कभी कोई किसी की कच्ची नींद नहीं तोड़े क्योंकि मेरा अनुभव है कि यदि एक बार इस तरह से नींद टूट जाती है तो जल्दी नींद आने का तो प्रश्न ही नहीं है, अक्सर आदमी या तो उसके बाद बुरे सपनों के बीच हिचकोले लेता रहता है या फिर सचमुच कुछ ऐसा देखने या सुनने को मजबूर हो जाता है जो वह आमतौर पर सुनना नहीं चाहता. मैं यह भूमिका मात्र इसीलिए बना रहा हूँ क्योंकि ऐसा ही कुछ मेरे साथ दो दिन पहले तब हुआ था जब मैं लखनऊ से मेरठ आ रहा था.
दरअसल कुछ सरकारी काम से लखनऊ गया था. साथ ही तीन इन्स्पेक्टर साहब भी गए थे. लखनऊ से मेरठ और मेरठ से लखनऊ वापसी दोनों तरफ सेकण्ड स्लीपर में हम सभी लोगों का इकठ्ठा ही टिकट था. साथ चलने से सबसे बड़ा फायदा यह रहता है कि एक तो एकता का बल और दूसरा सफर आनंद से गपशाप करते कट जाता है. हमारे विभाग में इस तरह के चोंचले बहुत लोग अपनाते हैं कि अधीनस्थ कर्मचारी बराबरी के नहीं होते और उनसे थोडा दूर ही रहना चाहिए. कुछ वैसा ही जैसा हमारे वर्ण व्यवस्था में पहले था जिसके कारण हम अश्पृश्यता जैसे भयानक रोग तक से पीडित हो गए थे. तभी तो इस देश में एक समय सारे काम-काज नीचले वर्ण के लोग करते, सारा अनाज वे अपने श्रम से पैदा करते और समाज का पूरा बोझ अपने कन्धों पर लादे रहते थे पर जब सामजिक मेलजोल का समय आता था तो वे इस योग्य नहीं माने जाते थे कि उनके साथ उठा-बैठा जा सके.
कष्टप्रद किन्तु सत्य है कि आज भी कुछ हद तक इस तरह की परम्पराएं बहुत सारे सरकारी विभागों में देखने को मिल जाती हैं, जिनमे हम किसी से पीछे नहीं है. इस रूप में इन्स्पेक्टर साहबों के साथ सेकण्ड स्लीपर मे यात्रा करना बहुत सहज नहीं माना जायेगा पर चूँकि मैं भी अपनी ही सोच का व्यक्ति हूँ, सो यही सही. तीनों इन्स्पेक्टर साहबों से मुझे यह सुविधा थी कि बातचीत जो किया और समय बिताने में जो सहायता की, वह तो अलग रहा, साथ ही बा-अदब मुस्तैद भी रहे. मैं यात्रा के लिए चादर नहीं ले गया था और वापसी में बारिश अच्छी-खासी हो गयी. मुझे याद नहीं किसने, पर इन तीन साहबों में एक ने मुझे अपना चादर तक चुपके से ओढा दिया, जब उन्होंने मुझे ठण्ड से कुछ सिकुड़ता हुआ देखा.
यह सब तो ठीक था पर जब ट्रेन मुरादाबाद स्टेशन पर रुकी तो वहाँ रेलवे स्टेशन के अनाउंसमेंट से मेरी नींद खुल गयी. फलां गाडी फलां जगह से फलां जगह जायेगी, आएगी, आ रही है, खड़ी है के लगातार बजते तानपुरे से नींद में व्यवधान पड़ गया. मोबाइल देखा तो समय लगभग साढ़े पांच बज रहा था. लेकिन शायद मुझे फिर से नींद आ जाती यदि उसी डिब्बे में चार-पांच पुलिस वाले और नहीं बैठे होते. वो कौन लोग थे, कहाँ जा रहे थे, कहाँ से चढ़े थे यह सब मैं ना तो तब जानता था और ना ही अब जनता हूँ पर यह जरूर है कि उनकी बातचीत का ढंग और उसका स्वर ऐसा था कि मुझे चाह कर भी एक बहुत लंबे समय तक नींद नहीं आ सकी.
जब मैंने पहली बार उनकी बात सुनी उस समय उनमे से एक पुलिस के बड़े हाकिमों को गरिया रहा था. किसी का नाम तो नहीं ले रहा था पर कह यह रहा था कि ये बड़े साहब एकदम बेकार होते हैं. कुछ चुनिन्दा अभद्र शब्दों का प्रयोग करते हुए वह इन लोगों को पुलिस विभाग की सारी बुराईयों के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा था. कह रहा था कि खुद तो दिन भर नेताओं की चमचागिरी करते हैं और नीचे के कर्मचारियों को परेशान किये रहते हैं. केवल अपना हित साधने के चक्कर में लगे रहते हैं, दूसरों के सामने बड़ी-बड़ी बातें करते हैं. उसके आवाज़ में इतना क्षोभ और क्रोध था और वह इतनी हेठी के साथ यह सब खुलेआम कह रहा था कि यकबयक मुझे यकीन नहीं हो पा रहा था कि ये वही सिपाही, हेड कॉन्स्टेबल हैं जो मेरे तथा दूसरे सीनिअर अफसरों के सामने भीगी बिल्ली बने रहते हैं.
मैं सोचने को मजबूर हो गया कि क्या वे लोग वास्तव में कभी भीगी बिल्ली बनते हैं या वह सिर्फ एक अभिनय होता है. फिर इस व्यक्ति की कही गयी बात को एक दूसरे सज्जन तस्तीक कर रहे थे. वे अपने जिले के एसपी का नाम लेकर उनकी तमाम बातों का बखान लेकर बैठ गए और कई प्रकार के उदाहरणों से यह साबित किया कि किस प्रकार इन लोगों की कथनी और करनी में भयानक अंतर होता है. अब एक तीसरे पुलिसवाले की बारी थी. उसने भी उतनी ही मजबूती से अपनी बात कही और पूर्व में बोलने वाले वक्ताओं की बातों का पुरजोर समर्थन किया.
इस बातचीत के क्रम में ना जाने कितनी तरह की बातें सामने आयीं, कितने ही किरदारों का चरित्र-चित्रण और उनके कार्यों का गूढ़ छिद्रान्वेषण हुआ पर सारसंक्षेप सबका एक ही रहा. इसके कुछ देर बाद बातचीत न्यायपालिका की तरफ चली गयी. सब के सब एकस्वर से न्यायपालिका की तारीफ़ करने लगे और न्यायपालिका के प्रति अपनी आस्था को बढचढ कर उल्लिखित करने लगे. एक ने कहा-“इन लोगों को कोर्ट ही ठीक कर सकता है”, तो दूसरे ने जोड़ा-“ हाई कोर्ट से ये बहुत डरते हैं.”. इस पर तीसरा बोला-“ हाई कोर्ट तो बहुत बड़ी बात है, इनके लिए एक मैजिस्ट्रेट ही बहुत होते हैं. उन्ही के सामने इनकी घिग्घी बंध जाती है.” फिर एक ने कहा- “न्यायपालिका ही इस देश को बचा सकती है.”
इसके बाद भी ये लोग बात करते रहे पर मुझे शायद धीरे-धीरे नींद आ गयी. मैं करीब साढ़े आठ बजे तब उठा जब मेरठ से पहले का स्टेशन हापुड आने को था. अपने साथ के इन्स्पेक्टर साहबों से कहा कि इन पुलिसवालों ने सोने नहीं दिया तो वे भी सहमत दिखे. एक बार मन में आया कि इन लोगों से बात की जाए पर सुबह का उनका तेवर देख कर कुछ सहम सा गया कि पता नहीं वे किस तरह से बर्ताव कर बैठें. मैं चुपचाप बैठा रहा. वे सभी लोग हापुड में उतर गए.
इसके करीब आधे घंटे बाद मेरठ आया. वहाँ मैं उतरा तो मेरे इन्स्पेक्टर साहबों ने मेरा सामन उठा लिया. मुझे लेने सरकारी गाडी पहले से खड़ी थी. उस पर से ड्राइवर साहब उतरे और बहुत जोड़दार सैल्यूट किया. मैं एक पल को घबरा सा गया कि कहीं ये वही रात वाले सिपाहियों के बीच से तो नहीं हैं जिनके बीच पुलिस के बड़े अधिकारियों की पोलखोल प्रतियोगिता चल रही थी और जिनके तीखे तेवर और गहरी नाराजगी दूर-दूर तक अपना प्रभाव दिखा रहे थे.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अफसर हैं. यूपी के कई जिलों में पुलिस अधीक्षक रहे. दो वर्ष तक अवकाश लेकर एमबीए किया. इन दिनों मेरठ में आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा के प्रमुख के बतौर पदस्थ हैं. कई अखबारों, मैग्जीनों और पोर्टलों में विभिन्न विषयों पर लेखन.
Comments on “सिपाहियों की भड़ास और अधिकारी की अधजगी नींद”
आपकी जो शैली है ना कमाल की है।
AAPKI NEEND TOOTI BAHUT BURI BAT,KYOKI IS LEKH ME YAH NAHIN DIKHAI DIYA KI APAKI VICHARADHARA KE SAATH AAPKE KARMON KA KOI TARATAMYA BHI HAI ,MAGAR YAH LEKH YADI KISI KI NEEND TOD DIYA TO AAPAKI TOOTI NEEND KA SAHI MUVAVAJAAA MIL JAYEGA ,AUR SAMAJIK BHEDBHAV KO MITANE KI MUHIM APANI MANJIL KI TARAF KUCH AGRASAR HO JAYEGI.
THANKS
DEVENDRA PATEL
FATEHPUR
MO.9415559102
लगा दे जोरों का जयकारा
अमिताभ ठाकुर से हर कोई हारा।
के बोलो तारा रारा।
लेकिन अमिताभ भाई, अपने अधीनस्थों से भयभीत तो उन्हें होना चाहिए जिनमें संवेदना नहीं होती।
फिर आप काहे परेशान होते हैं। अजी मस्त रहिये।
कुमार सौवीर, ब्यूरो प्रमुख, महुआ न्यूज, लखनऊ
sir amitabh thakur hona itna aasan bhi nahi hai .kuchh baat hai ki hasti mit ti nahi hamari sadyon raha hai dushman daure jahan hamara.kuchh to baat aisi hai aapme jo log apki taraf khiche chale aate hain..m faisal khan(saharanpur)
अमिताभ जी, [s]बुरा मत मानियेगा[[/s] मुझे लगता है कि वे वाकई सही कह रहे थे. बुराई ऊपर से ही समाप्त की जा सकती है, नीचे से नहीं. ऊपर साठ सत्तर हजार रुपये कमाने वाला लाखों-करोड़ों की नाजायज कमाई करता है और भाषण देते समय नीचे वालों को गरियाता है. नीचे वाला भी उसकी ही देखा-देखी करता है. रही बात कोर्ट की तो कोई वकील बहुत अच्छी तरह से बतायेगा. लब्बो-लुआब यह कि अमिताभ ठाकुर की तरह आधे भी हो जायें तो व्यवस्था अपने आप चंगी हो जाये… लेकिन किसके अन्दर है दम….