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रथी नेताओं के खर्च पर पल-चल रहे पत्रकारों की रिपोर्टिंग उर्फ भांडगिरी

: भांडों के शब्दों का जनता पर कोई असर नहीं होने वाला : मीडियाकर्मियों के चरित्र पर हमेशा चर्चा होती रही है। नेता और अफसर लोग भी मीडियावालों के चाल-चेहरे की आलोचना  करते रहे हैं जिससे कोई खास अंतर पड़ने वाला नहीं। लेकिन दु:खद यह है कि अब आम आदमी भी मीडियाकर्मियों के बारे में नकारात्मक सोचने लगा है। मीडियाकर्मियों ने समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया, तो आम आदमी उनसे घृणा भी करेगा।

<p style="text-align: justify;">: <strong>भांडों के शब्दों का जनता पर कोई असर नहीं होने वाला</strong> : मीडियाकर्मियों के चरित्र पर हमेशा चर्चा होती रही है। नेता और अफसर लोग भी मीडियावालों के चाल-चेहरे की आलोचना  करते रहे हैं जिससे कोई खास अंतर पड़ने वाला नहीं। लेकिन दु:खद यह है कि अब आम आदमी भी मीडियाकर्मियों के बारे में नकारात्मक सोचने लगा है। मीडियाकर्मियों ने समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया, तो आम आदमी उनसे घृणा भी करेगा।</p>

: भांडों के शब्दों का जनता पर कोई असर नहीं होने वाला : मीडियाकर्मियों के चरित्र पर हमेशा चर्चा होती रही है। नेता और अफसर लोग भी मीडियावालों के चाल-चेहरे की आलोचना  करते रहे हैं जिससे कोई खास अंतर पड़ने वाला नहीं। लेकिन दु:खद यह है कि अब आम आदमी भी मीडियाकर्मियों के बारे में नकारात्मक सोचने लगा है। मीडियाकर्मियों ने समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया, तो आम आदमी उनसे घृणा भी करेगा।

और इस तरह देर-सबेर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका स्वत: ही समाप्त हो जायेगी। यह नई बात नहीं है, पर इस समय ध्यान इसलिए आ गयी कि उत्तर प्रदेश में चल रही यात्राओं को लेकर मीडिया कर्मी भांडगीरी करते नजर आ रहे हैं। यह भांड छोटे संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों को निशाना बना कर स्वयं को हरिश्चंद की श्रेणी में रखते रहे हैं, लेकिन छोटे संस्थानों में काम करने वाले कभी इतने गिर कर काम नहीं करते, साथ ही छोटे संस्थानों के पत्रकार सही से खबरें तक लिखना नहीं जानते। वह जो लिखते हैं, उनका लिखा हुआ जनता के पास तक पहुंचता भी नहीं है, जिससे उनके लिखे का सामाजिक स्तर पर कोई असर नहीं होने वाला। छोटे संस्थानों के पत्रकार या मालिक अखबार धंधे के रूप में निकाल रहे हैं और उनकी नजर इसी पर रहती है कि किसी तरह उनकी दाल-रोटी चलती रहे। हालांकि उनकी इस सोच से भी गरिमा गिर रही है, फिर भी वह इतने बड़े दोषी नहीं कहे जा सकते।

उत्तर प्रदेश में  लालकृष्ण आडवाणी, राजनाथ सिंह व अखिलेश यादव की यात्रायें चरम  पर हैं। इन यात्राओं का  उद्देश्य सिर्फ राजनीतिक स्तर पर चर्चा में बने रहना ही है, इससे जनता का परोक्ष या अपरोक्ष कोई लाभ नहीं होने वाला, फिर भी संस्थानों को लगता है कि इन नेताओं की आवाज जनता तक पहुंचना बेहद जरूरी है, तो उन्हें अपने स्तर से इन नेताओं की कवरेज करानी चाहिए, लेकिन यह देख कर दु:ख हो रहा है कि अधिकांश संस्थानों के वरिष्ठ रिपोर्टर नेताओं के खर्च पर नेताओं के साथ ही चल रहे हैं और उनके पक्ष में बड़ी-बड़ी खबरें लिख रहे हैं। यह भांड गीरी नहीं तो और क्या है?, लेकिन इससे भी बड़े दु:ख की बात यह है कि इस भांड गीरी को सम्मान का प्रतीक माना जाता है। यह भांड अपनी फाइल बना कर रखते हैं कि उन्होंने अमुक नेता के साथ कभी भांड गीरी की थी और निंदा करने की बजाये बाकी रिपोर्टर भी उन्हें इसलिए सम्मान देने लगते हैं कि वह किसी खास के लिए भांड गीरी कर चुके हैं। नेताओं या अधिकारियों से संबंध होना अलग बात है, पर उनके लिए भांड बन जाना मेरी समझ से परे है।

भांड गीरी करने वाले यह भूल गये हैं कि उन्होंने  पहले भी जमकर भांड गीरी की थी, जिसका जनता पर विपरीत असर हुआ है और दुष्परिणाम के रूप में उत्तर प्रदेश की जनता मायावती के कुशासन को झेल रही है, क्योंकि आम जनता जान गयी है कि इन भांडों से किसी के बारे में कुछ भी लिखबाया जा सकता है, इसलिए वह अब अखबार में लिखे पर शब्दों पर विश्वास नहीं करती। समझदार जनता पढ़ते समय ही लिखने वाले भांड को गाली देती नजर आती है, लेकिन इन भांडों पर कोई असर होता नहीं दिख रहा। अब जनता के पास  अपनी बात समझाने का यही विकल्प है कि इन भांडों को पकड़े और मुंह काला कर सड़कों पर दौड़ाये, पर यह भांड इतना अच्छा नसीब लेकर पैदा हुए हैं कि जनता की पहुंच इन भांडों तक नहीं है और जनता चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकती। इसलिए इस देश की तरह ही मीडिया का भी भगवान ही मालिक है।

स्वतंत्र पत्रकार बी.पी. गौतम का विश्लेषण

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0 Comments

  1. prashant

    October 16, 2011 at 2:52 pm

    ठीक है, आप अपने जिले के सभासदों की यात्राओं का हाल लिखिये.

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