मुझे अमर सिंह नहीं बनना

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आकाशवाणी और कई चैनलों पे गूंजी है तो यकीनन मेरी भी आवाज़ अच्छी है. मुल्कराज आनंद से लेकर चार्ल्स डिकन्स और मार्क्स से लेकर प्रेमचंद तक मैंने दसवीं तक पढ़ लिए थे. हिंदी साहित्य मुझे उन ने पढ़ाया जिन का नाम भर पढ़ लेने से कोई साहित्यकार हो जाता है. पत्रकारिता की तीस साल तक. कई अमिताभ बच्चनों से परिचय अपना भी रहा. जी में आया कभी कभार कि चलो लगे हाथ किसी मुलायम के अमर अपन भी हो गुज़रते चलें.

लेकिन अब पता चला कि ये साला सारा जलालत का काम है. जेल में जा के भी आदमी की आत्मा जागती नहीं है. कानून से बचने के लिए कहो या जेल से छूटने के लिए, ये तो अब भी कहना पड़ता है कि पैसा सरकार नहीं, विपक्ष का था. तिहाड़ में अभी सरकार का हुकुम चलता है. किसी जयाप्रदा से बात या किसी डाक्टर से मुलाक़ात कराने अभी तो सरकार के ही लोग काम आएँगे. सो मेरे भाई की मजबूरी है. माफ़ करें. इतने मजबूर हैं वो कि पैसा भाजपा का बताते समय ये भी ध्यान नहीं रहा कि लोग कल को भाजपा का पिट्ठू कहेंगे. कहेंगे कि भाई ने भाजपा के पैसे और भाजपा के ही बंदों के साथ सरकार सुरक्षित होते हुए भी कांग्रेस को बदनाम करने का खेल किया.

पर, सुन लो भैया, अपने भाई साहब इतने भोले नहीं हैं. वो इतने सयाने हैं कि जेल में भी खेल कर सकते हैं. बल्कि कर दिए हैं. वो कारागार में ही थे कि दीवार और दिल्ली के उस पार जयाप्रदा जी का बयान आया. बयान क्या अच्छी खासी घुड़की थी. डायलाग ये था कि, अगर अमर सिंह ने मुंह खोला तो कइयों के चेहरे बेनकाब हो जाएंगे. स्क्रिप्ट बड़ी सोच समझ के तैयार हुई होगी. दिमाग वाले लोग दिक्कत में भी हिम्मत से काम लेते हैं. डायलाग में वो शब्द इसी लिए थे कि कहानी उधर का मोड़ न मुड़े.

फाड़ने और झाड़ने के बीच हमेशा एक समीकरण होता है. बीज गणित सही बैठा. जिन के लिए खेल किया. किन के लिए काम किया. सब सवाल बेमानी. बयान ये आया कि पैसे तो बीजेपी ने दिए थे. माना, दिए. पर आपने लिए क्यों? ज़बरदस्ती दे रहे थे तो चिल्लाए क्यों नहीं? पर तब हालात और थे. बात और थी. सपा से घात और मुलायम की लात अभी आनी थी. सरकार से ज्यादा कांग्रेस के साथ मिल कर यूपी में कांग्रेस और उस में राहुल की लाज बचानी थी. इतिहास उठा के देख लो. रोज़गार के आसार पक्के हों तो मददगार अपने आप भी आते हैं. वे मुफ्त के मददगार हो गए. तार से तार और उधर सलाहकार मिला तो वे सिपहसलार हो गए. भाई ने अहमद की खिदमत की. बदनामी से तो कोई पार्टी या सरकार डरती क्या है. इतना ज़रूर हो गया कि ये रिश्वतखोर वोट के हक़ से वंचित हो गए. गिरनी भी थी सरकार तो बच गई. तब किसे पता था कि एक दिन कानून सर चढ़ के बोलने लगेगा.

मगर, मेरे हमदम मेरे दोस्त, कानून के सिर्फ हाथ ही लम्बे नहीं होते, दिमाग भी भी बहुत तेज़ होता है. अब ये साबित आपको करना है कि पैसे जिसके भी थे, लाया कौन, लिए क्यों, बताया क्यों नहीं. और अगर पता था कि रिश्वत है तो लेनदेन का गुनाह क्यों किया? सरकार तो फिर बची रहेगी. हो सकता है कि कुछ लोग ये मान भी लें कि अपने ही सांसदों और अपने ही पैसों से ये खेल बीजेपी ने खेला था. वो आज नहीं तो कल ये भी कहेंगे कि आप जैसा महान आदमी न होता तो बीजेपी के इस खेल का पर्दाफाश भी नहीं होना था. चलो अच्छा है. आपने जितनी देर हो सका उनका पर्दा रखा. अब जितनी देर आपकी पहरेदारी है तो इनकी परदेदारी भी करोगे ही. बाहर आ के अब और जाओगे भी कहाँ.

बहुत पहले बारिस पेस्तर्नक की एक किताब मैनें पढ़ी. बाद में पंजाब आ के किसी अनपढ़ बुज़ुर्ग से वो कहावत में सुना. सुना कि सयाना कौव्वा हमेशा गू पे गिरता है. मगर आप श्रद्धा नहीं तो धन्यवाद के पात्र हैं. आप अब एक मिसाल हैं. इतिहास आपको ‘कर नेकी और सर पे स्वाह’ वाले नेता के रूप में याद रखेगा. आपने एक बड़ी नसीहत दी है. औरों का तो और जानें. पर, ये तय है कि मुझे अमर सिंह नहीं बनना.

लेखक जगमोहन फुटेला चंडीगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं, जर्नलिस्टकम्युनिटी.कॉम के संपादक हैं. इनसे संपर्क journalistcommunity@rediffmail.com के जरिए किया जा सकता है.

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