: एक ने कैंसर जीता तो दूसरे ने दायित्वों की कमर तोड़ी : लखनऊ: कैंसर जैसी भयावह बीमारी का इलाज खोजने में महान मानव शरीर व औषधि वैज्ञानिक डॉ. राल्फ स्टेनमैन की तीन दिन पहले हुई मौत को बीबीसी ने तीन साल पहले बता दिया है।
आज सुबह तीन बज कर ग्यारह मिनट की अपनी एक खबर में बीबीसी ने ऐलान किया कि राल्स की मौत तीन साल पहले हो चुकी थी, जबकि हकीकत यह है कि महान वैज्ञानिक डॉक्टर राल्स ने तीन अक्तूबर-11 को नोबल पुरस्कार के ऐलान के ठीक तीन दिन पहले यानी 30 सितम्बर-11 को न्यूयार्क में अंतिम सांसें ली थीं।
यह है हिन्दी पत्रकारिता के सबसे बड़े और सर्वाधिक जिम्मेदार संस्थान होने का दावा करने वाले विश्वविख्यात बीबीसी की हिन्दी सेवा की हालत। लेकिन इस गैरजिम्मेदार पत्रकारिता की अपनी करतूत को खबर प्रकाशित करने के घंटों बाद तक भी बीबीसी ने उसे सुधारने की कोई भी कोशिश नहीं की। यह हाल तब है जबकि अपनी करतूतों के चलते पत्रकारिता संस्थान लगातार आरोपों और आलोचनाओं के घेरे में आते जा रहे हैं।
डॉक्टर राल्स अब इस दुनिया में नहीं हैं। उन्हें इस साल के नोबल पुरस्कार के लिए चुने गयी उस तीन सदस्यीय टीम के मुखिया के तौर पर पहचाना गया है जिसने मानव सभ्यता को कैंसर से बचाने के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी। इस पुरस्कार में अपनी जान पर खेल गये डॉ. राल्स को आधा हिस्सा मिलना है जबकि उनके दो जीवित साथियों को 25-25 फीसदी का हिस्सा मिलेगा। उनके त्याग को देखते हुए नोबल पुरस्कार चयन समिति ने अपने नियमों में बदलाव भी कर दिया है।
कनाडा मूल के इस वैज्ञानिक ने भले ही खुद को गिनीपिग के तौर पर प्रस्तुत कर दिया हो, लेकिन पत्रकारिता में सबसे बड़ा झंडा उठाने वाले बीबीसी ने अपने सारे दायित्वों को ताक पर रख दिया और इतनी गैरजिम्मेदारी का परिचय दिया कि उसकी आने वाली पीढियां तक इस पर शर्म करती रहेंगी। नोबल पुरस्कार विजेता राल्फ स्टेनमैन की मृत्यु पर इस समाचार संस्थान की लापरवाही फिलहाल तो भर्त्सना के ही लायक है। खास तौर पर तब, जब हाल ही सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जस्टिस पीके सावंत की एक याचिका पर महाराष्ट्र की एक अदालत ने न्यूज चैनल टाइम्स नॉउ पर सौ करोड़ का जुर्माना किया हो।
राल्फ स्टेनमैन को चार साल पहले पता चला था कि उनके अग्नाशय यानी पैंक्रियाज में कैंसर विकसित हो चुका है। लेकिन इससे भयभीत होने के बजाय अपनी पीड़ा को भूल कर इस वैज्ञानिक ने मानव समाज को इस भयावह बीमारी से बचाने का अभियान छेड़ने का फैसला कर लिया। उन्होंने तय किया कि इस बीमारी का इलाज खोजने के लिए यह देखा जाए कि शरीर की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली को इसके खिलाफ कैसे सक्रिय किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने अमेरिका के ब्रूस ए. ब्यूल्टर और फ्रांस के जूल्स ए. हाफमैन को तैयार किया और शोध में जुट गये। खोज के लिए जिन रसायनों को मानव-शरीर पर प्रयोग करने की आवश्यकता हुई, राल्फ ने इसके लिए खुद को ही प्रस्तुत कर दिया। यह जानते हुए भी कि उनके इस फैसले से उनके शरीर पर सकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है और नकारात्मक भी। लेकिन खुशी की बात यह रही कि उनके प्रयोग बेहतर साबित हुए और राल्स के शरीर पर उनका सकारात्मक प्रभाव पड़ा। यही कारण रहा कि अपनी मौत को उन्होंने चार साल तक आगे अपने पक्ष में खींच लिया। उनकी टीम की इस सफलता पर नोबल जूरी ने स्वीडिश कैरोलिंस्का इंस्टीट्यूट, स्टाकहोम में सोमवार तीन अक्तूबर-11 को इसका एलान किया। लेकिन इसके ठीक तीन दिन पहले ही राल्स कैंसर को जीत कर सम्मानित मृत्यु को प्राप्त हुए। अब यह बात दीगर है कि उनकी यह सफलता बीबीसी को रास नहीं आयी और उसने उनकी मौत को उसी समय से मान लिया जब उनके शरीर में कैंसर की पहचान की गयी थी। यानी करीब चार साल पहले।
लेखक कुमार सौवीर लखनऊ के जाने-माने और बेबाक पत्रकार हैं. कई अखबारों और न्यूज चैनलों में काम करने के बाद इन दिनों एस टीवी में यूपी ब्यूरो प्रमुख के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. उनसे संपर्क 09415302520 के जरिए किया जा सकता है.