भाग 17 : मेरठ में दैनिक जागरण के आने से शहर में एक जोश सा आ गया था। वह मेरठ के 13 सांध्य दैनिकों को पीछे छोड़ते हुए तेजी से आगे निकल गया। शहर में जगह-जगह इसके होर्डिंग दिखने लगे। सबसे मजेदार सीन होता भोर में टाउन हॉल में। वहां पूरे शहर के हॉकर इकट्ठा होकर अखबार लेते और अपने-अपने इलाके में बांटने निकल पड़ते। अभी तक केवल दिल्ली के अखबार ही आते थे। उनकी पूरी दादागीरी रहती। लेकिन जागरण उन सबसे ज्यादा बिकने लगा। कई बार धीरेन्द्र मोहन खुद खड़े होकर हॉकरों को अखबार देने का मुआयना करते। वहां मंडी-सी लगी रहती। एक दिन नौनिहाल ने मुझे सुबह-सुबह टाउन हॉल चलने को कहा।
‘कब?’
‘कल।’
‘कितने बजे?’
‘सुबह पांच बजे।’
‘लेकिन गुरू, वहां इतनी सुबह जाकर हम करेंगे क्या? कोई खबर तो वहां मिलने से रही।’
‘यार, तू तो हमेशा खबरों के पीछे ही पड़ा रहता है। वहां जाकर मजेदार सीन देखना। सुबह को कैसे हॉकर अखबार उठाते हैं और फिर साइकिलों पर लादकर अपने-अपने मोहल्लों की ओर रवाना होते हैं और किस तरह हमारी मेहनत से छपे अखबार पाठकों तक पहुंचाते हैं।’
मुझे नौनिहाल का यह प्रस्ताव आकर्षक तो लगा, लेकिन समस्या ये थी कि उन दिनों मेरी दिनचर्या का एक-एक लम्हा बिजी था। मैं सुबह पांच बजे उठता, स्टेडियम में खेलने जाता, सात बजे लौटकर नहाता, एन. ए. एस कॉलेज जाता (तब मैं बी. ए. सेकंड ईयर में पढ़ता था), वहां 11 बजे तक क्लास होती, फिर डिबेट या नाटक की प्रेक्टिस, दो बजे घर जाकर खाना खाता, शहर में कहीं कोई टूर्नामेंट चल रहा होता तो उसकी रिपोर्टिंग करता और तीन बजे जागरण के दफ्तर पहुंचता। वहां से रात नौ-साढ़े नौ बजे नौनिहाल के साथ निकलता। सूरजकुंड के पास स्थित उनके घर जाता। वे मुझे हर रोज लेखन या अनुवाद की कोई नयी बारीकी बताते, जिसके लिए दफ्तर में समय नहीं मिलता था। कभी हम एन. ए. एस. के नाले के पास भगत जी के खोखे में चाय पीते और वहीं से मैं सीधे कोतवाली के पास अपने घर की ओर चला जाता।
…तो दोपहर के आधे-पौने घंटे को छोड़कर मैं सुबह साढ़े पांच से रात दस बजे तक घर के बाहर रहता। जागरण में चार साल की नौकरी के दौरान मेरी कमोबेश यही दिनचर्या रही।
इसलिए मैं इतनी सुबह टाउन हॉल जाने के नौनिहाल के प्रस्ताव पर जरा झिझका। पर उन्होंने वहां का जो खाका खींचा, तो मैं हां किये बिना न रह सका। चलो एक दिन खेलने की ही छुट्टी सही।
अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार मैं बच्चा पार्क के चौराहे पर सुबह पौने पांच बजे पहुंच गया। कुछ ही देर में नौनिहाल आते दिखे। मुझे चाय की तलब लग रही थी। नौनिहाल को बताया, तो वे बोले- टाउन हॉल में एकदम कड़क चाय मिलेगी। वहीं चलकर पी जाये।
पांच मिनट में ही हम टाउन हॉल पहुंच गये। घंटाघर के सामने यह अंग्रजों के जमाने की इमारत थी। इसके एक कोने में टाउन हॉल लाइब्रेरी थी। वहां भी मेरा अड्डा रहता था। पुरानी किताबें पढऩे की मेरी भूख वहीं शांत होती थी। टैगोर, प्रसाद, प्रेमचंद, शरदचंद्र, बंकिम, गोर्की, टॉल्सटॉय, चेखव, दोस्तोयवस्की, ओ हेनरी और मोपांसा को मैंने इसी लायब्रेरी की बदौलत ही पढ़ा था। उसी के सामने की खाली जगह पर सुबह को सारे अखबारों के बंडल बंटते थे। हॉकर वहीं से अखबार लेते थे।
हमने अपनी साइकिलें दीवार के पास लगायीं। हॉकरों की ओर बढ़े। तभी मुझे वहां जागरण के डायरेक्टर धीरेन्द्र मोहन दिखे। दरअसल पहले मेरी नजर उनकी हरे रंग की एनई कार पर पड़ी। मेरठ में उस रंग की वैसी कारें गिनी-चुनी थीं। मुझे लगा कि धीरेन्द्र बाबू यहीं कहीं हैं। और तभी वे मुझे एक कोने नजर आये। सर्कुलेशन विभाग के लोगों के साथ। चूंकि जागरण को बाजार में जमाना था, इसलिए हॉकरों के साथ पूरी मेहनत की जाती थी।
मैंने नौनिहाल को इशारे से बताया कि धीरेन्द्र बाबू उधर खड़े हैं। नौनिहाल के चेहरे पर उभरा कि आना बेकार रहा। पर फिर उन्होंने मुझे दूसरी ओर खींचा। वहां दिल्ली के अखबारों के बंडल बांटे जा रहे थे। उधर धीरेन्द्र बाबू के आने का सवाल ही नहीं था। वहां नौनिहाल को कई परिचित हॉकर मिल गये। उनसे सभी अखबारों का सही-सही सर्कुलेशन पता चल गया। वहीं चाय पी गयी। इतनी कड़क चाय हमने पहले कभी नहीं पी थी। एक रुपये की चाय कांच के गिलास में। नौनिहाल अपनी जेब में चार बिस्कुट भी रखकर लाये थे। चाय के साथ उनके स्वाद के क्या कहने!
वहां खड़े-खड़े अखबार पढऩे का मजा भी कुछ और ही था। और भी कई मजेदार बातों पर नजर पड़ी। हॉकर सभी अखबारों के पहले पेज की खबरें एक नजर डालते ही समझ जाते थे। उन्हें यह भी पता चल जाता था कि कौन सी खबरें बिकाऊ हैं, कौन सी खबरें ठंडी हैं, किस अखबार की आज ज्यादा मांग रहेगी, कौन सा अखबार पिट जायेगा और सबसे बड़ी बात ये कि किस अखबार में किसकी बाईलाइन किसी धांसू खबर पर है। हमें ये जानकर आश्चर्य हुआ कि वे हॉकर ज्यादातर अखबारों में छपी बाईलाइनों के जरिये ही रिपोर्टरों की जानते थे। उनसे कभी रूबरू बेशक न मिले हों, मगर उनके फैन होते थे। अखबारों के सर्कुलेशन वॉर के तो खिलाड़ी ही होते थे।
हम कोई एक घंटा वहां रहे। नौनिहाल को मैंने एक पॉकेट डायरी में कुछ नोट्स लेते हुए देखा। हालांकि उनकी राइटिंग बहुत साफ थी- बिल्कुल छपाई जैसी, पर वे नोट्स इतने छोटे अक्षरों में लेते थे कि उन्हें पढ़ा नहीं जा सकता था।
मुझे कौतूहल हुआ। आखिर माजरा क्या है। मेरे चेहरे के भाव नौनिहाल ने पढ़ लिये।
‘यार, दरअसल एक कहानी लिखनी है अखबारों के सर्कुलेशन वॉर पर। उसके लिए रिसर्च करने ही यहां आया हूं। अकेले आता, तो बात बनती नहीं। इसीलिए तुझे साथ लाया हूं।’
मुझे भी थोड़ा रोमांच हो आया।
‘ये तो बहुत अच्छी बात है। और क्या करना है?’
‘तू कुछ हॉकरों से बात करके यह पता कर कि वे दिन में क्या करते हैं।’
मैंने कई हॉकरों से बात की। अपने काम में मशगूल होने के बावजूद उन्होंने काफी जानकारी दी। मसलन, कई लोग सुबह-सुबह अखबार बांटकर दिन में फुल टाइम जॉब भी करते थे। कुछ की चपरासी की नौकरी थी। कुछ रिक्शा चलाते थे। कुछ सदर बाजार में मजदूरी करते थे। कुछ स्कूली छात्र भी अपनी पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए ये काम करते थे।
ऐसा ही एक लड़का मिला अजीत। अनाथ लड़का। एस. डी. कॉलेज में 11वी क्लास में पढ़ता था। कॉलेज के एक चपरासी के साथ रहने का जुगाड़ उसने कर लिया था। बाद में नौनिहाल ने उसके कॉलेज जाकर उसकी फीस माफ करायी। उसे आगे पढऩे का जोश दिया। बरसों तक वह हमारे संपर्क में रहा। उसने बी. कॉम. किया, तो नौनिहाल के घर मिठाई लेकर आया। अगले साल उसका सलेक्शन पीडब्लूडी में हो गया। नौनिहाल ने ही अखबार में विज्ञापन देकर उसकी शादी करायी। बाद में उसका ट्रांसफर बुलंदशहर हो गया। नौनिहाल के असामयिक निधन के बाद उससे संपर्क टूट गया।
खैर!
तो नौनिहाल ने अखबारों के सर्कुलेशन वॉर पर जो कहानी लिखी, वह ‘कागज के योद्धा’ शीर्षक से कोलकाता (तब कलकत्ता) के ‘सन्मार्ग’ के पूजा दिवाली विशेषांक में छपी। नौनिहाल ने उस अंक के लिए मेरी एक कविता ‘बचपन के दिन’ भी भेज दी थी। वह भी छप गयी।
मुझे अपनी कविता छपने से ज्यादा खुशी इस बात की थी कि वह उसी अंक म़ें छपी थी, जिसमें मेरे गुरू की कहानी छपी थी!
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.