो मीडिया के इस इतिहास को पढ़िए : टीवी चैनलों की दुनिया में इतनी भीड़ हो गई है कि उसका हिसाब नहीं। जिसके पास जिस धंधे से दस बारह करोड़ रुपए बचते हैं, टीवी चैनल खोल देता है। एक साहब ने तो बाकायदा उड़ीसा में चिट फंड घोटाला कर के मुंबई का एक चलता हुआ टीवी चैनल हथियाने की कोशिश की मगर सफल नहीं हुए।

प्रभु चावला हाजिर हो!

आलोक तोमरइंडिया टूडे समूह अपने प्रधान संपादक प्रभु चावला और अपने एक संवाददाता की वजह से मुसीबत में फंस गया है। मानहानि के एक मामले में देहरादून की अदालत ने एक बड़े अपवाद के तौर पर प्रभु चावला और पत्रिका के प्रकाशक आशीष बग्गा को हर हाजिरी पर अदालत में मौजूद रहने के लिए कहा है, जहां इन दोनों के पिता के साथ अदालत में आवाज लगती है। मामला उत्तराखंड में रह रहे खुर्जा जिले के आनंद सुमन सिंह का है।

रजत शर्मा पर बड़े उपकार हैं अरुण जेटली के

आलोक तोमरदूरदर्शन की दक्षिणा से शुरू हुआ था इंडिया टीवी : एक टीवी चैनल स्थापित करने में करोड़ों रुपए लगते हैं और उसे चलाने में भी करोड़ों रुपये हर साल लगते हैं। दिल्ली में एक ऐसा टीवी चैनल है जिनका मालिक कश्मीरी गेट के एक अपेक्षाकृत गरीब परिवार में पैदा हुए थे।

फेसबुक से दुखी क्यों हैं भाई लोग?

त्रिनिदाद और टोबैगो दक्षिण अमेरिका का एक छोटा सा देश है। आबादी और आकार में अपनी दिल्ली से भी छोटा। मगर इन दिनों यह देश खबरों में इसलिए हैं क्योंकि यहां भारतीय मूल की कमला प्रसाद विसेसर प्रधानमंत्री चुनी गई है। वे दुनिया में भारतीय मूल की पहली महिला प्रधानमंत्री हैं और उनके पूर्वज पूर्वी उत्तर प्रदेश से 1810 में मजदूरी के लिए इस देश में पहुंचे थे। खबर तो यह भी है लेकिन कमला विसेसर ने अपना पूरा चुनाव अभियान फेसबुक के जरिए चलाया। उनकी फेसबुक पर चवालीस हजार सात सौ तिरासी सदस्य बुधवार सुबह तक थे।

रामोजी राव का कसूर क्या है?

आलोक तोमरइनाडु प्रकाशन समूह के मालिक और हैदराबाद के पास विश्व की सबसे बड़ी फिल्म सिटी रामोजी राव फिल्म सिटी के और ईटीवी के मालिक रामोजी राव जिंदगी में पहली बार कांग्रेस का साथ देते नजर आ रहे हैं। हैलीकॉप्टर दुर्घटना में मारे गए वाईएसआर रेड्डी ने तो मुख्यमंत्री रहते हुए रामोजी राव का साम्राज्य ध्वस्त कर देने की पूरी तैयारी कर ली थी। हाल ही में रामोजी राव और आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री के रोशैया के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं।

अब तेरा क्या होगा नई दुनिया?

आलोक तोमरमुकेश और अनिल अंबानी ने सुप्रीम कोर्ट के समझाने पर या यों कहिए, भविष्य को देखते हुए, आपस में हाथ मिला लिया है। दोनों भाई अब मिल कर अलग-अलग कंपनियों के जरिए कारोबार बढ़ाएंगे, साथ ही आपसी होड़ भी कर सकेंगे। मतलब, मुकेश अंबानी जिस फील्ड में काम करते हैं, उस फील्ड में अनिल अंबानी भी खुलकर खेल सकते हैं। अनिल का जो कारोबार-धंधा है, वे धंधे मुकेश भी कर सकते हैं।

हेराफेरी के जाल में फंसा दैनिक भास्कर

आलोक तोमरअपने आपको दुनिया का ग्यारहवें नंबर का सबसे बड़ा अखबार समूह बताने वाले दैनिक भास्कर समूह में हड़कंप मच गया है। हालत यह है कि 20 मई को होने वाली डायरेक्टरों की बैठक अब 27 मई तक के लिए टाल दी गई है। दैनिक भास्कर के नए मालिक समूह डीबी कॉर्प ने झारखंड में जो दो नए संस्करण चालू करने पर तैयारियों में ही पानी की तरह पैसा बहाया था वे भी अब कोर्ट कचहरी के चक्कर में पड़ गए हैं। ऐसा इसलिए हुआ है कि दैनिक भास्कर के मालिक होने का दावा करने वाले रमेश अग्रवाल और उनके बेटे सुधीर और गिरीश सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को भी नहीं मानते।

टाटा – राडिया की बातचीत सुनें

आलोक तोमरटाटा को ब्लैकमेल करने की कोशिश में दयानिधि : रतन टाटा नीरा राडिया का इस्तेमाल कर के द्रमुक कोटे में किसी भी कीमत पर दयानिधि मारन को संचार मंत्री बनने से क्यों रोकना चाहते थे? धीरे धीरे गुप्तचर एजेंसियों के पास इसके सबूत आते जा रहे हैं। दयानिधि मारन करुणानिधि के चचेरे पोते हैं लेकिन उनका यही परिचय नहीं है। मारन परिवार एशिया के सबसे रईस परिवारों में से एक हैं और सन टीवी के अलावा उसके कई दक्षिण भारतीय भाषाओं में सात चैनल, कई एफएम स्टेशन और दिनाकरन नाम का एक अखबार भी है जो दस लाख कॉपी रोज बेचता है।

जमानत पर चलता एक चैनल

आलोक तोमरउनमें धार भी है और रफ्तार भी। उत्तर प्रदेश के एक गांव से निकल कर लगभग आधी दुनिया का चक्कर लगाने के बाद पहले दिल्ली फिर इंदौर और वापस दिल्ली आकर बिल्डर साम्राज्य खड़ा किया है उन्होंने। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और हरियाणा की अदालतों में उनके खिलाफ धोखाधड़ी, जालसाजी और अमानत में खयानत के अलावा साजिश करने के इतने मामले हैं कि गिनती उनके वकीलों को ही याद होगी।

खशोगी के दोस्त का भी है एक टीवी चैनल

आलोक तोमरजैन टीवी से पैसे देकर परिचय पत्र पाते हैं जिला संवाददाता : दिल्ली से एक टीवी चैनल चलता है जिसके मालिक अंतर्राष्ट्रीय हथियार दलाल अदनान खशोगी से मिलने महागुरु चंद्रास्वामी के साथ अमेरिका जा चुके हैं और खशोगी की भारत यात्रा के दौरान उसके सम्मान में बहुत बड़ी पार्टी भी दे चुके हैं। वे कई बैंकों का पैसा हड़पने का और कई मकानों पर कब्जा करने का मुकदमा भी झेल रहे हैं।

कई न्यूज चैनलों में है मुकेश अंबानी का पैसा

आलोक तोमररजत शर्मा और राजीव शुक्ला की कंपनियों में भी लगा है पैसा : सबसे पहले एक भूल सुधार। नई दुनिया के छजलानियों ने जो चैनल खरीद कर जी टीवी को बेचा है उसका नाम न्यूज एक्स है, नाइन एक्स नहीं। इसके मालिक भी पीटर मुखर्जी थे, भास्कर घोष नहीं। लेकिन कहानी सनसनीखेज होती जा रही है। नई दुनिया के छजलानी की औकात नहीं कि घाटे में चल रहा एक टीवी चैनल खरीद कर चला सके।

रिश्तों और रिश्तेदारों की पत्रकारिता

आलोक तोमरकहानी उलझ रही है या सुलझ रही है यह तो आप तय करे। अपना काम आपको तथ्य बताने का है। पीटर मुखर्जी ने एक टीवी चैनल शुरू किया था। नाम है ’’न्यूज एक्स’’। चैनल बहुत धूम धड़ाके से शुरू हुआ और इसके पहले संपादक थे- वीर सांघवी। उन्हें चैनल में शेयर्स भी दिए गए थे मगर कुछ ही दिनों बाद वहां से चलते बने।

बरखा वीर कथा

आलोक तोमरराडिया राज 6 : वीर सांघवी बहुत अच्छा लिखते हैं और सब विषयों पर लिखते हैं। राजनीति से ले कर मछली, मुर्गे और शराब तक टीवी पर भी वे अक्सर कार्यक्रमों में नजर आते हैं और सबसे अच्छे इंटरव्यू देने वालों में उनकी गिनती होती है। अपन उनके इतने बड़े प्रशंसक हैं कि एक बार उनसे कह चुके है कि आपके साप्ताहिक कॉलम का हिंदी अनुवाद मैं करना चाहूंगा। वक्त की कमी की वजह से यह शुरू नहीं हुआ और अब जो सामने आया है उससे मुझे नहीं लगता कि वीर सांघवी जैसे आदमी के लिखे का अनुवाद मुझे करना चाहिए। वीर सांघवी मुंबई के एक रईस परिवार के बेटे हैं। पढ़ाई लिखाई भी अमेरिका से ले कर इंग्लैंड तक हुई है। जिस थाइलैंड में वेश्यावृत्ति कानूनी तौर पर मंजूर हैं वहां के प्रधानमंत्री वीर सांघवी को थाइलैंड के मित्र का सम्मान दे चुके हैं। पता नहीं इस सम्मान का क्या मतलब निकाला जाए? सिर्फ बाइस साल की उम्र में इंडिया टुडे समूह की एक पत्रिका के संपादक बन जाने वाले वीर सांघवी ने पहली जो किताब लिखी थी उसमें दुनिया के कई सारे सेठों की जीवनियां थी।

सीएनईबी और राहुल देव का कसूर

वाराणसी के एक प्रोफेसर ने दिल्ली के टीवी चैनल सीएनईबी और इसके प्रधान संपादक राहुल देव के खिलाफ ब्लैक मेल करने का आरोप लगाया है। अदालत शिकायत की जांच कर रही है और अगर जांच में कोई तत्व पाया गया तो ही राहुल देव और चैनल पर चोर गुरु नाम का धारावाहिक शोध रिपोर्टिंग वाला कार्यक्रम बनाने वाले उनके साथियों संजय देव और कृष्ण मोहन सिंह को तलब किया जाएगा।

प्रभाष जोशी के पड़ोस में होली की वसूली

आलोक तोमरहमारे समाज में एक परंपरा रही है कि घर का कोई बड़ा बूढ़ा संसार से चला जाता है तो उस साल कोई उत्सव नहीं मनाया जाता। एक साल का यह पारिवारिक शोक धार्मिक नहीं बल्कि आत्मीय रिवाज है। कहने की जरूरत नहीं कि प्रभाष जोशी हिंदी पत्रकारिता के सबसे बड़े और सबसे खरे नाम थे। अचानक वे चले गए और जाते जाते भी वे अनेक आंदोलनों में शामिल थे। उनका जाना सिर्फ जनसत्ता वालों के लिए नहीं बल्कि पूरी पत्रकारिता के लिए समवेत शोक हैं। प्रभाष जी जनसत्ता हाउसिंग सोसायटी के अध्यक्ष थे। दरअसल उन्हीं की प्रेरणा से यह सोसायटी बनी थी और निर्माण विहार में अच्छा खासा घर होने के बावजूद प्रभाष जी इसी सोसायटी के पहली मंजिल वाले घर में रहते थे। आखिरी रात भी वे यहीं थे।

नीच मालिकों के कारण पत्रकार कठघरे में : आलोक तोमर

आलोक तोमर

पाठकों की शर्तों पर चलने से ही बचेगी विश्वसनीयता : वरिष्ठ पत्रकार आलोक तोमर का मानना है कि पाठकों की शर्तों पर चलने से ही मीडिया की विश्वसनीयता अक्षुण्ण बनी रहेगी. गुरुवार को धनबाद के अग्रसेन भवन हीरापुर में “खबरों की बिक्री एवं मीडिया की विश्वसनीयता’ विषयक संगोष्ठी को मुख्य वक्ता की हैसियत से संबोधित करते हुए श्री तोमर ने कहा कि भगवान के लिए वैसा धंधा मत कीजिये, जिससे अभिव्यक्ति की आजादी घटती हो. उन्होंने कहा कि नीच अखबार मालिकों के कारण ही पत्रकार कटघरे में खडे हैं. संगोष्ठी का आयोजन हिंदी पत्रकारिता की धारा को बदल देने वाले पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी को श्रद्धांजलि के रूप में अखिल भारतीय पत्रकार परिषद की ओर से किया गया था. 

दूरदर्शन चलाना गोशाला चलाना नहीं है

आलोक तोमरदूरदर्शन जनता के पास क्यों नहीं आता? : अभी तीन महीने पहले दूरदर्शन ने पचासवीं साल गिरह मनाई है। जहां तक पहुंच की बात है, दूरदर्शन सारे निजी टीवी चैनलों को मिला कर भी उनसे ज्यादा दूरी तक और ज्यादा लोगों तक पहुंचता है। यह बात अलग है कि दूरदर्शन कार्यक्रमों की आतिशबाजियां नहीं बिखेरता और न सनसनीखेज समाचार देता है और टीआरपी की दौड़ में तो खैर वह शामिल ही नहीं है। फिर भी अकेला दूरदर्शन है जो बगैर केबल ऑपरेटर के, बगैर डिश एंटिना लगाए और बगैर किसी किस्म का एंटिना लगाए देश में कहीं भी देखा जा सकता है। इस पहुंच का बहुत सारा लाभ देश के विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में उठाया जा सकता था मगर बाबुओं की जो फौज इसे चला रही है वह ऐसा नहीं होने देती।

जागरण-भास्कर क्या जानें जर्नलिज्म

गांधी जी की एक तस्वीरसीख सखो तो गांधीजी से सीखो : महात्मा गांधी को हम सब राजनैतिक विरोधों और प्रतिरोधों के बावजूद, विवादों और प्रतिवादों के बावजूद श्रद्धा का एक अप्रतिम स्थान दिए हुए हैं। देश को आजादी दिलवाने में जो भूमिका निभाई और अहिंसा का जो मंत्र पूरी मानवता को सौंपा, उसकी बराबरी कोई भी आधुनिक नारा या विचार नहीं कर सकता। गांधी जी पत्रकारिता का महत्व जानते थे। वे उस युग में थे जब टीवी और रेडियो तो नहीं ही थे, अखबार भी नाम मात्र के चलते थे और उनमें से भी ज्यादातर के मालिक अंग्रेज थे इसलिए उनकी विचारधारा भारत और भारतीयता के पक्ष में होना संभव नहीं था। इस दौर में महात्मा गांधी ने अखबार निकाले, कंपोजिंग हाथ से होती थी, फोटो छापना हो तो आधा दिन लगा कर ब्लॉक बनवाना पड़ता था, छापने की रोटरी मशीनें नहीं थीं, एक-एक कागज डाल कर फोटो कॉपी की तरह छपा करते थे।

‘इंडिया टीवी’ प्रतिबंधित हो : आलोक तोमर

आलोक तोमरसाक्षी टीवी का आखिर कसूर क्या है? : ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन (बीईए) ने एक बयान जारी किया है और खास तौर पर आंध्र प्रदेश के टीवी चैनलों को जिम्मेदारी बरतने के लिए कहा है। बीईए ने बयान में हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मारे गए वाईएसआर रेड्डी के पारिवारिक चैनल साक्षी समेत आंध्र के कई चैनलों को निशाना बनाया और कहा कि उन्हें तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए और बगैर बात के किसी उद्योगपति पर आरोप नहीं लगाना चाहिए। जिस बीईए ने बयान जारी किया, उसमें एक ऐसे टीवी चैनल के भी संपादक सदस्य हैं जिस पर तथ्य के अलावा सब कुछ दिखता है। भारत की तस्वीर बदलने वाला यह चैनल पहले भूत-प्रेत दिखाता था और अब देश में चाहे भले सिर्फ तूफान आया हो, इस चैनल के पर्दे पर भविष्यवाणियां होती रहती है कि दुनिया खत्म होने वाली है या समुद्र उबलने वाला है या हिमालय गिरने वाला है।

टैम बहुत बड़ा धोखा, टीआरपी धूर्त आंकड़ा

[caption id="attachment_16450" align="alignleft"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]यह कहानी करोड़ों रुपए की उस ठगी के बारे में है जिसे बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है। इस ठगी का नाम टीआरपी है। टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स। ये टीआरपी ही तय करती है कि कौन-सा टीवी चैनल सबसे लोकप्रिय है। अगर टीआरपी की वजह से चैनलों को मिलने वाले धंधे की गिनती कर ली जाए तो यह घपला अरबों रुपए तक पहुंचेगा। टीआरपी की तथाकथित मेरिट लिस्ट कैसे बनाई जाती है? एक संस्था है टैम यानी टेलीविजन ऑडियंस मिजरमेंट और दूसरी है इनटैम। पहली वाली संस्था में इंडिया का इन लगा दिया गया है। दोनों के पास टीवी से जोड़ कर रखने वाले पीपुल मीटर नाम के बक्से हैं जो यह दर्ज करते रहते हैं कि किस टीवी पर कौन-सा चैनल कितनी देर तक देखा गया और टीआरपी तय हो जाती है। ऐसा नहीं कि टीवी चैनलों के धुरंधर मालिकों और विज्ञापन एजेंसियों के चंट संचालकों को इस धोखाधड़ी का पता न हो कि टीआरपी असल में देश का असली सच नहीं बताती है। आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है।

इंडिया न्यूज का इल्जाम इंडिया टीवी पर क्यों?

[caption id="attachment_16447" align="alignleft"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]है तो बात दो साल पुरानी मगर पता नहीं क्यों पर्दे में छिपा कर रखी गई थी। भारत का सूचना और प्रसारण मंत्रालय लगातार अच्छे खासे चल रहे टीवी चैनल ‘इंडिया टीवी’ को तब तक सबसे निचले पायदान वाला ‘इंडिया न्यूज’ कहती रही जब तक इंडिया टीवी की ओर से रजत शर्मा ने सीधे उन्हें पत्र नहीं लिखा। ‘इंडिया टीवी’ में घपले होते रहते हैं लेकिन यह घपला ‘इंडिया टीवी’ के साथ हुआ। आपको याद होगा कि आरुषि तलवार नाम की एक प्यारी-सी लड़की की हत्या हुई थी और इस मामले में आज तक कोई सुराग नहीं लग पाया है। आरुषि के पिता को भी जेल जाना पड़ा था। उसी दौरान जब हर चैनल आरुषि हत्याकांड की तह तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था, भारतीय बाल अधिकार आयोग ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को एक पत्र लिखा जिसमें आरोप लगाया गया था कि ‘इंडिया टीवी’ पर आरुषि के नाम से एक अश्लील एमएमएस प्रसारित किया गया है। दरअसल यह प्रसारण ‘इंडिया न्यूज’ पर हुआ था जिसके मालिक ताकतवर राजनेता विनोद शर्मा हैं। इनका बेटा मनु शर्मा मॉडल जेसिका लाल की हत्या के मामले में उम्र कैद काट रहा है।

अंकुर चावला- जैसी ”प्रभु” इच्छा

आलोक तोमरकेंद्रीय लॉ बोर्ड के सदस्य और कार्यकारी मुखिया आर वासुदेवन हालांकि अमर उजाला अखबार समूह से दस लाख रुपए रिश्वत मांगने और सात लाख रुपए पाने के मामले में तिहाड़ जेल में बंद हैं लेकिन अब तक उनके ठिकानों पर हुई तलाशी में एक करोड़ चालीस लाख रुपए नकद और करीब एक करोड़ रुपए के गहने बरामद किए जा चुके हैं। वासुदेवन कुख्यात सत्यम घोटाले की भी जांच कर रहे थे। उन्हें रकम पहुंचाने वाला कंपनी सेक्रेटरी मनोज बाठिया भी हिरासत में है। लेकिन इस पूरे मामले के सूत्रधार वकील अंकुर चावला से पूछताछ हुई, बाठिया के साथ बिठा कर तथ्यों की पड़ताल हुई और उसके बाद उसे घर जाने दिया गया। आखिर अंकुर चावला देश के सबसे चर्चित संपादक प्रभु चावला के बेटे हैं। प्रभु चावला जिंदगी भर दिल्ली में जमुना पार विवेक विहार में रहे और मगर बेटे का कार्यालय डिफेंस कॉलोनी जैसी शानदार बस्ती में है।

जिस ओम पुरी को आप नहीं जानते

आलोक तोमरओम पुरी पंद्रह नवंबर को दिल्ली आ रहे हैं। फोन करके उन्होंने बताया कि उनकी पत्नी के ठहरने का इंतजाम रेडीसन होटल में हैं मगर वे मेरे पास ठहरेंगे। तो क्या वे अपनी पत्नी नंदिता का सामना नहीं करना चाहते? उनके बारे में लिखी गई नंदिता की किताब का विमोचन एक भव्य समारोह में होगा और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल उसके कुछ पन्नों का पाठ भी करेंगे। कपिल सिब्बल की आवाज बहुत कड़क हैं और उस आवाज में नंदिता की शानदार अंग्रेजी सुनना कम कमाल का नहीं होगा। वहां ओम पुरी भी मंच पर रहेंगे और पूरी उम्मीद है कि कपिल सिब्बल उनके स्त्री प्रसंगों वाले अध्यायों का पाठ नहीं करेंगे। वैसे कपिल सिब्बल खुद भी काफी रसिया हैं मगर फैसला नंदिता को करना है। नंदिता कह रही हैं कि वे खाना खाने घर आएंगी। उनका स्वागत है मगर अपन भी पति-पत्नी के बीच आतिशबाजी देखने के लिए तैयार हैं। आखिर ओम पुरी मामूली आदमी नहीं है। बहुत छोटे से गांव से निकल कर लंदन में सर बनने तक और हॉलीवुड के सितारों की बराबरी करने तक ओम पुरी ने एक लंबा सफर किया है। उनकी जिंदगी में स्त्री प्रसंग से ज्यादा बहुत कुछ है। एक बार जब मुंबई में उनके त्रिशूल अपार्टमेंट गया तो दरवाजा खोलते ही उन्होंने फिर से लिफ्ट में बिठाया और नीचे पार्किंग में ले गए। उन्होंने मारुति-1000 मॉडल की गाड़ी खरीदी थी।

नंदिता की पत्रकारिता पर ओम पुरी का गुस्सा

[caption id="attachment_16246" align="alignleft"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]नंदिता पुरी से मेरी और ओमपुरी की मुलाकात एक साथ, एक ही दिन कोलकाता में ‘सिटी ऑफ ज्वॉय’ की शूटिंग के दौरान एक भीड़ भरी रोड पर हुई थी। ओमपुरी रिक्शा वाला बने थे मगर ठहरे पांच सितारा होटल ‘ग्रांड’ में थे। उस जमाने की सबसे लंबी कारों में से एक कोंटेसा में ओमपुरी और मैं जब होटल पहुंचे तो नंदिता इंतजार कर रहीं थीं। वे उस समय बांग्ला दैनिक ‘आजकल’ में काम करती थीं और ओमपुरी का एक लंबा इंटरव्यू उन्होंने कई किश्तों में लिया था। जाते-जाते नंदिता ने ये भी कहा था कि आप पर किताब लिखनी है। ओमपुरी ने चलते अंदाज में कह दिया था कि उसका भी वक्त आएगा। उन दिनों ओमपुरी हमारे दोस्त अन्नू कपूर की बहन सीमा कपूर के एकतरफा प्यार में गले तक डूबे हुए थे और सच यह है कि सीमा उन्हें भाव नहीं दे रही थी। सीमा उस समय दिल्ली में मेरे साथ ही रहती थी और एक दिन रात दस बजे के आस पास ओमपुरी ने कोलकाता से फोन किया, सीमा कुछ लिख रही थी और ओमपुरी ने परम निवेदन की मुद्रा में कहा कि तुम्हारी तो दोस्त हैं, मैं बहुत प्यार करता हूं, शादी की सेटिंग करवा दो ना यार…।

प्रभाष जी की आत्मा को शांति नहीं चाहिए

आलोक तोमरप्रभाष जोशी चले गए। उनकी अस्थियां भी उस नर्मदा में विसर्जित हो गई जिस वे हमेशा मां कहते थे और अक्सर नर्मदा को याद कर के इतने भावुक हो जाते थे कि गला भर आता था। इन दिनों हमारे प्रभाष जी को ले कर संवेदनाओं के लेख, संस्मरण और शोक सभाओं का दौर चल रहा है। वे लोग जो कुछ दिन पहले तक इंटरनेट पर प्रभाष जी को इस युग का सबसे पतित, मनुवादी और ब्राह्मणवादी पत्रकार करार दे रहे थे, उनकी बोलती बंद है। उनमें से कई तो उनके निधन पर घड़ियाली आंसू भी बहाते दिखे।

प्रभाष जोशी के बिना पहला एक दिन

आलोक तोमरहमारे गुरु जी भी कम बावले नहीं थे : जिस रात वे दुनिया से गए, उसी शाम लखनऊ से वापस आए थे और अगली सुबह मणिपुर के लिए रवाना होना था : प्रभाष जी की मां अभी जीवित हैं और कहती हैं कि मेरे बेटे के पांव में तो शनि है, कहीं टिकता ही नहीं : अटल जी के श्रद्धांजलि पत्र में नाम ‘प्रभात जोशी’ लिखा है : जब मौज में आते थे तो कुमार गंधर्व के निर्गुणी भजन पूरे वाल्यूम में बजा कर पूरी कॉलोनी को सुनवाते थे : ‘कोई हरकत नहीं है पंडित’… किसी बात को हवा में उड़ा देने के लिए हमारे प्रभाष जी का यह प्रिय वाक्य था। फिर कहते थे… ‘अपने को क्या फर्क पड़ता है’… अभी एक डेढ़ महीने पहले तक इंटरनेट के बहुत सारे ब्लॉगों और आधी अधूरी वेबसाइटों पर प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, कर्मकांडी, रूढ़िवादी और कुल मिला कर पतित पत्रकार साबित करने की प्रतियोगिता चल रही थी। मैंने जितनी हैसियत थी उसका जवाब दिया और फिर उनके खिलाफ लिखे गए लेखों और अपने जवाब की प्रति उनको भेजी तो उन्होंने फोन कर के यही कहा था।

‘सब जा रहे हैं तो मैं क्यों जिंदा हूं’

आलोक तोमरअपने प्रियजनों की मौत पर प्रभाषजी के हर लेख में कुछ इसी तरह का आत्मधिक्कार होता था : गुरुवार की रात और रातों जैसी नहीं थी। इस रात जो हुआ उसके बाद आने वाली कोई भी रात अब वैसे नहीं हो पाएगी। रात एक बजे के कुछ बाद फोन बजा और दूसरी ओर से एक मित्र ने कहा, बल्कि पूछा कि प्रभाष जी के बारे में पता है। आम तौर पर इस तरह के सवाल रात के इतनी देर में जिस मकसद से किए जाते हैं वह जाहिर होता है। मित्र ने कहा कि प्रभाष जी को दिल का दौरा पड़ा और वे नहीं रहे। काफी देर तो यह बात मन में समाने में लग गई कि प्रभाष जी अतीत हो गए हैं। अभी तीन दिन पहले तो उन्हें स्टूडियो में बुलाने के लिए फोन किया था तो पता चला था कि वे पटना जा रहे हैं, जसवंत सिंह की किताब के उर्दू संस्करण को लोकार्पित करने के लिए। पटना से वे कार से वाराणसी आए और कृष्णमूर्ति फाउंडेशन में रूके। वहां से हमारे मित्र और मूलत: वाराणसी वासी हेमंत शर्मा को फोन किया और कहा कि गेस्ट हाउस में अच्छा नहीं लग रहा।

जो अनपढ़ हैं वे अनपढ़ ही रहेंगे

[caption id="attachment_15656" align="alignleft"]आलोक तोमरआलोक तोमर[/caption]बात करो मगर औकात में रहकर बात करो : भारत के सबसे सिद्व और प्रसिद्व संपादक और उससे भी आगे शास्त्रीय संगीत से ले कर क्रिकेट तक हुनर जानने वाले प्रभाष जोशी के पीछे आज कल कुछ लफंगों की जमात पड़ गई है। खास तौर पर इंटरनेट पर जहां प्रभाष जी जाते नहीं, और नेट को समाज मानने से भी इंकार करते हैं, कई अज्ञात कुलशील वेबसाइटें और ब्लॉग भरे पड़े हैं जो प्रभाष जी को ब्राह्मणवादी, सामंती और सती प्रथा का समर्थक बता रहे हैं। 

नेट का भी अपना समाज है, प्रभाष जी!

आलोक तोमरसुबह-सुबह हमारे गुरु और हिंदी के या शायद भारत के महान संपादक प्रभाष जोशी का फोन आया। पहले तो उन्होंने यही पूछा कि कहां गायब हो। लेकिन वे जल्दी ही मुद्दे पर आ गए। मुद्दा यह है कि अखबारों की ईमानदारी का क्या आलम है और लोकसभा चुनाव के दौरान खबरों को छापने के लिए अखबारों ने जो निर्लज्ज धंधा किया है, उसके लिए क्या उन्हें माफ कर देना चाहिए? प्रभाषजी हालांकि इंटरनेट पर बहुत नहीं जाते। उन्होंने कई बड़े अखबारों जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया, अमर उजाला और दैनिक जागरण आदि के नाम ले कर खुलेआम लिखा और जगह-जगह बोला कि इन लोगों ने अपना ईमान बेचा है।

सुशील की ओर देखा तो आंखें निकाल ली जाएंगी

Alok Tomarसुशील कुमार सिंह हिंदी पत्रकारिता में संतों की श्रेणी में आते हैं। वे ऐसे गजब आदमी हैं कि अपने धर्म गुरु, पारिवारिक सदस्य और अपना नया पंथ चलाने वाले एक बाबा जी के नाम पर बहुत सारे दोस्तों को विदेश यात्रा करवा चुके हैं लेकिन आज तक खुद विदेश नहीं गए। एक बड़े अखबार के चीफ रिपोर्टर के नाते बहुतों का भला किया लेकिन दिवाली, दशहरे और नए साल पर उपहार देने वालों को बहुत विनम्रतापूर्वक वे उपहार सहित घर से लौटा दिया करते थे। बाद में एनडीटीवी और सहारा में भी बड़े पदों पर रहे।

आलोक तोमर ने शोभना भरतिया को लिखा पत्र

वेब जर्नलिस्ट सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमों में फंसाने की एचटी मीडिया के कुछ मठाधीशों की कुत्सित चाल के खिलाफ पूरे देश के पत्रकारों की एकजुटता का असर अब दिखने लगा है। सुशील को गिरफ्तार करने के लिए दिल्ली में कई दिनों से डेरा डाले लखनऊ पुलिस अब वापस लौट चुकी है। लखनऊ पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को इस मामले की सत्यता के बारे में पता चल चुका है, इसलिए वो अब एचटी मीडिया के कुछ मठाधीशों की चाल और जाल में आने से इनकार कर चुके हैं। लखनऊ पुलिस देश भर के मीडिया कर्मियों के उठ खड़े होने से भी सकते में है। वह अब ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती जिससे यूपी पुलिस की छवि पर खराब असर पड़े। उधर, रायपुर प्रेस क्लब ने आज आपात बैठक कर सुशील कुमार सिंह को फंसाए जाने की निंदा की।

सुशील प्रकरण : संघर्ष समिति को देश भर में समर्थन

दिल्ली में बनाई गई वेब पत्रकार संघर्ष समिति का देश भर के पत्रकार संगठनों ने स्वागत किया है। जनसत्ता, द इंडियन एक्सप्रेस, दैनिक जगरण, दैनिक भास्कर, अमर उजला, नवभारत, नई दुनिया, फाइनेन्शियल एक्सप्रेस, हिन्दुस्तान, दी पायनियर, मेल टुडे, प्रभात खबर, डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट व बिजनेस स्टैन्डर्ड जैसे तमाम अखबारों के पत्रकारों ने वेब पत्रकार संघर्ष समिति के गठन का स्वागत किया। हिन्दुस्तान के दिल्ली और लखनऊ के आधा दजर्न से ज्यादा पत्रकारों ने इस मुहिम का स्वागत करते हुए अपना नाम न देने की मजबूरी भी बता दी। आईएफडब्ल्यूजे, इंडियन एक्सप्रेस इम्प्लाइज वर्कर्स यूनियन, जर्नलिस्ट फार डेमोक्रेसी, चंडीगढ़ प्रेस क्लब और रायपुर प्रेस क्लब ने इस पहल का समर्थन किया है और सुशील को फर्जी आपराधिक मामले में फंसाने की आलोचना की है।

सुशील प्रकरण : वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन

एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की। इस बैठक में हिंदी के कई वेब संपादक-संचालक, वेब पत्रकार, ब्लाग माडरेटर और सोशल-पोलिटिकिल एक्टीविस्ट मौजूद थे। अध्यक्षता मशहूर पत्रकार और डेटलाइन इंडिया के संपादक आलोक तोमर ने की। संचालन विस्फोट डाट काम के संपादक संजय तिवारी ने किया। बैठक के अंत में सर्वसम्मति से तीन सूत्रीय प्रस्ताव पारित किया गया। पहले प्रस्ताव में एचटी मीडिया के कुछ लोगों और पुलिस की मिलीभगत से वरिष्ठ पत्रकार सुशील को इरादतन परेशान करने के खिलाफ आंदोलन के लिए वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया।

गासिप अड्डा में खबर पर सुशील के घर पुलिस पहुंची

राजनीति से लेकर धर्म-अध्यात्म और मीडिया से जुड़ी सत्य और कहीं न प्रकाशित होने वाली घटनाओं को विश्लेषणात्मक अंदाज में अपनी वेबसाइट गासिप अड्डा डाट काम पर पब्लिश करने वाले पत्रकार सुशील कुमार सिंह पुलिस के शिकंजे में आते दिख रहे हैं। बताया जा रहा है कि गासिप अड्डा डाट काम के मीडिया गासिप कालम में दैनिक हिंदुस्तान, लखनऊ से जुड़ी एक खबर प्रकाशित करने पर उनके खिलाफ लखनऊ में मुकदमा दर्ज करा दिया गया है। मीडिया से जुड़े लोगों द्वारा मुकदमा दर्ज कराने पर पुलिस ने आनन-फानन में एक टीम सुशील कुमार सिंह के दिल्ली स्थित उनके आवास पर भेज दिया। भड़ास4मीडिया प्रतिनिधि ने सुशील कुमार सिंह से मोबाइल पर संपर्क किया और उनसे पूरे मामले की जानकारी ली। उन्होंने स्वीकार किया कि पुलिस उनके घर के बाहर खड़ी है।

इन दिनों गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं (1)

alok tomarहमारा हीरोआलोक तोमर

आलोक तोमर का नाम ही काफी है। हिंदी मीडिया के इस हीरो से विस्तार से बातचीत की भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने। बातचीत कई चक्र में हुई और कई जगहों पर हुई। रेस्टोरेंट में, कार में, चाय की दुकान पर। इतनी कुछ बातें निकलीं कि उन्हें एक पेज में समेट पाना संभव नहीं हो पा रहा। इंटरव्यू दो पार्ट में दिया जा रहा है। पाठकों ने जो सवाल पूछे हैं, आलोक ने उनके भी जवाब दिए हैं। पेश है संपूर्ण साक्षात्कार-

टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है (2)

 ….”इन दिनों गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं” (1) से आगे….

alok tomar-नूरा जैसा माफिया आपका दोस्त रहा है। आप दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, छोटा राजन जैसे लोगों से मिल चुके हैं। यह सब कैसे हुआ?

–जनसत्ता, मुंबई में था तो वहां सरकुलेशन वार शुरू हुआ। भइयों का एक गैंग कृपाशंकर सिंह के नेतृत्व में था। नभाटा वालों के कहने पर गैंग जनसत्ता मार्केट में जाने से पहले हाकरों से खरीदकर समुद्र में फेंक देता था।