हिन्दी की आलोचना विधा अब ब्लैकमेल का साधन बन गयी है : मुद्रा राक्षस

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शेषजी
इस बार लखनऊ यात्रा दिलचस्प रही. मेरे संपादकजी ने सुझाया कि मुद्राराक्षस से भी मुलाक़ात हो सकती है. 35 साल का बाइस्कोप याद की नज़रों में घूम गया. दिल्ली के श्रीराम सेंटर में 1976 में मैं मुद्राराक्षस को पहली बार देखा था. वे मेकअप में थे. गोगोल का नाटक “इन्स्पेक्टर जनरल” ले कर आये थे. चाटुकार राजनीति और नौकरशाही पर भारी व्यंग्य था. नाम दिया था ‘आला अफसर’.

उन दिनों ‘आला अफसर’ शीर्षक खूब माकूल लग रहा था. इमरजेंसी लग चुकी थी. इंदिरा गाँधी और उस वक़्त के युवराज संजय गांधी का आतंक राजधानी के हर कोने में देखा जा सकता था. लोकतंत्र में लोक के प्रतिनिधि सांसदों का भीगी बिल्ली बनने का प्रोजेक्ट शुरू हो चुका था. नौकरशाही अपनी मनमानी के नए तरीकों पर काम शुरू कर चुकी थी. दिल्ली नगर निगम के कमिश्नर बहादुर राम टमटा, दिल्ली विकास प्राधिकारण के मुखिया जगमोहन और दिल्ली पुलिस में भिंडर नाम के एक पुलिस वाले का आतंक था. सभी आला अफसर थे, मुद्राराक्षस के ‘आला अफसर’ की करतूतें दर्शक वर्ग में बैठे दिल्ली वालों को भोगा हुआ यथार्थ लग रही थीं.

मुराद यह कि ‘आला अफसर’ की याद ऐसी थी जिसको कि भुलाना आसान नहीं है. नौटंकी शैली में पेश की गयी इस प्रस्तुति में मुद्राराक्षस ने ‘चाँद सा एक मुखड़ा पहलू में हो’ वाले गाने की कपाल क्रिया की थी. वह बहुत ही आला थी. मुद्रा जी की ऊंचाई तो दुनिया जानती है, किसी भी पैमाने से उन्हें लम्बा नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके साथ जो बल्लो भाई थे वे छह फीट से भी ज्यादा लम्बे थे. जब दोनों बा आवाज़े बुलंद,  “चाँद सा के मुखड़ा पहलू में हो, इसके आगे हमें नहीं आता है” की टेर लगाते थे तो लगता था कि हर तरह के पल्प साहित्य और संस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोलने का आह्वान किया जा रहा हो.

मुद्रा राक्षस का यह तसव्वुर लेकर मैं अपने संपादक श्री के साथ नाका हिंडोला से रानीगंज चौराहे की तरफ बढ़ा. संपादक जी का जो ड्राइवर उनको पहले लेकर मुद्रा जी के यहाँ आया रहा होगा, आज वह नहीं था. ज़ाहिर है नए ड्राइवर को जगह के बारे में जानकारी नहीं थी. हमारे पास घर का नंबर नहीं था और मोहल्ले का नाम नहीं था. बस संपादक जी की ऊह का पाथेय लेकर हम चल पड़े थे. संपादक जी ने एक ऐसा मोड़ याद कर लिया था जिस पर मुड़ जाने पर मुद्राराक्षस का घर आ जाता है. लेकिन कुछ चूक हो गयी. कोई दूसरा मोड़ ले लिया गया. उसी मोड़ की घुमरी परैया में हम घूमते रहे. संपादक जी की प्रतिभा का मैं लोहा तब मान गया जब दो एक बार परिक्रमा करने के बाद वे आखिर में मुद्रा जी के घर के सामने प्रकट हो गए.

इतनी परेड के बाद मुद्राराक्षस से जो मुलाक़ात हुई वह मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है. करीब एक घंटे हम उनके साथ रहे. बहुत सारे विषयों पर बातें हुईं. आजकल इस्लाम में हदीस के महत्‍व या उस से जुड़े हुए विषयों पर कोई किताब लिखने की योजना पर काम रहे हैं. धर्म की बात शुरू हो गयी तो बताया कि सभी धर्म को मानने वालों के अपने-अपने सम्प्रदाय हैं, सब के ईश्वर हैं, सब का सामाजिक तंत्र है. एक बार उन्होंने सुझाव दिया था कि अनीश्वर वादियों का एक सम्प्रदाय क्यों न बनाया जाए. लेकिन बात इस पर आकर अटक गयी कि वहां भी उस सम्प्रदाय के कर्ताधर्ता द्वारा अपने आपको ईश्वर घोषित कर देने के खतरे बने हुए रहते हैं. प्रभाकर का ज़िक्र आया जो अपने आप को अनीश्वरवादियों का ईश्वर घोषित ही कर चुके थे. उन्होंने कहा कि आम तौर पर धर्म हिंसा की बात ज़रूर करता है. मैंने कहा कि हिन्दू धर्म में तो हिंसा नहीं है. आप ने फट जवाब दिया कि हिन्दू धर्म के मूल में ऋग्वेद है और उसकी कई ऋचाओं में विरोधी को मार डालने की बात कही गयी है. इसलिए धर्म के सहारे शान्ति की उम्मीद करने का को मतलब नहीं है.

मुद्राराक्षस से बात चीत के दौरान साफ़ समझ में आ रहा था कि वे हिन्दी साहित्य और भाषा की मठाधीशी परम्परा से बहुत दुखी हैं. कहने लगे कि यह तो बड़ा अच्छा हुआ कि सुभाष राय

मुद्रा राक्षस
के संपादकत्व में हिन्दी का सही दिशा में कुछ काम हो रहा है. हालांकि यह भी कहते पाए गए कि डर लगता है कि कहीं यह बंद न हो जाए. मुद्राराक्षस इस बात का बहुत बुरा मानते हैं कि आजकल हिन्दी आलोचना को ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. उन्होंने नाम लेकर बताया कि किस तरह से आलोचक शिरोमणि महोदय अपने चेलों को प्रमोट करने के लिए आलोचना का इस्तेमाल करते हैं. शिष्टाचार का तकाज़ा है कि यहाँ इन ब्लैकमेलर जी का नाम न छापा जाए. मुद्राराक्षस को मालूम है कि अपने चेलों को स्थापित करने के लिए प्रकाशकों को धमकाया भी जाता है. हिन्दी की प्रेमचंद वाली पत्रिका के मठाधीश के प्रति तो उनकी वाणी मधुर थी लेकिन चेले पालने की उनकी तन्मयता के बारे में उन्होंने उसी कबीरपंथी ईमानदारी के साथ बात की.

पिछले दिनों हिन्दी पखवाड़े के दौरान लखनऊ के एक सरकारी हिन्दी कार्यक्रम में हुई चर्चा की भी बात हुई. वहां उनको एक सरकारी अफसर टाइप जीव मिल गए थे, जिन्होंने मुद्रा जी को बताया कि वे हिन्दी का पुण्य स्मरण करने के लिए इकट्ठा हुए हैं. जब इस अफसर को याद दिलाया गया कि पुण्य स्मरण को मृत लोगों का किया जाता है तो वे बेचारे अफसर बगले झांकते नज़र आये. मुद्रा जी मानते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में आज हिन्दी की जो दुर्दशा है उसके लिए हिन्दी वालों के साथ-साथ सरकारी अफसरों की हिन्दी नवाजी की लालसा भी बहुत हद तक ज़िम्मेदार है. भाषा के वर्गीकरण के बारे में भी वे दुखी थे. अवधी, ब्रज भाषा और भोजपुरी में लिखे गए हिन्दी के श्रेष्ठतम साहित्य को हिन्दी जगत अपना तो बताता है लेकिन इन भाषाओं को बोली कह कर हिन्दी का बहुत नुकसान करता है. तुलसीदास के रामचरित मानस की बात भी हुई. कहने लगे कि तुलसीदास के दृष्टिकोण से असहमत हुआ जा सकता है लेकिन उनकी काव्य शक्ति का सम्मान तो करना ही पडे़गा. जब मैंने कहा कि विषय की भी अपनी अपील है तो कहने लगे कि उस विषय पर उसी काल में और उसके बाद बहुत कुछ लिखा गया लेकिन किसी को भी वह रुतबा नहीं मिला जो तुलसी की काव्य शक्ति की वजह से उनको मिला है. मुलाक़ात के अंत में मुझे अपनी कुछ किताबें दीं और हम वापस चल पड़े.

लेखक शेष नारायण सिंह वरिष्‍ठ पत्रकार तथा कॉलमिस्‍ट हैं. वे इन दिनों दैनिक अखबार जनसंदेश टाइम्‍स के नेशनल ब्‍यूरोचीफ हैं.

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