पवित्र गाय नहीं बीबीसी!

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भूपेनब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग सर्विस (बीबीसी) हिंदी प्रसारण के जारी रहने पर कौन लोग ख़ुश हैं? क्यों ख़ुश हैं? यह ख़ुशी कितनी जायज़ है? इन बातों को जानने के लिए ज़रूरी है भारतीय मीडिया में बीबीसी के होने के मतलब समझे जाएं. उनकी नीर-क्षीर विवेचना की जाए. ऐसा तभी हो सकता है जब बीबीसी को पवित्र गाय मानने से बचा जाए.

पिछले दिनों बीबीसी का हिंदी प्रसारण काफ़ी चर्चाओं में रहा है. बीबीसी ने पैसे की कमी का बहाना बनाकर छब्बीस मार्च दो हज़ार ग्यारह से हिंदी प्रसारण बंद करने का ऐलान कर दिया. बीबीसी वर्ल्ड ने ब्रिटिश सरकार के विदेश विभाग की तरफ़ से की गई सोलह फ़ीसदी बजट कटौती को इसकी वजह बताया. दुनियाभर के हिंदी श्रोताओं की तरफ़ से इस सिलसिले में काफ़ी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली. श्रोता भावुक होकर बीबीसी को ख़त लिखने लगे. इसे जारी रखने के लिए तरह-तरह से लॉबिंग भी की गई. इंटरनेट की सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अभियान चलाए गए. अरुंधती रॉय विक्रम सेठ, मार्क टुली और रामचंद्र गुहा समेत कई भारतीय बुद्धिजीवियों की तरफ़ से हिंदी प्रसारण को जारी रखने के लिए अपील की गई.

प्रवासी भारतीयों के दबाव में ब्रिटेन की संसद में भी यह मामला उठाया गया. आख़िरकार बीबीसी ने अपने फ़ैसले में हल्का सा बदलाव किया और घोषणा की कि फिलहाल प्रसारण को पूरी तरह बंद नहीं किया जाएगा. बल्कि उसे अब पहले के चार कार्यक्रमों के बजाय सिर्फ़ घंटेभर के एक कार्यक्रम तक सीमित कर दिया जाएगा. अब यह कार्यक्रम दो हज़ार बारह के छब्बीस मार्च तक चलेगा. इस बीच बीबीसी प्रबंधन इसके लिए निजी पूंजी तलाशने की कोशिश करेगा. अगर कामयाबी नहीं मिली तो प्रसारण को पूरी तरह बंद कर दिया जाएगा.

बीबीसी की हिंदी सेवा के बंद होने का समाचार सुनने पर हिंदी समाज की तरफ़ से एक अजीब सी मातमी धुन सुनाई देने लगी थी. लोग सत्तर सालों के अपने अनुभव सुनाने लगे, यह बात भी सामने आई कि बीबीसी ने उनके व्यक्तित्व को बनाने में कितनी मदद की. उन्होंने कैसे बीबीसी सुनकर देश और दुनिया के बारे में जानना और राय बनाना शुरू किया. नॉस्टेल्जिया से घिरे लोग बीबीसी की महानता के किस्से सुनाते नहीं थक रहे थे. अतीत के इस महिमा मंडन में तथ्य और आलोचनात्मक विवेक पूरी तरह ग़ायब थे.

इसमें कोई दो राय नहीं कि बीबीसी ने भारतीय समाज को मत बनाने के मामले में कई तरह से प्रभावित किया है. हिंदी समाज ही क्या, उसने दुनिया के कई हिस्सों में प्रसारण से लोगों के बीच अपनी जगह बनाई है. उन्हें नए अंदाज में सूचनाएं पहुंचाने का काम किया, जो आम तौर पर राष्ट्रीय मीडिया नहीं करता था. इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि क्या बीबीसी निस्वार्थ होकर दुनियाभर मे अपना प्रसारण चलाता रहा है या उसके पीछे कोई गहरे आर्थिक-राजनीतिक निहितार्थ थे.

विदेश में बीबीसी प्रसारणों को अगर देखा जाए तो वो हमेशा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाला एक हथियार रहे हैं. भारत में इसकी शुरुआत आज़ादी से पहले मई उन्नीस सौ चालीस में इन्हीं लक्ष्यों की पूर्ति के लिए की गई थी. तब इसकी शुरुआत बीबीसी हिंदुस्तानी के नाम से हुई थी. आज़ादी के बाद देश की तरह ही बीबीसी का हिंदुस्तानी प्रसारण भी विभाजित हो गया. तब बीबीसी हिंदी और उर्दू नाम के दो प्रसारण अस्तित्व में आए. आज़ादी के बाद भले ही बीबीसी अपनी पुरानी वाली भूमिका में न रहा हो लेकिन वो महत्वपूर्ण मुद्दों पर भारतीय जनमत को प्रभावित करता रहा है. इस तरह वो हमेशा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का एक महत्वपूर्ण औज़ार रहा है. दुनियाभर के महत्वपूर्ण मुद्दों में उसने ब्रिटिश नज़रिए के मुताबिक़ भारतीय श्रोताओं के बीच भी जनमत बनाने का काम किया. वो चाहे इराक या अफ़गानिस्तान में साम्राज्यवादी घुसपैठ हो या लीबिया पर हमला, दक्षिण एशियाई मामलों में भी वो हर मुद्दे पर साम्राज्यवादी नज़रिए को ही प्रस्तुति करता रहा है. इन सारी आलोचनाओं के बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि बीबीसी ने भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में एक ख़ास भूमिका निभाई है.

बीबीसी हिंदी से कभी मशहूर अंग्रेजी उपन्यासकार जॉर्ज ऑरवेल, अभिनेता बलराज साहनी और पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल जैसे लोग भी जुड़े रहे हैं. वर्षों से देश की क़रीब एक करोड़ जनता सुबह साढ़े छह बजे प्रसारित होने वाले बीबीसी के समाचार कार्यक्रम से अपना दिन शुरू करती थी. इसके बाद आठ बजे का समाचार कार्यक्रम भी उसे सूचनाएं देता रहता था. शाम को साढ़े सात बजे का समाचार कार्यक्रम उसके लिए देश-दुनिया के दरवाजे खोलता था. अंत में रात साढ़े दस बजे आने वाला समाचार कार्यक्रम उसको ताज़ी घटनाओं से रू-ब-रू कराता रहा. अब बीबीसी के फ़ैसले के मुताबिक़ सिर्फ़ शाम साढ़े सात बजे से एक घंटे का समाचार कार्यक्रम पेश किया जाएगा. बीबीसी की अहमियत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है प्रसारण बंद होने की ख़बर पर समाज के बाक़ी हिस्सों के अलावा बिहार में सक्रिय माओवादियों ने भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संवाददाता को बताया कि इससे उनके पास से मुख्यधारा के पक्षपाती मीडिया के विकल्प के तौर पर समाचार का एक महत्वपूर्ण स्रोत छिन जाएगा. आम तौर पर कम्युनिस्ट विरोधी माने जाने वाले समाचार माध्यम के लिए माओवादियों का यह बयान किसी तारीफ़ से कम नहीं है.

आज के दौर में तकनीकी विकास ने समाचार माध्यमों के चरित्र को बदल कर रख दिया है. नए मीडिया के उभार और मीडिया कंवर्जेंस की वजह से पुराने तकनीक पीछे छूटती जा रही है. पूंजीवादी विकास ने नई तकनीक का इस्तेमाल नए तरीक़े से शुरू किया है. इस मामले में एक बात सच है कि जनसंचार के पुराने माध्यमों की जगह नए माध्यम पूरी तरह नहीं लेते हैं. पुराने माध्यम भी बचे रहते हैं लेकिन उनकी जगह सीमित हो जाती है. ख़ास तौर उन्हें चलाने वाली संस्थाओं की रुचि उन्हें चलाने में कम हो जाती है. बीबीसी भी इस उदाहरण से अगल नहीं है. उसका अंग्रेजी टेलीविजन चैनल बीबीसी वर्ल्ड न्यूज़ पहले से ही भारत में है. हिंदी चैनल आने की सुगबुगाहट बार-बार सुनाई देती रहती है. न्यूज़ वेबसाइट भी उसकी काम कर रही है. ऐसे में एक डूबते माध्यम में बने रहना उसे उचित नहीं लग रहा है. जो शॉर्ट वेव पर बहुत ही पुराने अंदाज में आज भी चल रहा हो. एफ़एम के जमाने में पुराने माध्यम का आकर्षण भले ही जनता में बना रहे, उसे चलाने वालों में अब वो मक़सद नहीं बचा. इसलिए अब बीबीसी इस माध्यम में तभी बचा रहना चाहता है जब उसे इससे कुछ मुनाफ़े की उम्मीद बंधे.

दूसरा, भारत में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अपनाने के बाद मीडिया का ऐसा विस्फोट हुआ है कि अब बीबीसी का हिंदी प्रसारण पहले की तरह सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को आगे बढ़ाने में नाकाम है. इस काम को करने के लिए बाक़ी माध्यम अब ज़्यादा सक्षम हैं. समाज के जिस वर्ग तक बीबीसी हिंदी का ख़बरें जाती हैं उसके पास न तो ज़्यादा क्रय शक्ति है और न ही वो जनमत निर्माण की नेतृत्वकारी भूमिका में है. ऐसे दौर में बीबीसी के लिए इसे जारी रखना मुनाफ़े का सौदा नहीं है. वैश्वीकृत भारत में जनमत निर्माण करने और अपने देश की नीतियों का प्रचार-प्रसार करने के अब और भी कई माध्यम सामने आ चुके हैं. बीबीसी रेडियो को बंद करने की ये बड़ी बजहें हैं. बीबीसी, हिंदी ही नहीं एक-एक कर कई भाषाओं प्रसारणों को बंद कर रही है. प्रबंधकों का तर्क यही है कि अब वो समाज ख़ुद इतने उन्नत हो गए हैं या उनका अपना मीडिया संम्पन्न हो गया है इसलिए अब वहां बीबीसी की जरूरत नहीं रही.

बीबीसी इसी साल अपने छह और रेडियो प्रसारणों को बंद करने की घोषणा कर चुका है. इसके अलावा पांच भाषाओं में वेबसाइट समेत पूरी तरह से ताला लगाने की ऐलान किया जा चुका है. इनमें नेपाली भाषा का प्रसारण भी शामिल है. पड़ोसी देश नेपाली सामाजिक संगठन इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रसारण को जारी रखने के लिए ब्रिटिश सरकार से अनुरोध कर रहे थे. बीबीसी के ऐलान के दायरे में सत्तर साल से चल रहे सर्बियाई और लेटिन अमेरिकी प्रसारण भी शामिल हैं. इनके अलावा अफ़्रीका के पुर्तगाली और कैरेबियाई देशों के अंग्रेजी प्रसारण भी बंद करने की घोषणा की है. इन सभी सेवाओं की शुरुआत भी ब्रिटिश एजेंडे को लागू करने के लिए की गई थी.

यह बात जग जाहिर है कि लेटिन अमेरिकी सेवा की शुरुआत नाजी प्रचार को रोकने के लिए की गई थी. बीबीसी ने जिस भी देश में अपने रेडियो प्रसारण शुरू किए थे उसके पीछे उसके साम्राज्यवादी हित हमेशा प्रमुख रहे हैं. आज भी ब्रिटिश सरकार अपने पुराने उपनिवेशों के बारे में बहुत बदली राय नहीं रखती है. बीबीसी हिंदी सेवा को बंद करने के सिलसिले में ब्रिटिश संसद में चली बहस पर भी नज़र डालें तो वहां सांसद हिंदी सेवा को चलाए जाने के पक्ष में बीबीसी प्रबंधकों को यही तर्क देते हैं कि भले ही भारत में मीडिया का असीमित विकास हुआ हो लेकिन आज भी वहां के गरीब राज्यों में ब्रिटेन का सीधा संवाद कायम करने में बीबीसी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है इसलिए उसे बंद नहीं किया जाना चाहिए. सांसद एडवर्ड ली का कहना है कि बीबीसी भारत और ब्रिटेन के रिश्तों को मजबूत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

बीबीसी को जीवनदान मिलने की वजह से बीबीसी हिंदी सुनने वाले ज़्यादातर लोगों में ख़ुशी की लहर है. लेकिन वे इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि बीबीसी ने अतीत में किस तरह की नीतियों को बढ़ावा दिया. बाहरी तौर पर उसकी ख़बरों में जो निष्पक्षता नज़र आती है वो किस तरह निर्मित होती है. बीबीसी ने भारत के दूर-दराज के इलाक़ों में अपनी जो पहुंच बनाई है और लोगों तक जिस तरह से सूचनाएं पहुंचाई है और विश्वसनीयता हासिल की है उसका अपना आलोचनात्मक महत्व है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ऐसा सिर्फ़ बीबीसी ही कर सकता है. सवाल उठाने का वक़्त है कि शहर केंद्रित भारतीय कॉरपोरेट मीडिया से जनता के मुद्दों को उठाने और ग्रामीण जनता को केंद्र में रखने की अपेक्षा तो की नहीं जा सकती लेकिन ऐसा क्यों नहीं है कि भारत में पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग को ज़्यादा स्वतंत्र और मजबूत किया जाए. उसे जनता के बीच विश्वसनीयता दिलाने की कोशिश की जाए. ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि ऑल इंडिया रेडियो सिर्फ़ सरकारी भौंपू न लगे और दूरदर्शन सरकार का जनसंपर्क विभाग न लगे. इसके लिए बीबीसी को लेकर चल रहे रुदन के बीच हमारे समाज में प्रसारण माध्यमों की राजनीति पर बात की जाए. कोई भी माध्यम राजनीति से परे नहीं है. समाचार माध्यमों को ज़्यादा ज़िम्मेदार बनाने के लिए उस राजनीति को समझा जाए, जिससे मीडिया संचालकों पर दबाव बनाया जा सके. ऐसा तभी होगा जब सभी माध्यमों के अंतर्रविरोधों को गहराई से समझने की कोशिश की जाए. मिथकों और रूढ़ियुक्तियों से बाहर निकालकर मीडिया को सही परिप्रेक्ष्य में सामने रखा जाएगा.

बीबीसी किसी भी लिहाज़ से दूध का धुला संगठन नहीं है. उसने एक सुनियोजित रणनीति के तहत पहले हिंदी प्रसारण में काम करने वाले कर्मचारियों को लंदन से भारत भेजना शुरू किया फ़िर प्रसारण बंद करने की घोषणा कर दी. कर्मचारियों में अपने रोजगार को लेकर आशंका बनी हुई है. इससे ज़ाहिर होता है कि इस संगठन में कर्मचारी अधिकारों की किस तरह अनदेखी की जा रही है. यह बात सही है कि भारतीय मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मी कई बार बीबीसी में काम करने की बेहतर स्थितियों की दुहाई देते हैं लेकिन हाल में जिस तरह से बीबीसी कर्मचारियों के साथ व्यवहार हुआ है उससे ज़ाहिर होता है कि वहां श्रम अधिकारों की कैसे अनदेखी की जाती है. बीबीसी अगर अपना हिंदी प्रसारण बंद करता है तो उसे अपने सभी कर्मचारियों के लिए रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था करनी चाहिए. वहां काम करने वाले सभी पत्रकार-मजदूरों के साथ एकता दिखाते हुए कहा जा सकता है कि बीबीसी अगर देश छोड़कर चली भी जाए तो दुनिया नहीं डूबने वाली है, आवाज़ अपने पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग को सही करने के लिए क्यों न उठाई जाए?

बीबीसी पूरी दुनिया में पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग का एक महत्वपूर्ण नमूना रहा है बीबीसी रेडियो की शुरुआत पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्काटिंग के विचार के तरह उन्नीस सौ सत्ताईस में हुई थी. तब इसे लाइसेंस फ़ीस देकर ही सुना जा सकता था लेकिन उन्नीस सौ इकहत्तर में रेडियो से लाइसेंस फ़ीस हटा दी गई. अब इसका संचालन टेलीविजन लाइसेंस फ़ीस और बीबीसी की व्यावसायिक सेवाओं से हुई आमदनी से होता है. यानी ब्रिटेन का कोई भी दर्शक अगर टेलीविजन देखेगा तो उसे लाइसेंस फीस देनी होती है, चाहे वो बीबीसी चैनल देखे या न देखे. वैश्वीकरण के दौर में बीबीसी अब अपनी आय के लिए कई नए तरीक़े अपना रहा है. बीबीसी वर्ल्डवाइड लिमिटेड नाम की उसकी व्यावसायिक शाखा बीबीसी के लिए पैसे जुटाने का काम करती है. अभी बीबीसी का काम दो तरह से चलता है एक तो लाइसेंस फीस और दूसरा वर्ल्ड वाइड लिमिटेड के माध्यम से. बीबीसी के कई देशों में चैनल चलते हैं जिनका मक़सद शुद्ध तौर मुनाफ़ा कमाने के अलावा ब्रिटिश नीतियों को प्रचारित करना है.

ब्रिटिश पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सिस्टम की आंख मूंद कर तारीफ़ करने वाले लोगों को झटका लग सकता है कि बीबीसी भी लोक कल्याण की बजाय मुनाफ़े का कारोबार करता है. बीबीसी की व्यावसायिक शाखा बीबीसी वर्ल्डवाइड लिमिटेड दुनिया के कई देशों में एक मल्टीनेशनल कंपनी के तौर पर काम कर रही है. हमारे यहां भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप की बाज़ारू पत्रिका फेमिना और फ़िल्मफ़ेयर में भी उसकी पचास-पचास फ़ीसदी की हिस्सेदारी है. इसके अलावा वो अंबानी ग्रुप के बिग एफ़एम रेडियो में भी कंटेट का साझीदार है, जिसके तहत बीबीसी मिनट्स नाम से चटपटी सामग्री परोसी जाती है. मिड डे (जागरण समूह) के एफ़एम रेडियो वन में भी बीबीसी का हिस्सा है.

फिलहाल भारत में एफ़एम रेडियो में बीस फ़ीसदी तक विदेशी निवेश की इज़ाजत है. रेडियो समाचार में निजी निवेश की अनुमति नहीं है, इसलिए अभी इसमें व्यावसायिकता नहीं बढ़ी है, लेकिन सरकार पर निजी निवेश को अनुमति देने के लिए तमाम तरह के देसी और विदेशी संगठन दबाव डाल रहे हैं. भारत में रेडियो पर समाचार प्रसारित करने का अधिकार सिर्फ़ आकाशवाणी को है इसलिए बीबीसी हिंदी का प्रसारण ओमान (शॉर्ट वेव पर) और नेपाल (मीडियम वेव) के ट्रांसमीटरों से होता है. ऊपर बताया जा चुका है कि बीबीसी मनोरंजन के भारतीय बाज़ार में उतर कर मुनाफ़ा कमा रहा है. ऐसे में साबित होता है पैसे की कमी सिर्फ़ एक बहाना है असली वजह कुछ और है. जिसकी जटिलता को भावुक टिप्पणियों के ज़रिए नहीं समझा जा सकता है.

लेखक भूपेन सिंह युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार तथा आईआईएमसी में प्राध्‍यापक हैं. समयांतर में प्रकाशित यह लेख उनके ब्‍लॉग कॉफी हाउस से साभार लिया गया है.

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