पिछले दिनों भड़ास4मीडिया पर एक खबर ”अनुराधा चला चुकीं चैनल, न्यूज24 फिर अजीत अंजुम के हवाले” का प्रकाशन किया गया. इस खबर पर किसी अनिल पांडेय ने एक तीखी टिप्पणी अजीत अंजुम को लेकर की. आज उस टिप्पणी का जवाब जनसत्ता अखबार में काम कर चुके और वर्तमान में अनुवाद का उद्यम कर रहे संजय कुमार सिंह ने लिखकर भेजा. दोनों टिप्पणियों को अलग पोस्ट के रूप में यहां प्रकाशित किया जा रहा है.
संजय कुमार सिंह का जवाब
अनिल पांडे को अजीत अंजुम से इतनी नाराजगी! पर ये नहीं बताया कि अजीत अंजुम जब सार्वजनिक रूप से मंगलेश डबराल के कपड़े फाड़ रहे थे तो मंगलेश डबराल या जनसत्ता ने क्या जवाब दिया था। मुझे याद नहीं है कि किसी फ्रीलांसर ने किसी फीचर संपादक की ऐसी सार्वजनिक खिंचाई कभी कहीं की हो। अजीत अंजुम अब भले संपादक हो पर यह बहादुरी उन्होंने फ्रीलांसर के रूप में दिखाई थी और तब तो उन्हें भी नहीं पता था कि वो इतना मजबूत (आप चाहे न मानो) संपादक बनने वाले हैं। तू मुझे छाप मैं तुझे छापूं – के खिलाफ अजीत की इस बेमिसाल कार्रवाई की तारीफ न करनी हो तो मत कीजिए पर यह निन्दा करने लायक तो नहीं ही है।
आपने लिखा है बैठक में मौजूद लोगों को अजीत अंजुम का बेबस लाचार चेहरा याद होगा। मैं उस बैठक में तो नहीं था पर जनसत्ता दफ्तर में आकर उन्होंने जिस गर्व से यह घटना बताई थी मुझे वह अच्छी तरह याद है। आज ही भड़ास पर कहीं पढ़ रहा था कि नए पत्रकारों को पुराने पत्रकारों के बारे में कुछ मालूम नहीं होता और वे लगते हैं ज्ञान बघारने। मुझे अजीत के पक्ष में यह सब लिखने की कोई जरूरत नहीं थी पर इसलिए लिख रहा हूं कि आप अजीत के समकक्ष लगते हैं फिर भी तथ्यों की उपेक्षा और उसे गलत ढंग से प्रस्तुत करते लग रहे हैं। आप अजीत के बेबस लाचार चेहरे की बात कर रहे हैं तो आपको बता दूं कि हिन्दी के तमाम नामी-गिरामी पत्रकारों के पास जब स्कूटर-मोटर साइकिल नहीं होती थी तो उन्होंने पिताजी की दी हुई नई मोटरसाइकिल से फ्रीलांसिग शुरू की थी।
और गाड़ी खरीद कर गांव वालों को ही दिखाई जाती है… दिल्ली में कौन पूछेगा? (हालांकि उस समय कार खरीदना साधारण काम नहीं था और ऐसा कर पाने के बाद वह अपने माता-पिता से आशीर्वाद लेने ही गये होंगे) और अजीत का गांव दिल्ली से 1000 किलोमीटर दूर है (ज्यादा होगा) तो इसमें उनका क्या दोष? और ऐसा नहीं है कि दिल्ली से अजीत के गांव कोई कार से जाता ही नहीं है या कभी कोई गया ही नहीं है। आप कहना क्या चाहते हैं? अनिल जी, अपनी जानकारी ठीक कर लीजिए वह सेकेंड हैंड कार नहीं, नई मारुति 800 थी जिसे उन्होंने दीवाली के पहले प्रीमियम देकर खरीदा था।
अनिल पांडे की मूल टिप्पणी
धोबी को गधे बिना गुज़ारा नहीं, न ही गधे को धोबी बिना! इंसान को लगातार सफलता मिले तो अहंकार में अँधा हो जाता है, खासकर वैसे लोग जिनकी परवरिश बहुत ठीक ढंग से नहीं होती है. अजित ने पहली बार एक सेकेण्ड हैण्ड कार खरीदी, तो उसे दिखाने हज़ार किलोमीटर दूर अपने गाँव चले गए. ये यही अजीत अंजुम थे जो जनसत्ता में लेख नहीं छापे जाने पर कलेजे पर मुक्का मार कर “डकार” रहे थे, और मंगलेश डबराल के कपड़े सार्वजनिक रूप से फाड़ रहे थे.
ये १९९१-९२ की बात होगी, जब दिल्ली के constitution क्लब में फ्रीलान्सर्स union की पहली और आख़िरी बैठक हुई थी. जवाहर लाल कौल और मेरे जैसे जो लोग उस बैठक में थे, शायद उन्हें एक बेबस -लाचार अजीत अंजुम का चेहरा याद होगा. अब यही अजीत अंजुम पत्रकारों से कैसे पेश आते हैं, उसकी ढेर सारी कहानियां सुनने को मिलती हैं. Aapne likha- “अब अजीत अंजुम के पास समय कहां रहेगा गैरों से बतियाने के लिए.” वैसे आपके पोर्टल का मियां -बीवी ने भरपूर इस्तेमाल किया. आप लोगों ने भी खूब जयकारे लगाये. वक़्त-वक़्त की बात है. इंसान काबिल हो, पर घमंड से भरा हो, तो सारी काबिलियत हवा हो जाती है. हिंदी के बहुत सारे पत्रकार इस भयानक बीमारी से ग्रस्त हैं.
Comments on “बेबस-लाचार नहीं, गर्व से भरे थे अजीत अंजुम”
संजय जी ,
अब तो कार, कोठी, ब्रांडेड कपडे, पॉश इलाके में दो-चार फ्लैट, बैंक बैलेंस से ही पत्रकार की हैसियत नापनी चाहिए .
लिखने-पढ़ने की बात तो बेमानी है.
संपादक को चौड़ा होकर चलना चाहिए. यही तो नयी रवायत है.
” विनम्र ” और “दूसरों का सम्मान” गया तेल लेने .
एक फ्रीलांसर होते हुए मंगलेश जी को भला -बुरा कहना, सचमुच गर्व और साहस की बात थी .
हम जैसे लोग अजित अंजुम जैसे कभी Struggler रहे पत्रकारों में उसी स्वाभिमान का अक्स dhundhate रहते हैं .
यह भी कि शायद यह व्यक्ति साथी, या जूनियर पत्रकारों का सम्मान करे.
अजित अंजुम जी की “सेकंड हैण्ड ” कार लिखने की ग़लती कर दी .
गुस्ताफी माफ़ !
संजय जी,
एक गलती मैं सुधार दूं, कांस्टीट्यूशन क्लब की जिस गोष्ठी का अनिल जी ने जिक्र किया है, उसमें मंगलेश जी पर हमला करते वक्त अजीत अंजुम जी फ्रीलांसर नहीं, बीएजी फिल्म में बतौर डाइरेक्टर काम करते थे और राजीव शुक्ला के रूबरू को डाइरेक्ट करते थे। उस गोष्ठी में मैं भी मौजूद था। यह 1996 की बात है। जहां तक चेहरे की बात है तो उस वक्त अजीत का चेहरा गर्व से भरा था या खिसियाहट से या फिर किसी और भाव से, इसे देखने की कोशिश हम जैसे पत्रकारों ने नहीं की। लेकिन यह भी सच है कि जिस वक्त वे मंगलेश जी के कपड़े फाड़ रहे थे, उन्हीं दिनों उनकी पत्नी स्वतंत्र भारत के फीचर विभाग में नौकरी करती थीं और मंगलेश जी के विभाग की लड़कियों पारूल शर्मा, रजनी नागपाल, ऊषा पाहवा के साथ चाय पीते हुए जनसत्ता रविवारीय में हर महीने कलम चला रही थीं। इसे चाहें तो आप अजीत जी का खुलापन कह सकते हैं।
अजीत अंजुम एक सनकी इंसान है।संजय जी मुझे अंजुम के साथ काम करने का मौक तो नहीं मिला लेकिन मैं बता दूं कि पत्रकारिता में मैं 1989 से हूं।अब तक जितने टीवी पत्रकारों से मिला हूं,सभी अंजुम को गालियां देते हैं,ठीक वैसे ही जैसे हिन्दुस्तान के ग्रुप एडीटर शशिशेखर को।ये तो इंसानी फितरत है कि सफलता पाने से ज़्यादातर लोग अहंकारी हो जाते हैं।सफलता के शिखर पर पहुंचकर विनम्र लोग बेहत कम मिलते हैं,खासकर टीवी पत्रकारों में।अंजुम ऐसे ही पत्रकारों की अगुवाई करते हैं।वो ना तो अच्छे पत्रकार हैं ना ही बेहतर इंसान।
थैंक्स संजय झा जी ,
साल और उस पल को याद रखने के लिए. और बाकी दूसरी जानकारियों के लिए भी .
पुरानी बात थी , इसलिए साल का स्मरण नहीं रख सका .
इशारतन ही सही, फिर भी संजय कुमार सिंह जी के शब्द उधार ले रहा हूँ-“तू मुझे छाप, मैं तुझे छापूं ” की बीमारी से मंगलेश जी ग्रस्त रहे हैं.
फिर भी इतनी कुत्ता -फजीहत के बावजूद , मंगलेश डबराल , अजित अंजुम जी की पत्नी गीताश्री को छापते रहे .
क्या इसे मंगलेश जी की विनम्रता नहीं कहेंगे ?
Request to Editor-
Pl. correct गुस्ताफी माफ़ !
to
गुस्ताखी माफ़ !
yashwantji,
kaisi bahas aap chala rahe hain, ek kah raha ki second hand car thi to dusara first hand,car agar third hand hi thi to bhi esame kya burai,churai huyi to nahi thi, garibo ka majak udane ka kisi ko koi aadhikar nahi,aapko pata hoga ki india me aaj bhi lakho log aise hain jinake par me chapal nahi,dono bahas karne wale patrkar nhi lagate, thikdar ho sakte hain.
स्वयंघोषित ek patrkar जी,
कमेंट्री देने से पहले सभी के शब्दों को ठीक से पढ़ लिया कीजिये.
अनिल जी,
आप विषयांतर हो रहे हैं। मुद्दा ये नहीं था कि मंगलेश डबराल विनम्र हैं कि नहीं या हैं तो कितने और अजीत अंजुम कितने चौड़े होकर चलते हैं, कितनी बड़ी गाड़ी में चलते हैं, उनके कितने फ्लैट हैं या किस वाले फ्लैट में रहते हैं या फ्रीलांसरों से कितने प्यार से बात करते हैं या यह भी कि संपादक के रूप में उनका ज्ञान कैसा या कितना है।
मैंने जो लिखा है उसे फिर से पढ़िए। “….. आप अजीत के समकक्ष लगते हैं फिर भी तथ्यों की उपेक्षा और उसे गलत ढंग से प्रस्तुत करते लग रहे हैं ….।” आपके लिखे से ऐसा लग रहा था जैसे अजीत ने किसी तरह कोई खटारा गाड़ी खरीद ली जो मेरठ तक जाने लायक भी नहीं थी और यह जानते हुए भी (या इत्ती सी बात समझे बगैर) उसे लेकर 1000 किलोमीटर दूर अपने गांव चला गया और दूसरा यह कि मंगलेश जी की सार्वजनिक फजीहत करके उसने गलती की। मेरी टिप्पणी मूलतः इन्हीं दो बातों पर थी।
एक पत्रकार के रूप में रचनाएं नहीं छापने पर अजीत ने एक फीचर संपादक की सार्वजनिक रूप से फजीहत की। यह तथ्य न्याय की सर्वोच्च परंपरा, आदर्शवादी व्यवहारों, शिकायत करने के जायज अधिकारों, तरीकों और नियमों आदि के लिहाज से भले गलत हो पर मैं जब खुद को अजीत की जगह रखकर सोचता हूं तो लगता है कि मौका मिलने पर मैं भी वही करता (हालांकि मैं वैसी स्थिति में कभी रहा नहीं) और यह भी जानता हूं कि मंगलेश जी वाकई बहुत सज्जन इंसान हैं और शायद इसीलिए अजीत ऐसा कर पाया। औरों की तो छोड़िए अजीत से ही ऐसा व्यवहार करने वाले का क्या होगा उसकी कल्पना कीजिए। लेकिन वह अलग मुद्दा है और जब होगा तब उसपर भी चर्चा करूंगा।
मैं आपको अजीत के समकक्ष मान रहा हूं इसलिए याद दिला दूं कि अजीत अंजुम की ही तरह गीताश्री भी दिल्ली में ही पत्रकारिता करती रही हैं और इस क्षेत्र में (लेखन की योग्यता के अलावा) उनकी अपनी पहचान है, संबंध हैं, साख है। ऐसे में अजीत अंजुम से विवाह कर लेने के कारण मंगलेश डबराल उन्हें छापना बंद कर देते – की कल्पना या अपेक्षा करना और नहीं बंद करने भर से मंगलेश जी को विनम्र मान लेना आप खुद सोचिए क्या है। मंगलेश जी विनम्र और भले इंसान है। इसके लिए उन्हें मेरी, आपकी या किसी अन्य के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह अजीत भी जो है, सो है। मेरा मित्र है इसलिए मानता हूं कि मुझे उसकी बुराइयां नहीं दिखती होंगी। अगर पहले यह स्पष्ट नहीं था तो अब कर दे रहा हूं कि मैं अपने सर्टिफिकेट से उसके बारे में लोगों की राय बदलने का कोई इरादा नहीं रखता।
संजय सिंह जी,
आपको मित्रता के लिए यही शख्स मिला….कभी मैं भी इसका मित्र था और इसकी पत्नी मुझे अपना भाई बताती थी। लेकिन एक फिल्म की शूटिंग के दौरान जब मैंने कुछ अद्भुत नजारे देखे तो मैं न तो अजीत जी का मित्र रह पाया न ही उनकी पत्नी का भाई..क्या आप भी सुधार करेंगे।
गुस्ताखी माफ़ हो !!!
वो इसलिए की मै जोधपुर से हूँ और पत्रकारिता में इस इलाके को हाशिया समझा गया, हो सकता हो मै अजीत जी के बारे में ज्यादा नहीं जानता हूँ लेकिन इतना भर जरुर जानता हूँ की वो सधे हुए इन्सान है ! इसे मस्का बाजी ना समझिएगा क्योंकि मुझे उनसे कोई निजी स्वार्थ भी नहीं है लेकिन सच्चाई ये है की दस बरस की जान पहचान में इतना जरुर समझ पाया हूँ की गधे और बेवकूफ समझे जाने स्ट्रिंगरों के साथ क्या बर्ताव किया जाए ये कोई अजीत जी से सीखे ! जब आज तक और स्टार में खबरों की तकरार चलती थी और हम रोजाना चलाते थे और साथ ही स्टार न्यूज को खबरे दिया करते थे तब ये देखा की रोजाना पर वो हर खबर चलती थी जिसे आज तक और स्टार सबसे पहले दिखने की बात किया करते थे ! हो सकता हो मेरी बातें आप को बुरी लगे लेकिन हमने ये देखा ! उनकी खबरों की धार पर जाइएगा, साथ ये भी सच्च है की उनके साथ की टीम बेहतरीन थी और उनका काम भी लाजवाब ! अब आप लोग इसे किस नजरिये से देखे ये आप ही जाने लेकिन अजीत अंजुम एक सधे हुए और खबरों की धार को समझने के साथ ही उनके दम ने हम जैसे कई लोगों को पत्रकारिता सिखाई ! कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन समझने के लिए इतना ही काफी है ! आपने मुझे पढ़ा, इसके लिए साधूवाद !!!
प्रिय संजय सिंह जी ,
अजित जी के मित्र होने के कारण, आप emotionally charged लगते हैं , इसलिए आपको मेरी बात समझने में दिक्कत दरपेश हो रही है.
अजित अंजुम मेरे लिए सिर्फ, और सिर्फ एक कैरेक्टर हैं, जिन्हें केंद्र में रखकर मैंने चार सवाल उठाए थे –
1. लेख नहीं छपे, तो क्या ऐसा व्यवहार करना चाहिए, जैसा अजित अंजुम ने मंगलेश डबराल से किया था ?
2. लेख, रिपोर्ताजों को जो “विनम्र” संपादक या फीचर एडिटर “बत्ती” बनाकर रख लेते हैं, उनकी कोई जवाबदेही है, या नहीं ?
3. संपादक जैसे बड़े पद पर पहुँचने पर क्यों धरती पर नहीं रहते हिंदी के पत्रकार ? कुछ पत्रकारों में इतना अहंकार और कुर्सी की गर्मी क्यों रहती है ?
4. हमें अपने स्वाभिमान की चिंता तो रहती है, पर अपने से जूनियर पत्रकारों से हम क्यों मित्रवत, या शालीनता से पेश नहीं आते ?
ये चार बड़े सवाल थे, जिनके बाइस मैंने फ्रीलान्सर्स यूनियन और अजित की कार वाली बात उठाई थी .
अजित जी चार्टर प्लेन से अपने गाँव जाएँ, यह किसी चाटुकार के लिए बड़ी बात हो सकती है. पत्रकार बिरादरी को क्या फर्क पड़ता है ?
आपने लिखा – “मंगलेश जी विनम्र और भले इंसान है। इसके लिए उन्हें मेरी, आपकी या किसी अन्य के सर्टिफिकेट की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह अजीत भी जो है, सो है। ”
संजय जी , जो लोग सार्वजानिक जीवन में रहते हैं, उनके व्यवहार से सबका सरोकार रहता है. इसलिए साथ काम करनेवालों या interaction रखने वालों के सर्टिफिकेट की ज़रूरत सचमुच पड़ती है .
लोकतंत्र है, आप माने या ना माने. हमें इससे क्या.
अनिल जी
आप आपा खोते लग रहे हैं और भाषा का संयम तो छोड़ ही दिया है। जो लिखा है वह परस्पर विरोधी है। इसपर सार्वजनिक चर्चा का कोई मतलब नहीं है। फिर भी आप इस विषय पर मुझसे बात करना चाहें तो आपका स्वागत है। मेरा ई मेल anuvaadmail@gmail.com, मोबाइल नंबर 9810143426 है और मैं ए-202, एल्डिको अपार्टमेंट, शॉप्रिक्स मॉल के सामने, वैशाली, गाजियाबाद में रहता हूं। आइए आपको बताउंगा कि आप और हिन्दी के कई पत्रकार जो कहना चाहते हैं वह उनके लिखे से साबित नहीं होता है। यकीन रखिए अजीत के बारे में आपकी राय बदलने की कोई कोशिश मैं नहीं करूंगा।
Sanjay Kumar Singh ji नाचीज़ को घर बुलाने के लिए धन्यवाद .
चलिए थोड़ी देर के लिए दुष्यंत कुमार की ये लाइन पढ़ते हैं –
मापदण्ड बदलो
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मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।
mangalesh dabral ke liye maine mumbai se kam kiya hai ,vo parle darze ke kamzor,reedh heen aur patrakaron ka paisa marne main management ki madad karnevala ,jhootha adami hai … Ajit Anjum ko main janta naheen isliye tippanee naheen karunga
Mangalesh Dabral achchhe aadami naheen hain patrakar to bilkul naheen hain,sahitya likhana alag baat hai