कल मैं मेरठ से लखनऊ गया था और पुनः उसी दिन वापस भी आया. लखनऊ पहुँच कर घर जाते समय और रात में घर से रेलवे स्टेशन आते समय ऑटो में ड्राइवर के बगल में बैठा हुआ उनसे देवी-देवताओं के बारे में बातें करने लगा.
वैसे तो मैं व्यक्तिगत रूप से लगभग अधार्मिक किस्म का व्यक्ति हूँ, मंदिर मस्जिद तो जाता ही नहीं, हाँ पिछली बार इंग्लैंड जाने पर वहाँ एक चर्च जरूर चला गया था वह भी ज्यादा जिज्ञासु भाव से, पर अचानक जब सुबह ऑटो ड्राइवर के सामने शंकर जी की तीन तस्वीरें लगी हुई देखीं, तो मन में इच्छा हुई कि जानूं कि आखिर ड्राइवर साहब ने ये तस्वीरें ही क्यों लगा रखी हैं.
शिव जी की इन तीन तस्वीरों के ऊपर दुर्गा जी की भी एक तस्वीर लगी हुई थी. मैंने बात शुरू करते हुए पुछा- “लगता है आप दुर्गा जी के भक्त हैं”
ड्राइवर साहब ने इस का उत्तर लगभग अन्यमनस्क ढंग से दिया-“हाँ, हूँ.” पर उनकी बात से साफ़ जाहिर हो रहा था कि दुर्गा जी के प्रति उनके मन में कोई खास अथवा विशेष श्रद्धा के भाव नहीं थे.
तब मैंने उनसे पूछ लिया-“तो क्या शिव जी आपके प्रिय देवता हैं?”
ड्राइवर साहब अचानक से खिल उठे- “हाँ, सही. भोले बाबा ही मेरे आराध्य हैं.”
मुझे इस बात से एक अजीब सी जागरूकता हुई, आखिर ऐसा क्यों है कि कोई आदमी किसी एक देवी अथवा देवता को अपना आराध्य मानता है और दूसरे को नहीं. मैं अपने मन में सोचने लगा कि शायद इसका प्रमुख कारण यह होता होगा कि व्यक्ति अपनी खुद की अभिरुचियों, अपने लगाव, अपनी चाहतों के अनुसार अपना देवता खोजता होगा. तभी हिंदुओं में कई तरह के देवी-देवता हैं जो एक तरह से अलग-अलग व्यक्तित्वों की निशानी अथवा प्रतिनिधित्व है, कोई हिंदू देवता शौर्य के प्रतीक हैं तो कोई सौम्यता के. कोई लोमहर्षक हैं, तो अत्यंत शालीन. कोई वीर हैं तो कोई बुद्धिमान. कोई चपल और चतुर हैं तो कोई बहुत धीर-गंभीर. इस तरह हम जितने भी देवी-देवताओं को देखें, वे उतनी ही तरह के व्यक्तित्वों के प्रतिनिधि हैं और तदनुसार जीवन की विविधता को प्रतिबिंबित करते हैं.
बल्कि अपने इन्ही विचारों को आगे बढ़ाते-बढ़ाते मुझे लगने लगा कि भले ही मैं अपने बुद्धिजीवी प्रवाह में मूर्ति पूजा को कुछ गलत मानने लगूं या उसे व्यक्तित्व के विकास के लिए अवरोधक मानने लगूं पर शायद ये तमाम देवी-देवता अपने-अपने व्यक्तित्वों के अनुसार हमारे इतने सारे रंगों को उपस्थित करते हैं कि इसके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दमित, आतंरिक, इच्छित भावनाओं को प्रस्फुटित करने, सामने लाने और उन्हें एक निश्चित प्रवाह देने के लिए बहुत मददगार हुआ करते होंगे. इस तरह यदि मुझे रौद्र रूप पसंद हैं अथवा मुझे क्रोध का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तित्व आकर्षित करते हैं तो शायद मेरे लिए तांडव-रुपी भगवान शिव अथवा राक्षस-मुंड ली हुई माता काली का रूप अधिक आकर्षित करेगा. इसके विपरीत थोड़ा रसिक, हंसमुख, खिलंदड़ा स्वाभाव का व्यक्ति शायद नटवर नागर, भगवान श्री कृष्ण को अपना आराध्य माने.
मैं ने इन्हीं बातों को सोचते हुए ऑटो ड्राइवर से पूछा कि उन्हें भगवान शिव में सर्वाधिक भक्ति क्यों हैं? ऑटो ड्राइवर का जवाब काफी मजेदार था. उन्होंने कहा कि उन्हें भगवान शिव इसीलिए बहुत पसंद हैं क्योंकि वे अपने भक्तों की बात सुनते हैं और उसे तत्काल पूरा करते हैं. मैंने कहा कि यदि भगवान शिव लोगों की गलत बात मान लेते हैं और अपने भक्तों की गलत मांगों को भी पूरा कर देते हैं तो क्या आप उसे भी सही कहेंगे. ड्राइवर साहब जोश में थे और उन्होंने कहा- “हाँ, मैं तो इसे सही ही मानूंगा. हो सकता है जमाने की निगाहों में उस आदमी की मांग गलत हो पर उस आदमी की निगाह में तो वह सही ही मांग होगी. अतः उस आदमी की बात यदि भगवन भोले शंकर सुन रहे है तो उस में गलत क्या है.”
मैंने बात को थोडा आगे बढ़ाया-“तो यदि हम ये मान लें कोई आदमी कहे कि मुझे तो अपने पडोसी की बीवी ही चाहिए और भगवन शिव उसकी मांग मान लें.”
ड्राइवर साहब अभी भी अपनी बात से हटने को तैयार नहीं थे, फिर से वही तर्क दिया-“हो सकता है, आपके-हमारी निगाह में वह गलत हो, पर यदि वह उसी औरत से सच्चा प्यार करता है तो वह तो अपनी जगह सही हुआ”. मैंने थोड़ी और परीक्षा ली, मैंने कहा-“यदि वह औरत आपकी बीवी हो तो.” अबकी ड्राइवर साहब को शिव जी की दरियादिली पर कुछ शक सा हुआ-“यह तो ठीक नहीं होगा. आप ठीक कह रहे हैं. इससे तो व्यवस्था ही बिगड़ जायेगी. समाज में कुछ नियम भी तो होना चाहिए.”
यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन तुरंत ही ड्राइवर साहब एक बार फिर शिव जी की भक्ति में डूब गए. कहने लगे-“शिव जी इतने दयालु हैं कि मैंने उनसे जो भी माँगा, उन्होंने दिया. मैंने जीवन में दो बार दो औरतों को अपने जीवन में सच्चे दिल से चाहा और शिव जी से उन्हें माँगा. दोनों ही औरतें मुझे मिलीं, भले ही वे दो-चार महीने के लिए ही मेरे जीवन में ही आई हों. मैं तो अपनी मांग बस शिवजी के सामने रख देता हूँ और जिद पकड़ लेता हूँ कि आप कैसे मेरी मुराद पूरी नहीं करेंगे. अंत में बाध्य हो कर शिव जी को भक्त की बात माननी ही पड़ती है.”
उन्होंने बात आगे बधाई-“यही वह चीज़ है जो शिव जी को सभी भगवानों से नंबर एक करती है. आप देख लें, सबसे अधिक मंदिर शिव जी के मिलेंगे. यदि मेरी परीक्षा में शिवजी पास नहीं हुए होते तो मैं भी उनका भक्त नहीं रहता, किसी और देवता को देखता.”
बात बहुत पते की थी और मजेदार भी पर तब तक मेरा गोमतीनगर का गंतव्य आ गया और मैं ऑटो से उतर कर अपने घर चला गया. रात को जब मैं वापस स्टेशन जा रहा तो जिस ऑटो पर बैठा उस पर सामने शिव जी, दुर्गा जी और हनुमान जी के फोटो लगे थे. इस बार मैंने इस ऑटो के ड्राइवर से पूछा-“आपके आराध्य देव कौन हैं”
ड्राइवर ने कहा-“मेरे सब आराध्य हैं. आखिर सब देवी-देवता एक ही होते हैं. बस हम इंसान इस बात को समझ नहीं पाते और अपनी सोच के अनुसार देवताओं को विभाजित करते हैं.”
फिर वे अपनी बात कहने लगे-“सबसे पहले यह ऑटो एक मुसलमान के पास था. उन्हों ने सात सौ छियासी का नंबर लगा रखा था. वह नंबर अभी तक इस ऑटो पर लगा हुआ है. फिर यह ऑटो एक सिख के हाथ में आया. उन्होंने सिख धर्म की निशानी इसमें लगाईं.”
मैं ने भी देखा तो ऑटो में बगल में सात सौ छियासी और सिख धर्म का धार्मिक निशान दिखा. ड्राइवर साहब ने आगे कहा- ”इसके बाद एक वर्माजी के पास यह गाड़ी आई. उन्होंने ये तीन फोटो लगा दिये. अब मेरे पास गाडी है. यद्यपि मैं मूल रूप से भगवान राम का भक्त हूँ क्योंकि मैं हिंदू हूँ और हिंदुओं के असल भगवान तो भगवान श्री राम ही हैं पर साथ ही यह भी मानता हूँ कि ये सभी लोग भगवान राम के ही रूप हैं, इसीलिए मैंने इन में से कोई भी तस्वीर नहीं उतारी है.”
इस प्रकार ऑटो पर आते-जाते मुझे धर्म और श्रद्धा के विषय में एक अच्छी-खासी जानकारी हुई जिससे मैं कदाचित उस हद तक परिचित नहीं था. मैं ऐसा नहीं कह रहा कि मैं धार्मिक हो गया हूँ पर इतना जरूर है कि इन मुलाकातों के बाद मेरी धर्म के प्रति कुछ जागरूकता जरूर बढ़ी है.
लेखक अमिताभ यूपी कैडर के आईपीएस अधिकारी हैं और मेरठ में आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा में बतौर पुलिस अधीक्षक पदस्थ हैं.
Comments on “मेरे देवता कैसे हो?”
amitabh sir ye to hakeekat hai ki insaan kisi aik se dil laga leta hai to wahi uska araadhye ban jata hai vo chahe insaan ho ya phir devta.kisi aik se to low lagani hi padti hai.ab jaisa ki ham apko dil se aur sharaddha se pasand karte hain.aur upar wale se apki lambi umar aur sehat ki dua mangte rehte hain.m faisal khan(saharanpur)9412230786
अमिताभ जी,एक धार्मिक व्यक्ति होने से कहीं बेहतर है अध्यात्मिक होना . क्योंकि धर्म किसी इंसान को बहुत सारी अच्छी चीजे सिखाता है तो उसे कट्ठर(डागमेटिक) भी बनाता है . यानी धर्म किसी के जीवन में प्रवेश करता है तो अपने साथ तमाम बुराईया भी लाता है . खुद जिस धर्म में है उसे सर्वश्रेष्ठ मान दूसरे धर्म मानने वालों को हेय दृष्टि से देखना झूठा अहम नहीं तो और क्या है . इस मामले मे पूरे विश्व के धार्मिक व्यक्तियो की सायकोलाजिकल सोच कमोवेश यही है . आए दिन देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों में होने वाले अधिकांश दंगे-फसादो का जड़ धर्म ही है . यही नही मैंने तो सुन रखा है कि पुराने जमाने में चंबल व देश के तमाम बीहड़ो-जंगलों में रहने वाले खुंखार डकैत मां काली की पूजा कर ही लूटपाट व हिंसा करने जाते थे . दरअसल इसके पीछे उनकी आस्था थी कि काली बुरे समय में रक्षा करती है . मेरे गांव में ही मुस्लिम समुदाय के कुछ कसाई हैं जो बकरे को हलाल करने से पहले कथित तौर पर कलमा(कुरान की चंद आयत) पढ़ते हैं . इनका मानना है कि इससे निरीह जीवों की हत्या का पाप नहीं लगेगा . आप ही बताइए इसे क्या कहेंगे . जबकि एक अध्यात्मिक शख्स अपने आस-पास हो रही तमाम गतिविधियों या घटनाओं को संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखता है . वह इन चीजों के प्रति काफी हद तक सकारात्मक होता है और अपनी दुनिया में मस्त रहता है,क्या राजा क्या रंक . पास में लाखों-करोड़ों भी हैं तो कोई हर्ष नहीं,फटेहाली में है पर कोई विषाद नहीं . लिहाजा हम यूं कह सकते हैं कि खुद को गहराई से जानने-पहचानने व परिस्थिति के मुताबिक सर्वश्रेष्ठ आचरण करने का दूसरा नाम ही अध्यात्म है . यदि एक अध्यात्मिक व्यक्ति कोई गलती करना भी चाहे तो उसका अंतर्मन उसे ऐसा करने से रोकता है,वजह है उसकी संवेदनशीलता व अवचेतन रुपी जानकारी . ऐसे लोग विश्व के कोने-कोने में मिल जाएंगे बस नजर दौड़ाने की जरुरत है . क्या इनसे सिख लेकर धर्म से अध्यात्म की तरफ मुड़ने का पहल किया जा सकता है. और,मैं तो इतना भर कहना चाहूंगा कि “बैर कराते मंदिर-मस्जिन मेल कराता अध्यात्म .
amitabh bhaiya aap dharmik nahi hai yah jankar mujhe ghor aaschary huaa ki aap jisa emaandaar sahasi vaykti ko prerana aur aatm bal kaha se milta hoga. vipreet paristithiyo me aap kise yaad karte honge .aap suru se dharmik nahi the ya ab ho gaye hai …..bhaiya aap ka wah lekh us s.p.ko apne kiye par afasos hai. aisa hi kuch titel tha padhkar aap k prati man sardha se bhar gaya .ki aap apni galti bhi swikaar lete hai. aapko apna aadarsh maane wala ek adna sa patrkaar. beeru maurya. mai bhadas4media ka naya kament karta hu .waise mai bas lekh pada karta hu.
Amitabhji aapka auto me baithne ka anubhaw achcha laga. jindagi ke aise anubhawo se judte rahiye. achcha rahega.