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हम पर हुए अत्याचार की याद दिला दी

पायल का लिखा ‘मैंने मां-बाप के डेढ़ लाख रुपये बर्बाद कर दिए‘ और ‘कैरेक्टर पर उंगली उठाओ, लड़की हराओ‘ पढ़ा पर व्यस्तता की वजह से कुछ लिख नहीं पाई, पर आज लिख रही हूं. पायल, तुमने हम पर हुए अत्याचार की याद दिला दी. शाबास पायल, तुमने कम से कम लिखने का हौसला तो दिखाया, वरना न जाने कितनी पायल इस तरह गुमनामी के अंधेरे में खो जाती हैं हर साल और पत्रकारिता के इन नामी गिरामी संस्थानों का कुछ नहीं बिगड़ता है. तमाम दावे किए जाते हैं. लुभावने प्रलोभन दिए जाते हैं.

पायल का लिखा ‘मैंने मां-बाप के डेढ़ लाख रुपये बर्बाद कर दिए‘ और ‘कैरेक्टर पर उंगली उठाओ, लड़की हराओ‘ पढ़ा पर व्यस्तता की वजह से कुछ लिख नहीं पाई, पर आज लिख रही हूं. पायल, तुमने हम पर हुए अत्याचार की याद दिला दी. शाबास पायल, तुमने कम से कम लिखने का हौसला तो दिखाया, वरना न जाने कितनी पायल इस तरह गुमनामी के अंधेरे में खो जाती हैं हर साल और पत्रकारिता के इन नामी गिरामी संस्थानों का कुछ नहीं बिगड़ता है. तमाम दावे किए जाते हैं. लुभावने प्रलोभन दिए जाते हैं.

कई तरह के सब्जबाग बच्चों और उनके माता-पिता को दिखाए जाते हैं. इनको पाने के सपने के पीछे एक दौड़ शुरू होती है. मोटी इंस्टालमेंट और कर्ज के बोझ से दबे मां-बाप और बच्चे यह समझ नहीं पाते कि यह तिलिस्म जब ख़त्म होता है तो बहुत तकलीफदेह हो जाता है. यहां पर मैंने पायल के ऊपर एक टिपणी पढ़ी जिसे किसी पवन नामक सज्जन ने लिखा था.

पढ़ कर काफी देर तक सोच में डूबी रही कि देश के चौथे स्तंभ मे शामिल होने आये लोगों की सोच खबरों और देश के अलावा किसी के व्यक्तिगत पहनावे पर ज्यादा टिकी रहती है. खासकर लड़कियां ही ज्यादा चर्चा का विषय होती हैं. पवन भाई, अगर पायल के पहनावे को तवज्जो न देकर उनके कार्य पर बात करते तो ज्यादा अच्छा लगता. यहां पर मैं एक घटना का उल्लेख जरूर करना चाहती हूं. मैं भी एक नामी गिरामी संस्थान की छात्रा रही हूं. मेरे बैच में सिर्फ 14 लोग हुआ करते थे. दाखिले के दौरान मैंने देखा कि हर आने वाले बच्चे को हर वो प्रलोभन, जिसे वे दे सकते थे, दिया गया, यह अलग बात है कि उसमें से कोई भी वादे पूरे नहीं हो पाए. हर बच्चा वहां पत्रकार बनने नहीं आया था लेकिन जो आये थे, वो बेचारे लगे रहते थे. हर जगह भेद-भाव और दिखावा.

खैर, मैं जो बताना चाहती थी उस पर आती हूं. पढाई ख़त्म होने के बाद जब जॉब प्लेसमेंट की बारी आई तो उन सोकॉल्ड अध्यापकों को यह याद आया कि अरे इन बच्चों को तो कुछ नहीं आता है. मां-बाप से कहा गया कि आप के बच्चे को हम नौकरी नहीं दे सकते क्योंकि उन्हें कुछ नहीं आता. यह सब तब कहा गया जब उनके संस्थान को पूरे दो लाख रुपये दिए जा चुके थे तो ऐसे में आप कुछ कर भी नहीं सकते, सिवाय हाथ मलने के. फिर भी 14 बच्चों के मां-बाप डटे रहे. फैसला हुआ की 14 में से सिर्फ दो को ले सकते हैं. उठापटक चलती रही. लोग परेशान होते रहे क्योंकि उनका सपना जो टूट रहा था.

तभी एक मित्र ने एक एसएमएस किया कि मैं आत्महत्या का कदम उठा लूंगा अगर मुझे नौकरी नहीं मिली तो. उस एसएमएस के कमाल के बदौलत उन्हें नौकरी तो मिल गई. कुछ और को भी ले लिया गया. लेकिन जो नहीं लिए गए उनका उस संस्थान ने मनोबल तोड़ कर रख दिया और एक मित्र बेचारा हाल ही में नौकरी छोड़ कर अपने गांव लौट गया है. यह कहते हुए कि मैंने मां-बाप के रुपये बर्बाद कर दिए. तो यह एक या दो कहानियां नहीं है. पायल ने तो एक सच बोला है और उसके सच मे कई लोगों की आवाज़ शामिल है. जो उन संस्थानों से मिले मानसिक अघात से उबर नहीं पाए हैं.

दूसरा जुल्म यह किया है पायल ने कि उसने लड़की होकर ज़बान खोली है जो मीडिया को अपनी बपौती समझने वालों को बर्दाश्त नहीं है इसलिए उसके चरित्र पर ऊंगली उठा रहे हैं कि वो कैसे कपडे़ पहनती है, क्या करती है. पायल ने ठीक ही कहा है कि दाखिले के समय संस्थानों को अपने दफ्तर के आगे एक बोर्ड लगा देना चाहिए. लेकिन वो ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि उनकी दुकानें जो बंद हो जायेंगी. नौकरी पाने वाले लोग गुणगान शायद इसी तरह करते हैं लेकिन जिनके सपने टूटते हैं उनका दर्द भी समझो भाई. पवन यह आपकी बदकिस्मती है कि आप लड़के हैं. आप को किसी के घर नहीं जाना है, पर पायल के मां-बाप को उसको पढ़ाने के अलावा विदा करने पर भी पैसे खर्चने हैं इसलिए उस पिता के मर्म को समझो?

दुर्भाग्य से अभी भी हमारे देश में लड़कियों की पढ़ाई पर पैसे खर्च करने वालों की तादाद कम है और जो ऐसा करते हैं वो लड़कों और लड़कियों मे कोई भेदभाव नहीं करते हैं लेकिन संस्थानों की मानसिकता ऐसी नहीं है. उन्हें अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है.

यशवंत भाई, आप देखो, नसीहत आप को भी दी जा रही है कि आप लोगो की आवाज़ मत बनो, उन्हें कुचल दो. जैसे यह संस्थान अपनी चारदिवारी में बच्चों के सपनों को कुचलते हैं, वो आप मत करना.

श्वेता रश्मि

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