: भाग-38 : दैनिक जागरण के बाद अमर उजाला का भी मेरठ से संस्करण शुरू होने पर मेरठ के पुराने स्थानीय अखबारों का अस्तित्व संकट में पड़ गया था। उस समय मेरठ से दो दर्जन से ज्यादा दैनिक अखबार और करीब 800 साप्ताहिक अखबार पंजीकृत थे। इनमें से ज्यादातर नियमित थे। दैनिकों में प्रभात, मेरठ समाचार, हमारा युग और मयराष्ट्र बिकते भी थे। पर नये माहौल में उनकी बिक्री पर बहुत असर पड़ा। मेरठियों को जागरण और अमर उजाला में अपने आसपास की तमाम खबरें पढऩे को मिलने लगीं।
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नजदीक से किसी वेश्या को देखने की उत्सुकता
: भाग 37 : अल्ला कसम, तुम पहले इंसान हो जिसने मुझे हाथ भी नहीं लगाया, मैं रंडी हूं, पर हराम का नहीं खाती : वह लड़का दो-दो सीढ़ी एक साथ चढ़ रहा था। हम ठंड से ठिठुरे जा रहे थे। उस लड़के के पीछे-पीछे ऊपर सीढिय़ां चढ़ते हुए हमारी नजर नीचे की ओर भी थी और ऊपर की ओर भी। नीचे इसलिए कि किसी जान-पहचान वाले की नजर हम पर ना पड़ जाये। ऊपर इसलिए कि हमें पहली बार नजदीक से किसी वेश्या को देखने की उत्सुकता थी। रोमांच की हद तक !
नौनिहाल बोले- हमें बसंती ही चाहिए
: भाग 36 : नौनिहाल के साथ की गयी खुराफातों की मेरी जितनी यादें हैं, उनमें एक घटना सबसे रोमांचक और आज भी सिहरा देने वाली है। वो जनवरी की एक सर्द सुबह थी, जब नौनिहाल शॉल ओढ़कर और बंदर टोपी पहनकर मेरे घर आये। मुझे आश्चर्य हुआ। किसी अनहोनी की आशंका भी हुई। वरना इतनी सर्दी में सुबह-सुबह आने का भला क्या मकसद हो सकता था? शाम को तो हम दफ्तर में मिलते ही थे रोज। मैंने पूछा, ‘क्या गुरू! सब खैरियत?’
नौनिहाल और मामूली रिक्शे वाले का साला
: भाग 35 : नौनिहाल बहुत भोले स्वभाव के थे। उन्होंने हैंड कंपोजिंग से शुरूआत की थी। बात उन्हीं दिनों की है जब वे जागरण में काम कर रहे थे। जागरण के पत्रकार ही नहीं, दर्जनों हैंड कंपोजिटर भी उनके चेले थे। उन्हें ट्रेडल मशीनों की भी बहुत अच्छी जानकारी थी। कई बार कंपोजिटर या मशीनमैन कहीं फंस जाते।
ये तो मार्क टुली है, बीबीसी वाला!
: भाग-32 : प्रगति मैदान, पुस्तक मेला और हम : दिल्ली के प्रगति मैदान में हर दो साल के बाद विश्व पुस्तक मेला लगता था। उसका अखबारों में और दूरदर्शन पर काफी विज्ञापन आता था। मेरठ से सुबह को दिल्ली के लिए शटल जाती थी, रात को लौटती थी। उसमें ज्यादातर नौकरीपेशा दैनिक यात्री सफर करते थे। रोडवेज की बसें भी चलती थीं। लेकिन आम लोग ट्रेन से सफर करना ही बेहतर समझते थे।
अखबारी जंग पर 20 वर्ष पहले की एक बहस
: भाग 31 : मेरठ में ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ के बीच मुकाबला कड़ा होता जा रहा था। उजाला हालांकि जागरण से दो साल बाद मेरठ में आया था, पर उसने पाठकों से जल्दी रिश्ता बनाया। वो 1980 का दशक था। तब आज की तरह ब्रैंडिंग तो होती नहीं थी। समाचारों पर ही ध्यान दिया जाता था। अखबार एक ही फार्मूले को मानते थे कि अगर खबरें अच्छी हैं, तो पाठक खुश रहेंगे। अपने साथ बने रहेंगे। इसलिए संपादकों की नजरें हमेशा जनरुचि की खबरें तलाशती रहती थीं। तो जागरण और उजाला में सीधी टक्कर खबरों को लेकर ही थी।
माफ करना साहब! तुम जीते, मैं हारा
: भाग 30 : काम की अधिकता के बीच ‘दैनिक जागरण’ में हल्के-फुल्के क्षण भी आते रहते थे। और ऐसे क्षण पैदा करने में नौनिहाल को महारत हासिल थी। वे हमेशा मजाक के मूड में रहते थे। गंभीर चर्चा के बीच भी फुलझडिय़ां छोड़ते रहते थे। अक्सर इसमें सबको मजा आता। लेकिन कभी-कभी लेने के देने पड़ जाते।
ये नाम और ना-उम्मीदी
: भाग 29 : आफिस में नौनिहाल के कुछ दुश्मन भी बनने लगे थे : रह-रह कर नौनिहाल के बड़े बेटे मधुरेश की बात याद आ रही है- इतने दोस्त थे पापा के, कितनों ने सुध ली? पुष्पेन्द्र शर्मा, नीरजकांत राही, ओमकार चौधरी, विश्वेश्वर कुमार, राजबीर चौधरी, कौशल किशोर सक्सेना, सूर्यकांत द्विवेदी।
‘इतने दोस्त थे पापा के, कितनों ने सुध ली?’
: भाग 28 : दिवाली के बाद पहली बार छुट्टी लेकर मेरठ आया हूं। अपने पापा को देखने के लिए। उनकी तबियत जरा खराब चल रही थी। चैकअप में चिन्ता की कोई बात नहीं मिली। सुकून मिला। फिर मैं चल पड़ा नौनिहाल के घर की ओर। दिसंबर में सुधा भाभी को पैरेलिटिक अटैक होने के बाद उनके बच्चों से फोन पर बात होती रही थी। दो बार भाभीजी से भी बात हुई थी। फोन पर उन्होंने पहचान लिया था। मुझे लगा था कि वे बहुत ठीक हो चुकी हैं।
बच्चू, अभी तू आदर्शवाद से ऊपर नहीं उठा
: भाग 27 : ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ ने मेरठ की पत्रकारिता का परिदृश्य ही बदल दिया था। पहली बार मेरठ के पाठकों को अपने शहर और उसके आसपास की खबरें इतने विस्तार से पढऩे को मिलीं। अपने बीच की हस्तियों का पता चला, जिनके बारे में दिल्ली के अखबारों में कुछ नहीं छपता था। मेरठियों को इन अखबारों की आदत पड़ गयी। इससे इन अखबारों का सर्कुलेशन तेजी से बढ़ा।
जागरण, अमर उजाला और मेरठ के दंगे
: भाग 26 : 1980 के दशक में मेरठ हमेशा बारूद के ढेर पर बैठा रहता था। हरदम दंगों की आशंका रहती थी। गुजरी बाजार, शाहघासा, इस्लामाबाद, शाहपीर गेट, मछलीवालान और भुमिया का पुल बहुत संवेदनशील स्थान थे। हिन्दू-मुस्लिम समुदाय यों तो शहर में एक-दूसरे के पूरक थे- एक के बिना दूसरे का काम नहीं चलता था- मगर सियासी चालबाजों को उनकी गलबहियां नहीं भाती थीं। ये दोनों समुदाय वोट बैंक थे।
खबर बनाते हुए सुनाने की आदत
: भाग 25 : पलाश दादा अपनी प्रखरता से जल्द ही पूरे संपादकीय विभाग पर छा गये। उनकी कई खूबियां थीं। पढ़ते बहुत थे। जन सरोकारों से उद्वेलित रहते थे। जुनूनी थे। सिस्टम से भिडऩे को हमेशा तैयार रहते। शोषितों-वंचितों की खबरों पर उनकी भरपूर नजर रहती। उनके अंग्रेजी ज्ञान से नये पत्रकार बहुत आतंकित रहते थे। बोऊदी (सविता भाभी) की शिकायत रहती कि उनकी तनखा का एक बड़ा हिस्सा अखबारों-पत्रिकाओं-किताबों पर ही खर्च हो जाता है। पलाश दा के संघर्ष के दिन थे वे। नया शहर, नया परिवेश, मामूली तनखा और ढेर सारा काम। पर उन्होंने कभी काम से जी नहीं चुराया। वे पहले पेज के इंचार्ज हुआ करते थे। उनके साथ नरनारायण गोयल, राकेश कुमार और सुनील पांडे काम करते थे। इनमें से कोई एक डे शिफ्ट में होता। वह अंदर का देश-विदेश का पेज देखता। उनके साथ होता कोई नया उपसंपादक।
आरु तन्ग पदक्कम वेल्लुवदर्कु नन्द्री…
: भाग 24 : मेरठ में अखिल भारतीय ग्रामीण स्कूली खेल हुए, तो मेरे लिए वह मेरठ में सबसे बड़ा खेल आयोजन था। एक हफ्ते चले इन खेलों की मैंने जबरदस्त रिपोर्टिंग की। मैं सुबह आठ बजे स्टेडियम पहुंच जाता। चार बजे तक वहां रहकर रिपोर्टिंग करता। वहां से दफ्तर जाकर पहले दूसरे खेलों की खबरें बनाता। फिर मेरठ की खबरें। सात बजे तक यह काम पूरा करके फिर स्टेडियम जाता। लेटेस्ट रिपोर्ट लेकर आठ बजे दफ्तर लौटता। इन खेलों की खबरें अपडेट करता। पेज बनवाकर रात 11 बजे घर पहुंचता।
तब ‘नकली खुशखबरें’ नहीं परोसी जाती थीं
भाग 23 : जागरण मेरठ के प्रभारी मंगल जायसवाल ने एक दिन संपादकीय विभाग की बैठक में खोज-खबरें लाने पर जोर दिया। वे कई मिनट तक कहते रहे कि ऐसी खबरों से अखबार पाठकों के दिल से जुड़ता है। रिपोर्टर का भी नाम होता है।
नरममिजाजी से भी अनुशासन संभव
भाग 22 : मेरठ में जागरण ने शुरू में औपचारिक फीचर छापकर पाठकों को लुभाया। मेरठ के तमाम दरवाजों और अलियों-गलियों का इतिहास, प्रमुख हस्तियां और दर्शनीय स्थल पढ़कर मेरठ वालों को पहली बार कई ऐसी चीजें पढऩे को मिलीं, जिनके बारे में उन्होंने अभी तक सुना ही था। यह सब सामग्री तैयार की थी वेद अग्रवाल ने। वे मेरठ के काफी वरिष्ठ पत्रकार थे। ‘स्वतंत्र भारत’, ‘अमृत प्रभात’ और ‘आज’ जैसे अखबारों से जुड़े हुए थे। ‘नवभारत टाइम्स’ में जाने की उन्होंने भरपूर कोशिश की थी।
चीफ रिपोर्टर के पद पर कई जोड़ी नजरें थीं
भाग 21 : मेरठ में जागरण के पहले छह महीने जमकर काम करने और अखबार को जमाने के रहे थे। लेकिन उसके बाद स्टाफ बढ़ा। अखबार का दायरा और रुतबा बढ़ा। इसके साथ ही बढ़े तनाव और मतभेद भी। काम का श्रेय लेने, दूसरों को डाउन करने और अपना पौवा फिट करने के दंद-फंद उभरे। भगवतजी सख्त प्रशासक थे। सबको काम में झोंके रखते थे। किसी को फालतू बात करने के लिए एंटरटेन नहीं करते थे। जो कह दिया, कह दिया। फिर उस पर कोई बहस नहीं। मंगलजी में सख्ती नहीं थी। उनका मिजाज अफसरी वाला भी नहीं था।
मंगलजी आए, भगवतजी लौट गए
भाग 20 : लास एंजेलिस ओलंपिक खेलों की शानदार कवरेज के बाद मुझे भगवतजी के साथ ही धीरेन्द्र मोहनजी से भी काफी शाबाशी मिली थी। हालांकि इसके सही हकदार नौनिहाल थे। आखिर देर रात तक समाचार लेने का आइडिया उन्हीं का था। इससे अखबार को भी फायदा हुआ। अभी तक दिल्ली से मेरठ आने वाले अखबारों के एजेंट यही प्रचार कर रहे थे कि जागरण में लोकल खबरें जरूर भरपूर मिल रही हों, पर देश-विदेश की खबरों में यह दिल्ली के अखबारों का मुकाबला नहीं कर सकता। ओलंपिक कवरेज ने उनका यह दावा झठा साबित कर दिया।
तुम कल के छोकरे मुझे काम दोगे?
भाग 19 : साल 1984 में लास एंजेलिस ओलंपिक खेल हुए। ये तब तक के सबसे बड़े और भव्य ओलंपिक खेल थे। मैं इनके कवरेज के लिए कई महीने से तैयारी कर रहा था। रेकॉड्र्स और खिलाडिय़ों व टीमों की खूब जानकारी जुटायी थी। भगवत जी ने ओलंपिक के दौरान खेल के लिए दो पेज दे दिये थे। जागरण के कानपुर संस्करण से प्रेमनाथ वाजपेयी मेरठ भेजे गये थे ओलंपिक कवरेज के लिए, क्योंकि मैं खेल डेस्क पर अकेला ही था।
‘मैं भाग्य को भी मानता हूं, कर्म को भी’
भाग 18 : एक दिन नौनिहाल को एडवेंचर सूझा। उस दिन वे खासे अच्छे मूड में थे।
‘बोर हो रहा हूं यार। कहीं घूम आया जाये।’
‘चलो। कहां जाना है?’
‘भोले की झाल पर चलते हैं।’
टाउनहाल घंटाघर सुबह हाकर चाय अखबार नौनिहाल
भाग 17 : मेरठ में दैनिक जागरण के आने से शहर में एक जोश सा आ गया था। वह मेरठ के 13 सांध्य दैनिकों को पीछे छोड़ते हुए तेजी से आगे निकल गया। शहर में जगह-जगह इसके होर्डिंग दिखने लगे। सबसे मजेदार सीन होता भोर में टाउन हॉल में। वहां पूरे शहर के हॉकर इकट्ठा होकर अखबार लेते और अपने-अपने इलाके में बांटने निकल पड़ते। अभी तक केवल दिल्ली के अखबार ही आते थे। उनकी पूरी दादागीरी रहती। लेकिन जागरण उन सबसे ज्यादा बिकने लगा। कई बार धीरेन्द्र मोहन खुद खड़े होकर हॉकरों को अखबार देने का मुआयना करते। वहां मंडी-सी लगी रहती। एक दिन नौनिहाल ने मुझे सुबह-सुबह टाउन हॉल चलने को कहा।
जो जिसे खास समझता, वही जासूस निकलता
भाग 16 : दैनिक जागरण, मेरठ की शुरूआती टीम में अनुभव और युवापन का बेहतरीन मिश्रण था। भगतवशरण जी खुद खबरें बहुत अच्छी लिखते थे। लेकिन उन्हें अपने हाथ से लिखने की आदत नहीं थी। जब उन्हें कोई खबर लिखनी होती या री-राइट करनी होती, तो वे नरनारायण गोयल को आवाज देते…. ‘नरनारायणजी, जरा आइये’। गोयल जी कहते- ‘आता हूं भगवत जी। कहिए।’
गोल मार्केट में इमरती-समोसा-चाय के साथ जश्न
[caption id="attachment_17299" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 15 : दैनिक जागरण, मेरठ में काम करते हुए मुझे एक सप्ताह ही हुआ था कि एक दिन बहुत बड़ी खबर आयी। तीन जून, 1984 को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ब्लू स्टार ऑपरेशन हुआ। एजेंसी से खबर मिली, तो संपादकीय विभाग में चहल-पहल मच गयी। तब आज की तरह खबरिया चैनलों का जमावड़ा तो था नहीं। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ केवल रेडियो या न्यूज एजेंसी से मिलती थीं। इसलिए जब ये खबर आयी, तो जागरण में मौजूद पत्रकार खासे उत्तेजित हो गये।
नौकरी में एडजस्टमेंट करना पड़ता है दोस्त!
[caption id="attachment_17261" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 14 : 26 मई, 1984 से मैंने दैनिक जागरण, मेरठ में काम शुरू कर दिया। पहले दिन खेल की कोई बड़ी खबर नहीं थी। इसलिए इंगलिश काउंटी क्रिकेट की खबर को मैंने खेल पेज की लीड बनाया। भगवत जी ने मुझे लोकल खेलों की भी रिपोर्टिंग करने का काम सौंपा। अब मेहनत और बढ़ गयी। दिन में रिपोर्टिंग और शाम 3 बजे से रात 10 बजे तक दफ्तर में काम। मैंने पहले कभी खबरों के एजेंसी के तारों की छंटाई नहीं की थी। इसमें मुझे बहुत समय लगता था। इसके लिए भी मैं नौनिहाल की शरण में गया।
धीरेंद्र मोहन बोले- बांड भरो, रख लेंगे
[caption id="attachment_17237" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 13 : अगले दिन मैं नौनिहाल से आशीर्वाद लेकर ‘दैनिक जागरण’ जॉयन करने पहुंचा। दिल बल्लियों उछल रहा था। जाकर भगवतशरण जी को नमस्कार किया। उन्होंने कमलेश अवस्थी से मिलने को कहा। वे प्रोडक्शन से लेकर पर्सनल तक बहुत कुछ देखते थे। उनकी नाक चढ़ी रहती थी। उन्होंने एप्लीकेशन मांगी। मैंने लिखकर दे दी। वे भड़क गये।
गुरु ने ओके किया तो गया जागरण
[caption id="attachment_17159" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 12 : एक दिन मैं नौनिहाल के साथ बच्चा पार्क में बैठा था। अब तो इस पार्क को तोड़कर सड़क बना दी गयी है। इधर-उधर की गपशप के दौरान मैंने नौनिहाल से कहा, ‘गुरू, मेरठ समाचार में साहित्य नहीं छपता। इसके लिए भी जगह होनी चाहिए।’ वे बोले- ‘हां, मैंने इसके लिए योजना बनायी है। कुछ स्थानीय लेखकों से रचनाएं मंगायी हैं। तू भी अपने लेखक दोस्तों से कहानी-कविता भेजने को बोल दे।’ अगले हफ्ते से अखबार में साहित्य भी शुरू हो गया। खुद नौनिहाल की भी कई रचनाएं छपीं। इनमें उनके व्यंग्य लेख बहुत पसंद किये गये। तीन हफ्ते बाद नौनिहाल ने मुझे कुछ किताबें और पत्रिकाएं दीं। बोले, ‘इनकी समीक्षा लिख डाल।’
सबसे ज्यादा अखबार मेरठ से निकलते हैं!
[caption id="attachment_17121" align="alignleft" width="71"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 11 : क्राइम व जनरल रिपोर्टिंग के बाद नौनिहाल ने मुझे खेल की रिपोर्टिंग करने को भी कहा था, क्योंकि उस समय मेरठ में प्रभात, मेरठ समाचार, हमारा युग और मयराष्ट्र जैसे दैनिक अखबार निकलते थे। जागरण और अमर उजाला तब तक वहां नहीं आए थे। नौनिहाल ने एक दिन बताया कि भारत में सबसे ज्यादा अखबार मेरठ से निकलते हैं।
माईसेल्फ नरनारायण स्वरूप गोयल…
[caption id="attachment_17043" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 10 : जन समस्याओं वाले कॉलम ने मुझे जबरदस्त पहचान दी थी। अब मेरठ के हर क्षेत्र के लोगों से मेरी पहचान हो गयी थी। हर तरफ से सहयोग मिल रहा था। खबरों के लिए नये-नये स्रोत बन रहे थे। … और इस सब के लिए सबसे ज्यादा श्रेय जाता था नौनिहाल को। वे हमेशा मुझे स्रोत बनाने के लिए प्रेरित करते रहते थे। कई पत्रकारों से भी मुझे उन्होंने ही मिलवाया था। एक दिन मैं ‘मेरठ समाचार’ के दफ्तर में गया, तो वहां एक कुर्सी पर एक बहुत प्रभावशाली सज्जन बैठे थे। नौनिहाल ने उनकी तरफ इशारा करते हुए मुझसे कहा- ये बहुत नफीस किस्म के पत्रकार हैं। इनसे परिचय करके आओ। मैं उनके सामने पहुंचा। उन्होंने क्रीम कलर का सफारी सूट पहन रखा था। आंखों पर धूप का चश्मा। क्लीन शेव्ड। बड़ी तन्मयता से खबर लिख रहे थे। अभी तक मैंने इस हुलिये का एक ही पत्रकार मेरठ में देखा था- सतीश शर्मा। वे नवभारत टाइम्स और आकाशवाणी के लिए खबरें भेजते थे।
तेरे कूचे में आये हैं पानी तो पिला दे जालिम
[caption id="attachment_17006" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 9 : 1 दिसम्बर, 1983 को नौनिहाल ने बेगम पुल पर आबू लेन के नाले के पास मुझे सर्दी से ठिठुरते हुए मेरठ की जन समस्याओं पर कॉलम शुरू करने को कहा था। मजे की बात ये है कि ‘मेरठ समाचार’ में वे महज एक उप संपादक थे। फिर भी अखबार के संपादक और मालिक राजेन्द्र अग्रवाल ने उन्हें अखबार की सामग्री के बारे में हर फैसला करने की छूट दे रखी थी। तो मैं ठीक 48 घंटे बाद पहली किस्त लिखकर उनके पास पहुंच गया। यानी तीन दिसंबर, 1983 को। यह किस्त मेरठ की आवास समस्या पर थी। नौनिहाल ने पढ़ा। कई बार पढ़ा। उसमें काफी करेक्शन किये। हैडिंग दिया- ‘मेरठ में आवास समस्या का निदान संभव’
ज्यामितीय संतुलन, छिली कोहनियां और जन समस्याएं
[caption id="attachment_16983" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 8 : अब मैं ‘मेरठ समाचार’ में क्राइम और खेल बीट कवर कर रहा था। बी.ए. की पढ़ाई भी साथ होने के कारण यह सब करने में समय और श्रम तो बहुत लगता, पर नौनिहाल हमेशा मेरा उत्साह बढ़ाते रहते। मैं जो भी खबर लाता, वे कई बार तो उसे पूरी री-राइट करते। इस तरह उन्होंने मुझे इंट्रो, बॉडी मैटर, हैडिंग, क्रॉसर, शोल्डर और हाईलाइट्स का भरपूर अभ्यास करा दिया। फोटो कैप्शन लिखना भी उनसे ही सीखा। उनका कहना था कि हर फोटो में मुकम्मल खबर रहती है। कैप्शन में वो खबर बयान कर दी जानी चाहिए। पेज का ले-आउट नौनिहाल ने कागज पर डमी बनाकर सिखाया। मूल रूप से विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण मुझे इस काम में बहुत मजा आता। नौनिहाल ने बताया कि सबसे सुंदर ले-आउट वो होता है, जिसमें पेज का हर हिस्सा ज्यामितीय रूप से संतुलित हो। उनके इस गुरु-मंत्र का मैं आज तक पालन कर रहा हूं।
क्राइम रिपोर्टिंग को कोई गंभीर पत्रकारिता नहीं मानता
[caption id="attachment_16921" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]भाग 7 : धीरे-धीरे मेरठ में क्राइम रिपोर्टर के रूप में मेरी पहचान बनने लगी। मेरी वो स्टोरी, जिसे नौनिहाल ने ‘ब्रेकिंग’ और ‘इम्पैक्ट’ खबर बना दिया था, काफी चर्चित हुई। इसके बाद हर थाने से मुझे ऐसी खबरें मिलने लगीं। अब नौनिहाल ने मुझे मेरठ के दो दिग्गज क्राइम रिपोर्टरों के टच में रहने को कहा। वे तब अनिल-सुधीर के नाम से सत्यकथाएं लिखा करते थे। अनिल बंसल बाद में ‘जनसत्ता’ में चले गये। पहले मेरठ में ही। फिर दिल्ली में। जबरदस्त लिक्खाड़। जितनी देर में हम दो समोसे और चाय की प्याली खत्म करते, उतनी देर में उनकी दो खबरें तैयार हो जातीं। हमेशा एक छोटा ब्रीफकेस साथ रखते। उसी पर कागज रखकर वे चौराहे पर खड़े-खड़े ही खबर लिख डालते थे। सुधीर पंडित के पुलिस में गहरे कांटेक्ट थे। वे अंदर की खबरें निकालने में माहिर थे। बाद में वे पत्रकारिता छोड़कर ऐड एजेंसी चलाने लगे। मेरठ का यह धांसू पत्रकार अगर आज किसी चैनल में होता, तो उस चैनल की टीआरपी को सबसे ऊपर रखने की गारंटी होती।
ये हमारा नया क्राइम रिपोर्टर है
[caption id="attachment_16897" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]पार्ट 6 : मैं ‘मेरठ समाचार’ में क्राइम रिपोर्टिंग करने लगा। पहला सवाल था- ‘समाचार कैसे लाया जाये?’ इस शंका का समाधान किया खुद नौनिहाल ने- ‘एसपी शहर और एसपी देहात के दफ्तर में रोज सुबह 11 बजे पिछले 24 घंटों में पूरे जिले के थानों में दर्ज हुए अपराधों की प्रेस विज्ञप्तियां बनती हैं। वे विज्ञप्ति वहां जाकर रोज लो। उनमें से समाचार बनेंगे। लेकिन विज्ञप्ति में धाराओं के अनुसार घटनाएं होती हैं। गंभीर धाराओं वाली घटनाओं को ही इनमें शामिल किया जाता है।’
मेरी जिज्ञासाएं, मूंगफली का झब्बा और नौनिहाल का गाना
[caption id="attachment_16852" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]पार्ट 5 : अब नौनिहाल के साथ ‘मेरठ समाचार’ में काम करते हुए मुझे कई महीने हो गये थे। उनके साथ रोज नये अनुभव मिलते थे। लेकिन मुझे कभी उनके निजी जीवन के बारे में पूछने का साहस नहीं हुआ था। एक दिन हम काम खत्म होने के बाद जिमखाना मैदान में एक क्रिकेट मैच देखने गये। वह रमेश सोमाल मैमोरियल टूर्नामेंट का फाइनल था। मुझे मनोज प्रभाकर की गेंदबाजी देखने का आकर्षण था। मैदान की दीवार पर बैठकर हम मूंगफली टूंगते हुए मैच देख रहे थे। अचानक नौनिहाल कुछ गुनगुनाने लगे। मैंने जरा ध्यान से सुनने की कोशिश की।
पुराने चटोरे लगते हैं, आते रहिए
[caption id="attachment_16791" align="alignleft"]स्व. नौनिहाल शर्मा[/caption]पार्ट 4 : मेरी दिनचर्या में नौनिहाल के साथ के लम्हे बेहद जरूरी और शिक्षाप्रद होते जा रहे थे। यहां तक कि अपने दोस्तों को भी अब मैं ज्यादा वक्त नहीं दे पाता था। ये 1983 की बात है। मैं उनसे रोज नयी चीजें सीखता। वे मुझे एकदम दोस्ताना अंदाज में सिखाते थे। मेरी हर जिज्ञासा और शंका का समाधान करते। उन्हें मैंने कभी झुंझलाते नहीं देखा। चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती। आंखों में चमक। हर नयी चीज खुद भी जानने को उतावले रहते और दूसरों को बताने को भी। लेकिन जब उन्हें गुस्सा आता था, तब वे किसी की नहीं सुनते थे। आपे से बाहर हो जाते थे। गुस्सा आता किसी वाजिब वजह से ही। फिर उनका रौद्र रूप रामलीला के परशुराम की याद दिला देता। जब उन्हें गुस्से आता, तो उनकी बात आंख बंद करके माननी ही पड़ती थी। नहीं तो वे रूठ जाते। कटे-कटे से रहते। फिर सामने वाले को अपनी गलती समझ में आती। वह गलती कबूल करता। और नौनिहाल का चेहरा फिर खिलखिला उठता। ‘कट्टी’ खत्म होने का यह जश्न खास चाय के साथ मनाया जाता।
होठों को पढ़ते थे मेरे गुरु नौनिहाल
[caption id="attachment_16665" align="alignleft"]नौनिहाल शर्मा[/caption]पार्ट 3 : नौनिहाल के प्रताप से अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़कर मैंने एन.ए.एस. कॉलेज में बी.ए. में एडमिशन ले लिया। ‘मेरठ समाचार’ में बिना तनखा का रिपोर्टर बन गया। सुबह 7 से 11 बजे तक कॉलेज लगता था। वहां से मैं साइकिल से ‘मेरठ समाचार’ के दफ्तर जाता। तीन बजे एडिशन निकलने तक नौनिहाल की शागिर्दी में पत्रकारिता के नए-नए रंगों से परिचित होता। सबसे पहले उन्होंने मुझे प्रेस विज्ञप्तियों से खबर बनाना सिखाया। यह बताया कि प्रचार की सामग्री में से भी किस तरह खबर निकाली जा सकती है। विज्ञप्ति पर हैडिंग लगाकर ही छपने को नहीं भेज देना चाहिए। हर विज्ञप्ति को कम से कम एक महीने तक संभालकर रखना चाहिए। कभी-कभी वही व्यक्ति या संस्थान कुछ दिन बाद दूसरी विज्ञप्ति भेजकर पहली की विरोधाभासी सामग्री देता है। तब पिछली विज्ञप्ति का हवाला देकर बढिय़ा खबर बन सकती है। .. और नौनिहाल के मार्गदर्शन में मुझे ऐसी खबरें बनाने के कई मौके मिले। मेरठ के एक नेता थे मंजूर अहमद। विधायक भी रहे थे। उनकी दो विज्ञप्तियों के विरोधाभास पर मेरी बाईलाइन खबर नौनिहाल ने पहले पेज पर छाप दी। अगले दिन मंजूर अहमद अपने लाव-लश्कर के साथ अखबार के दफ्तर में आ गए। मालिक-संपादक राजेन्द्र गोयल (बाबूजी) से बोले, ‘ये क्या छापा है? हमारी हैसियत का कुछ ख्याल है या नहीं?’