: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (एक) : ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ गाते-बजाते लोक कवि अपने गांव से एक कम्युनिस्ट नेता के साथ जब सीधे लखनऊ पहुंचे तो उन्हें यह बिलकुल आभास नहीं था कि सफलता और प्रसिद्धि की कई-कई सीढ़ियां उनकी प्रतीक्षा में खड़ी हैं।
वह तो बस किसी तरह दो जून की रोटी की लालसा में थे। संघर्ष करते-करते यह दो जून की लालसा कैसे और कब यश की लालसा में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला। हां, यश और प्रसिद्धि के बाद यह लालसा कब धन वृक्ष की लालसा में तब्दील हुई, इसकी तफसील जरूर उनके पास है। बल्कि इस तफसील ने ही इन दिनों उन्हें तंग क्या, हैरान कर रखा है। गांव में नौटंकी, बिदेसिया देख-देख नकल उतारने की लत उन्हें कब कलाकार बना गई, इसकी भी तफसील उनके पास है। इस कलाकार बनने के संघर्ष की तफसील भी उनके पास जरा ज्यादा शिद्दत से है। पहले तो वह सिर्फ नौटंकी देख-देख उसकी नकल पेश कर लोगों का मनोरंजन करते। फिर वह गाना भी गाने लगे। कंहरवा गाना सुनते। धोबिया नाच, चमरऊवा नाच भी वह देखते। इसका ज्यादा असर पड़ता उन पर। कंहरवा धुन का सबसे ज्यादा। वह इसकी भी नकल करते।
नकल उतारते-उतारते वह लगभग पैरोडी पर आ गए। जैसे नौटंकी में नाटक की किसी कथावस्तु को गायकी के मार्फत आगे बढ़ाया जाता ठीक उसी तर्ज पर लोक कवि गांव की कोई समस्या उठाते और उस गाने में उसे फिट कर गाते। अब उनके हाथ में बजाने के लिए एक खंजड़ी कहिए कि ढपली भी आ गई थी। जबकि पहले वह थाली या गगरा बजाते थे। पर अब खजड़ी। फिर तो धीरे-धीरे उनके गानों की हदें गांव की सरहद लांघ कर जवार और जिले की समस्याएं छूने लगीं। इस फेर में कई बार वह फजीहत के फेज से भी गुजरे।
कुछ सामंती जमीदार टाइप के लोग भी जब उनके गानों में आने लगे और जाहिर है इन गानों में लोक कवि इन सामंतों के अत्याचार की ही गाथा गूंथते थे जो उन्हें नागवार गुजरता। सो लोक कवि की पिटाई-कुटाई भी वह लोग किसी न किसी बहाने जब-तब करवा देते। लेकिन लोक कवि की हिम्मत इस सबसे नहीं टूटती। उलटे उनका हौंसला बढ़ता। नतीजतन जिला जवार में अब लोक कवि और उनकी कविताई चर्चा का विषय बनने लगी। इस चर्चा के साथ ही वह अब जवान भी होने लगे। शादी ब्याह भी उनका हो गया। बाकी रोजी रोजगार का कुछ जुगाड़ नहीं हुआ उनका। जाति से वह पिछड़ी जाति के भर थे। कोई ज्यादा जमीन जायदाद थी नहीं। पढ़ाई-लिखाई आठवीं तक भी ठीक से नहीं हो पाई थी। तो वह करते भी तो क्या करते? कविताई से चर्चा और वाहवाही तो मिलती थी, कभी कभार पिटाई, बेइज्जती भी हो जाती लेकिन रोजगार फिर भी नहीं मिलता था। कुर्ता पायजामा तक की मुश्किल हो जाती। कई बार फटहा पहन कर घूमना पड़ता। कि तभी लोक कवि के भाग से छींका टूटा।
विधान सभा चुनाव का ऐलान हो गया। एक स्थानीय कम्युनिस्ट नेता-विधायक फिर चुनाव में उतरे। इस चुनाव में उन्होंने लोक कवि की भी सेवाएं लीं। उनको कुर्ता पायजामा भी मिल गया। लोक कवि जवार की समस्याएं भी जानते थे, और वहां की धड़कन भी। उनके गाने वैसे भी पीड़ितों और सताए जा रहे लोगों के सत्य के ज्यादा करीब होते थे। सो कम्युनिस्ट पार्टी की जीप में उन के गाने ऐसे लहके कि बस मत पूछिए। यह वह जमाना था जब चुनाव प्रचार में जीप और लाउडस्पीकर ही सबसे बड़ा प्रचार माध्यम था। कैसेट वगैरह तो तब तक देश ने देखा ही नहीं था। सो लोक कवि जीप में बैठ कर गाते घूमते। मंच पर भी सभाओं में गाते।
कुछ उस कम्युनिस्ट नेता की अपनी जमीन तो कुछ लोक कवि के गानों का प्रभाव, नेता जी फिर चुनाव जीत गए। वह चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश की विधानसभा में चुन कर लखनऊ आ गए तो भी लोक कवि को भूले नहीं। साथ ही लोक कवि को भी लखनऊ खींच लाए। अब लखनऊ लोक कवि के लिए नई जमीन थी। अपरिचित और अनजानी। चौतरफा संघर्ष उनकी राह देख रहा था। जीवन का संघर्ष, रोटी दाल का संघर्ष, और इस खाने-पहनने, रहने के संघर्ष से भी ज्यादा बड़ा संघर्ष था उनके गाने का संघर्ष। अवध की सरजमीं लखनऊ जहां अवधी का बोलबाला था वहां लोक कवि की भोजपुरी भहरा जाती। तो भी उनका जुनून कायम रहता। वह लगे रहते और गली-गली, मुहल्ला-मुहल्ला छानते रहते। जहां चार लोग मिल जाते वहां ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गुहार कर कोई कंहरवा सुनाने लगते। बावजूद इस सबके उनका संघर्ष गाढ़ा होता जाता।
उन्हीं गाढ़े संघर्ष के दिनों में लोक कवि एक दिन आकाशवाणी पहुंच गए। बड़ी मुश्किल से घंटों जद्दोजहद के बाद उन्हें परिसर में प्रवेश मिल पाया। जाते ही वहां पूछा गया, ‘क्या काम है?’ लोक कवि बेधड़क बोले, ‘हम भी रेडियो पर गाना गाऊंगा !’ उन्हें समझाया गया कि, ‘ऐसे ही हर किसी को आकाशवाणी से गाना गाने नहीं दिया जाता।’ तो लोक कवि तपाक से पूछ बैठे, ‘तो फिर कइसे गाया जाता है?’ बताया गया कि इसके लिए आवाज का टेस्ट होता है तो लोक कवि ने पूछा, ‘इ टेस्ट का चीज होता है?’ बताया गया कि एक तरह का इम्तहान होता है तो लोक कवि थोड़ा मद्धिम पड़े और भड़के, ‘इ गाना गाने का कइसन इम्तहान?’
‘लेकिन देना तो पड़ेगा ही।’ आकाशवाणी के एक कर्मचारी ने उन्हें समझाते हुए कहा।
‘तो हम परीक्षा दूंगा गाने का। बोलिए कब देना है?’ लोक कवि बोले, ‘हम परीक्षा पहिले भी मिडिल स्कूल में दे चुका हूं।’ वह बोलते रहे, ’दर्जा आठ तो नहीं पास कर पाए पर दर्जा सात तो पास हूं। बोलिए काम चलेगा?’ कर्मचारी ने बताया कि, ‘दर्जा सात, आठ का इम्तहान नहीं, गाने का ही इम्तहान होगा। जिसको ऑडिशन कहते हैं। इसके लिए फार्म भरना पड़ता है। फार्म भरिए। फिर कोई तारीख़ तय कर इत्तिला कर दी जाएगी।’ लोक कवि मान गए थे। फार्म भरा, इंतजार किया और परीक्षा दी। पर परीक्षा में फेल हो गए।
लोक कवि बार-बार परीक्षा देते और आकाशवाणी वाले उन्हें फेल कर देते। रेडियो पर गाना गाने का उनका सपना टूटने लगा था कि तभी एक मुहल्ला टाइप कार्यक्रम में लोक कवि का गाना एक छुटभैया एनाउंसर को भा गया। वह उन्हें अपने साथ लेकर छिटपुट कार्यक्रमों में एक आइटम लोक कवि का भी रखने लगा। लोक कवि पूरी तन्मयता से गाते। धीरे-धीरे लोक कवि का नाम लोगों की जबान पर चढ़ने लगा। लेकिन उनका सपना तो रेडियो पर ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गाने का था। लेकिन जाने क्यों वह बार-बार फेल हो जाते। कि तभी एक शो मैन टाइप एनाउंसर से लोक कवि की भेंट हो गई। लोक कवि उसे क्लिक कर गए। फिर उस शो मैन एनाउंसर ने लोक कवि को गाने का सलीका सिखाया, लखनऊ की तहजीब और दंद-फंद समझाया। गरम रहने के बजाय व्यवहार में नरमी का गुन समझाया। न सिर्फ यह सब बल्कि कुछ सरकारी कार्यक्रमों में भी लोक कवि की हिस्सेदारी करवाई। अब जैसे सफलता लोक कवि की राह देख रही थी। और संयोग यह कि कम्युनिस्ट विधायक के जुगाड़ से लोक कवि को चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गई। विधायक निवास में ही उनकी पोस्टिंग भी हुई, जिसे लोक कवि ‘ड्यूटी मिली है’ बताते। अब नौकरी भी थी और गाना बजाना भी। लखनऊ की तहजीब को वह और यह तहजीब उन्हें सोख रही थी।
जो भी हो भूजा, चना, सतुआ खाकर या भूखे पेट सोने और मटमैला कपड़ा धोने के दिन लोक कवि की जिंदगी से जा चुके थे। यहां वहां जिस-तिस के यहां दरी, बेंच पर ठिठुर कर या सिकुड़ कर सोने के दिन भी लोक कवि के बीत गए। इनकी – उनकी दया, अपमान और जब तब गाली सुनने के दिन भी हवा हुए। अब तो चहकती जवानी के बहकते दिन थे और लोक कवि थे।
इस बीच आकाशवाणी का ऑडिशन भी वह पास कर वहां भी अपनी डफली बजा कर ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गुहार कर दो गाना वे रिकार्ड करवा आए। उनकी जिंदगी से बेशऊरी और बेतरतीबी अब धीरे-धीरे उतर रही थी। वह अब गा भी रहे थे, ‘फगुनवा में रंग रसे-रसे बरसे!’
अचानक लोक कवि के पास कार्यक्रमों की बाढ़ आ गई। सरकारी कार्यक्रम, शादी ब्याह के कार्यक्रम, आकाशवाणी के कार्यक्रम। अब लोक कवि ने एक बिरहा पार्टी भी बना ली थी। लोक कवि ज्यादा पढ़े-लिखे थे नहीं। वह खुद ही कहते, ‘सातवां दर्जा पास हूं, आठवां दर्जा फेल।’ तो भी उनकी ख़ासियत यही थी कि अपने लिए गाने वाले गाने वह खुद ही जोड़ गांठ कर लिखते और ज्यादातर गानों को कंहरवा धुन में गूंथते और गाते तो यही उनका ग्रेस बन जाता। वह कई बार पारंपरिक धुनों वाले पारंपरिक गानों में भी जोड़ गांठ कर कुछ ऐसी नई चीज, कोई बिलकुल तात्कालिक मसला गूंथ देते तो लोग वाह कर बैठते। गारी, सोहर, कजरी, लचारी भी वह गाते पर अपने ही निराले ढ़ंग से। अब उनका नाम लखनऊ से फैल कर पूर्वी उत्तर प्रदेश की सरहदें लांघ बिहार को छूने लगा था। इसी बीच उनकी जोड़गांठ रंग लाई और उस शोमैन एनाउंसर की कृपा से उनका एक नहीं दो-दो एल.पी. रिकार्ड एच.एम.वी. जैसी कंपनी ने रिलीज कर दिया। साथ ही यह अनुबंध भी किया कि अगले दस सालों तक वह किसी और कंपनी के लिए नहीं गाएंगे। अब लोक कवि की धूम थी। अभी तक वह सिर्फ रेडियो पर जब-तब गाते थे। पर अब तो शादी ब्याह, मेला हाट हर कहीं उनका गाना जो चाहता था बजवा लेता था। उनके इन रिकार्डों की चर्चा कुछ छिटपुट अख़बारों में भी हुई। छुटभैया कलाकारों ने लोक कवि की नकल शुरू कर दी। लेकिन लोक कवि के नाम पर अब कहीं-कहीं टिकट शो और ‘नाइट’ भी होने लगे।
गरज यह कि अब लोक कवि कला से निकल कर बाजार का रुख़ कर रहे थे। बाजार को समझ तौल रहे थे। और बाजार भी लोक कवि को तौल रहा था। इसी नाप तौल में वह समझ गए कि अब सिर्फ पारंपरिक गाने और बिरहा के बूते ज्यादा से ज्यादा रेडियो और इक्का दुक्का प्रोग्राम ही हो सकते हैं, बाजार की बहार नहीं मिल सकती। सो लोक कवि ने पैंतरा बदला और डबल मीनिंग गानों का भी घाल-मेल शुरू कर दिया। ‘कटहर क कोवा तू खइबू त मोटका मुअड़वा के खाई!’ जैसे डबल मीनिंग गीतों ने लोक कवि को बाजार में ऐसा चढ़ाया कि बड़े-बड़े गायक उनसे पीछे होने लगे। लोक कवि को बाजार तो इन गानों ने दे दिया पर उनके ‘लोक कवि’ की छवि को थोड़ा झुलसा भी दिया। पर इस छवि के झुलसने की परवाह उन्हें जरा भी नहीं हुई। उन पर तो बाजार का नशा तारी था। ‘सफलता’ के घोड़े पर सवार लोक कवि अब पीछे मुड़ कर देखना ही नहीं चाहते थे।
विधायक निवास में भी उनके साथ आसानी हो गई थी। उनकी गायकी की छवि के चलते उन्हें अब टेलीफोन ड्यूटी दे दी गई थी। यह ‘ड्यूटी’ भी लोक कवि के बड़े काम आई। उनके संपर्क बनने लगे। ‘सर’ कहना भी लोक कवि ने यहीं सीखा। अधिकारियों के फोन विधायकों को आते, विधायकों के फोन अधिकारियों को जाते। दोनों ही सूरत में लोक कवि माध्यम बनते। पी.बी. एक्स. में टेलीफोन ड्यूटी पर टेलीफोन आपरेटरी करते-करते वह ‘संबंध’ बनाने में पारंगत हो ही गए थे, बल्कि किसकी गोट कहां है और किसका समीकरण कहां बन रहा है, यह भी वह जानने लगे थे। अब उनको एक दूसरे विधायक निवास में सरकारी आवास भी आवंटित हो गया था। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों वाला टाइप-वन का। लेकिन तब तक उनका मेलजोल अपने ही एक सहकर्मी मिसरा जी से ज्यादा हो गया था। मिसरा जी से भी ज्यादा मिसिराइन से। सो वह आवास उन्होंने उन्हीं को दे दिया। मिसरा मिसिराइन रहने लगे, साथ ही लोक कवि भी। कभी आते-जाते, कभी रह जाते। फिर रियाज वगैरह कलाकारों से भेंट घाट में उन्हें दिक्कत होने लगी तो उन्होंने वहीं विधायक निवास में एक अफसर की चिरौरी करके एक गैराज भी एलाट करवा लिया। अब रिहर्सल, रियाज, कलाकारों से भेंट घाट, शराब, कबाब गैराज में ही होने लगा।
एक तरह से उनका यह अस्थाई निवास बन गया। इस बीच वह अपना परिवार भी लखनऊ ले आए। इतना पैसा हो गया था कि जमीन ख़रीद कर एक छोटा सा घर बनवा लें। तो एक घर बनवा कर परिवार को वहां रख दिया। पर सरकारी क्वार्टर में मिसरा-मिसिराइन ही रहे। मिसिराइन के परिवार को भी वह अपना ही परिवार मानते थे। लेकिन लोक कवि का दायरा अब बढ़ रहा था। सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रमों में तो उनकी दुकान चल ही गई थी चुनावी बयार में भी उनका झोंका तेज बहता। एक से दो, दो से चार, चार से छः, नेताओं की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही थी। बात विधायकों से मंत्रियों तक जाने लगी। एक केंद्रीय मंत्री तो जो लोक कवि के जवार के थे बिना लोक कवि के चुनावी तो क्या कोई भी सभा नहीं करते थे। इसके बदले वह लोक कवि को पैसा, सम्मान, शाल वगैरह गाहे बेगाहे देते रहते।
लोक कवि अब चहंओर थे। अगर नहीं थे तो कैसेट कंपनियों के कैसेटों में। एच.एम.वी. लोक कवि के डबल मीनिंग गानों की छवि से उनका कोई नया रिकार्ड निकालने से पहले ही से कतरा रही थी, कैसेट के नए जमाने में भी वह गांठ बांधे रही। लोक कवि जब भी कभी संपर्क करते उन्हें आश्वासन देकर टरका दिया जाता। तब जब कि लोक कवि के पास गानों का अंबार लग गया था। उनके तमाम समकालीनों के क्या बाद के नौसिखिया लौंडों तक के कैसेट आने लगे थे पर लोक कवि ख़ारिज थे इस बाजार से। तब जब कि उनके गानों की किताबें बस स्टैंडों, रेलवे स्टेशनों पर बिकती थीं। उनके टिकट शो होते थे। लोक कवि परेशान थे। उन्हें लगता कि बाजार उनके हाथ से खिसक रही है। वह जैसे अफना गए। संघर्ष की एक नई शिफत उनके सामने थी जिसे वह हर किसी के साथ शेयर भी नहीं करना चाहते थे। खाना नहीं है, कपड़ा नहीं है, नौकरी नहीं है, के बारे में वह पहले किसी से भी मौका देख कर कह सुन लेते थे। पर सफलता के इस पायदान पर खड़े वह किससे कहें कि मेरे पास कैसेट नहीं है, मेरा कैसेट निकलवा दीजिए। कभी कभार यार लोग या समकालीन भी, ‘आपका कैसेट कब आ रहा है?’ बड़ी विनम्रता से ही सही पूछ कर लोक कवि पर तंज कस देते। लोक कवि इस तंज के मर्म को समझते हुए भी हंस कर टाल देते। कहते, ‘कैसेटवो आ जाएगा। कवन जल्दी है।’ वह जैसे मुंह छुपाते हुए जोड़ते, ‘अभी किताब बिकाने दीजिए।’
पर कैसेट न आने से उनके मनोबल पर तो जो असर पड़ रहा था, वह था ही, शादी ब्याह मेले ठेले में भी वह अब नहीं बजते थे। क्योंकि अब हर जगह कैसेट छा रहा था, एल.पी. रिकार्ड चलन से बाहर जा रहा था। और लोक कवि के पास हिट गाने थे, दो-दो एल.पी. रिकार्ड था, पर कैसेट नहीं था। एच.एम.वी. का अनुबंध उन्हें बांधे हुए था और उसका टरकाना उन्हें खाए जा रहा था। और अब तो उनके संगी साथी और शुभचिंतक भी उन्हें मद्धिम स्वर में सही टोकते, ‘गुरु जी कुछ करिए। नहीं अइसे तो मार्केट से आउट जो जाइएगा।’
‘कइसे हो जाएंगे आउट!’ वह डपटते, ‘हई कार्यक्रम सब जो कर रहा हूं तो इ का मार्केट नहीं है?’ डपट कर वह खुद भी गमगीन हो जाते। साथ ही इस उधेड़बुन में भी लग जाते कि सचमुच ही क्या वह मार्केट से आउट होने की राह चल पड़े हैं ? लोक कवि की समस्या ही दरअसल यही थी कि कैसेट मार्केट से निकल कर सबके घरों में बज रहे थे और वह नदारद थे। लोगों ने एल.पी. रिकार्ड बजाना लगभग बंद कर दिया था। वह यह भी महसूस करते थे कि उनके संगी साथी और शुभचिंतक जो उनके मार्केट से आउट होने का प्रश्न पूछते थे वह गलत नहीं थे। पर यह प्रश्न उनको पुलकाता नहीं सुलगाता था। दिन रात वह यही सब सोचते। सोचते-सोचते वह विषाद और अवसाद से भर जाते। लेकिन जवाब नहीं पाते। जवाब नहीं पाते और शराब पी कर मिसिराइन के साथ सो जाते। लेकिन सो कहां पाते थे? कैसेट मार्केट का दंश उन्हें सोने ही नहीं देता था। वह मिसिराइन को बाहों में दबोचे छटपटाते रहते। पानी से बाहर हो गई किसी मछली की मानिंद भाग कर वह अपनी पत्नी के पास जाते। चैन वहां भी नहीं पाते। वह भाग आते विधायक निवास के उस गैराज में जो उन्हें आवंटित था। गैराज में रह कर किसी नए गाने की तैयारी में लग जाते। और सोचते कि कभी तो कैसेट में यह गाने भी समाएंगे। फिर गाएंगे गली मोहल्ले, घर के आंगन-दालान में, मेले, हाट और बाजार में।
बरास्ता कैसेट।
फिलहाल इस कैसेट के गम को गलत करने के लिए लोक कवि ने एक म्यूजिकल पार्टी बनाई। अभी तक उनके पास बिरहा पार्टी थी। इस बिरहा पार्टी में साथ में तीन कोरस गाने वाले और संगत करने वालों में हारमोनियम, ढोलक, तबला और करताल बजाने वाले थे। लेकिन अब इस म्यूजिकल पार्टी में उन तीन कोरस गाने वालों के अलावा एक लड़की साथ में युगल गीत गाने के लिए दो लड़कियां मिल जुल कर या एकल गाने के लिए, तीन लड़कियां डांस करने के लिए हो गईं। इसी तरह इन्स्ट्रूमेंट भी बढ़ गए। बैंजो, गिटार, बांसुरी, ड्रम ताल, कांगो आदि भी ढोलक, हारमोनियम, तबले और करताल के साथ जुड़ गए। लोक कवि की यह म्यूजिकल पार्टी चल निकली। सो उन्होंने अच्छी हिंदी बोलने वाला एक उद्घोषक भी जिस को वह ‘अनाउंसर’ कहते, शामिल कर लिया। वह अनाउंसर ‘हेलो’, ‘लेडीज एंड जेंटिलमैन’ जैसे गिने चुने अंगरेजी शब्द तो बोलता ही जब तब संस्कृत के श्लोक भी उच्चारता, क्या ठोंकता रहता। लोक कवि के स्टेज कार्यक्रमों का ग्रेस बढ़ जाता। इस तरह धीरे-धीरे लोक कवि की म्यूजिकल पार्टी लगभग आर्केस्ट्रा पार्टी में तब्दील हो गई। तो लोक कवि को इसका लाभ भी भरपूर मिला। प्रसिद्धि और पैसा दोनों ही वह कमा रहे थे और भरपूर। अब बाजार उनके दोनों हाथों में थी। जो कोई टोकता भी कि, ‘इ का कर रहे हैं लोक कवि?’ तो लगभग उसे गुरेरते हुए वह कहते, ‘का चाहते हैं जिनगी भर कान में अंगुरी डार कर बिरहा ही गाते रहें!’ लोग चुप लगा जाते। लेकिन लोक कवि तो गवाते, ‘अपने त भइलऽ पुजारी ए राजा, हमार कजरा के निहारी ए राजा!’ हां, सच यही था कि लोक कवि की लोकप्रियता का ग्राफ ऐसे गानों के चलते उफान मार रहा था जो कि उनकी टीम की लड़कियां नाचते हुए गातीं। वह गाने जो लोक कवि द्वारा लिखे और संगीतबद्ध होते। और कोई चाहे जो कहे इन गानों के बूते लोक कवि बाजार पर चढ़े रहते।
आखि़र वह दिन भी आ गया जब लोक कवि कैसेट के बाजार पर चढ़ गए। एक नई आई कैसेट कंपनी ने उनसे खुद संपर्क किया। लोक कवि ने पहले की रिकार्ड कंपनी से अनुबंध की लाचारी जताई। पर अंततः तय हुआ कि अनुबंध तोड़ने पर जो मुकदमा होगा उसका हर्जा खर्चा यह नई कैसेट कंपनी उठाएगी। और लोक कवि के धड़ाधड़ चार पांच कैसेट साल भर में ही न सिर्फ बाजार में आ गए बल्कि बाजार में छा गए। इधर उनके शिष्य भी गाते झूम रहे थे, ‘ससुरे से आइल बा सगुनवा हो, हे भौजी गुनवा बता द।’
अब हो यह गया था कि लोक कवि सरकारी कार्यक्रमों में तो देवी गीत, निर्गुन और पारंपरिक गीत गाते और एकाध गाना जिसे वह ‘श्रृंगार’ कहते वह भी लजाते सकुचाते गा गवा देते। पर कैसेटों में वह न सिर्फ श्रृंगार बल्कि भयंकर श्रृंगार ‘भरते’ जब कि अपनी म्यूजिकल टीम के मार्फत मंचों पर वह ‘सारा कुछ’ लड़कियों द्वारा प्रस्तुत नृत्यों में परोस देते जो कि जनता ‘चाहती’ थी। अब न सिर्फ धड़ाधड़ उनके कैसेट आने लगे थे बाजार में बल्कि लोक कवि अब बंबई, आसाम, कलकत्ता से आगे थाईलैंड, सूरीनाम, हालैंड, मारीशस जैसे देशों में भी साल दो साल में जाने लगे। इतना ही नहीं, अब उन्हें कुछ ठीक ठाक ‘सम्मान’ देकर कुछ संस्थाओं ने सम्मानित भी किया। यह सारे सम्मान, और कुछ लोक कवि की जोड़गांठ ने रंग दिखाया। वह राष्ट्रपति के साथ भारत महोत्सव के जलसों में अमरीका, इंगलैंड जैसे कई देशों में भी अपने कार्यक्रम पेश कर आए। यह सब न सिर्फ उनके लिए अकल्पनीय था बल्कि उनके प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी। प्रतिद्वंद्वियों को तो यकीन ही नहीं होता था कि लोक कवि यहां वहां हो आए, वह भी राष्ट्रपति के साथ। पर लोक कवि बड़ी शालीनता से कहते, ‘इ हमारा नहीं, भोजपुरी का सम्मान है!’ सुन कर उन के प्रतिद्वंद्वियों की छाती पर सांप लोट जाता। लेकिन लोक कवि पी-पा कर सुंदरियों के बीच सो जाते। बल्कि अब हो यह गया था कि बिना सुंदरियों के बीच पी-पा कर लेटे लोक कवि को नींद ही नहीं आती थी। कम से कम दो सुंदरी तो हों ही। एक आजू, एक बाजू। वह भी नई नवेली टाइप। लोक कवि सुंदरियों की नदी में नहा रहे हैं. यह बात इतनी फैली कि लोग कहने भी लगे कि लोक कवि तो ऐय्याश हो गए हैं। पर लोक कवि इन ‘आलतू फालतू’ टाइप बातों पर ध्यान ही नहीं देते। वह तो नया गाना बनाने और पुराना गाना ‘सुपर हिट’ बनाने की धुन में छटकते रहते। इस उस अफसर को, जिस तिस नेता को साधते रहते। कभी दावत दे कर, कभी उसके घर जा कर तो कभी कार्यक्रम वगैरह ‘पेश’ कर के। यहां उनका विधायक निवास में टेलीफोन ड्यूटी वाला संपर्क साधने का तजुर्बा बड़े काम आता। सो लोग सधते रहते और लोक कवि छटकते-बहकते रहते।
यह वो दिन थे जब लोक कवि बहुत आगे थे और उनके पीछे दूर-दूर तक कोई नहीं था।
ऐसा भी नहीं था कि लोक कवि के आगे उनसे अच्छा भोजपुरी गाना गाने वाला कोई नहीं था। बल्कि लोक कवि से भी अच्छा भोजपुरी गाना गाने वाले बहुत नहीं तो शीर्ष पर ही चार-छः लोग थे। लेकिन यह सभी संपर्क साधने और जुगाड़ बांधने में पारंगत नहीं थे। उलटे लोक कवि न सिर्फ पारंगत थे बल्कि इसके आगे की भी कई कलाओं में उन्होंने प्रवीणता हासिल कर ली थी। वह गाते भी थे, ‘जोगाड़ होना चाहिए’ या ‘बेचे वाला चाही, इहां सब कुछ बिकाला।’ लोक कवि की आवाज का खुलापन और इसमें भी मिसरी जैसी मिठास में जब कोई नया-पुराना मुहावरा मुंह पाता तो लोक कवि का लोहा मान लिया जाता। और जब वह ‘समधिनियां क पेट जैसे इंडिया क गेट’ धीरे से उठा कर पूरे सुर में छोड़ते तो महफिल लूट ले जाते।
उन्हीं दिनों लोक कवि ने अपने कैसेटों में भी थोड़ी राजनीतिक आहट वाले गीत ‘भरने’ शुरू किए। वह गाते, ‘ए सखी! मोर पिया एम.पी., एम.एल.ए. से बड़का, दिल्ली लखनऊवा में वो ही क डंका’, और जब वह जोड़ते, ‘वोट में बदल देला वोटर क बकसा, मोर पिया एम.पी., एम.एल.ए. से बड़का।’ तो लोग झूम जाते।
अब तक लोक कवि के ढेर सारे समकालीन गायक बाजार से जाने कबके विदा हो चुके थे। तो कुछ दुनिया से विदा हो गए थे लेकिन लोक कवि पूरी मजबूती से बाजार में बने हुए थे बल्कि इधर उनके राजनीतिक संपर्क जरा ज्यादा ‘प्रगाढ़’ हुए थे। अब वह एक दो नहीं कई-कई पार्टियों के नेताओं के लिए गाने लगे थे। चुनाव में भी और बगैर चुनाव के भी। वह एक ही सुर में लगभग सभी का यशोगान गा देते। कई बार तो बस नाम भर बदलना होता। जैसे एक गाने में वह गाते, ‘उस चांद में दागी है दागी, पर मिसरा जी में दागी नहीं है।’ भले मिसरा जी दाग के भंडार हों। इसी तरह वर्मा, यादव, तिवारी आदि कोई भी नाम अपनी सुविधा से लोक कवि फिलर की तरह भर लेते और गा देते। बिन यह जाने कि यह सब कर के वह खुद भी फिलर बनने की राह लग रहे हैं। लेकिन यह तो अभी दूर की राह थी। अभी तो उनके दिन सोने के थे और रात चांदी की।
बाजार में उनके कैसेटों की बहार थी और उनकी म्यूजिकल पार्टी छाई हुई थी। उनका नाम बिकता था। गरज यह कि वह ‘मार्केट’ में थे। लेकिन मार्केट को साधते-साधते लोक कवि में ढेर सारे अंतर्विरोध भी उपजने लगे। इस अंतर्विरोध ने उनकी गायकी को भी नहीं छोड़ा। लेकिन लोक कवि हाल फिलहाल हिट और फिट चल रहे थे सो कोई सवाल उठने उठाने वाला नहीं था। हां, कभी कभार उनका उद्घोषक उन्हें जरूर टोक देता। लेकिन जैसे धरती पानी अनायास सोख लेती है वैसे ही लोक कवि उद्घोषक की जब तब टोका टाकी पी जाते। जब कभी ज्यादा हो जाती टोका टाकी तो लोक कवि, ‘पंडित हैं न आप!’ जैसा जुमला उछालते और जब उद्घोषक कहता, ‘हूं तो!’ तब लोक कवि कहते, ‘तभी एतना असंतुष्ट रहते हैं आप।’ और यह कह कर लोक कवि उस उद्घोषक को लोक लेते। बाकी लोग ‘ही-ही-ही’ हंसने लगते। उद्घोषक जिसे लोग दुबे जी कहते खुद तो कोई नौकरी करते नहीं थे लेकिन पत्नी उनकी डी.एस.पी. थीं। और कभी कभार मुख्यमंत्री की सुरक्षा में भी तैनात हो जातीं। ख़ास कर एक महिला मुख्यमंत्री की सुरक्षा में। लोक कवि जब तब मंचों पर उद्घोषक दुबे जी की तारीफ में इस बात की घोषणा करते तो दुबे जी नाराज हो जाते। बिदक कर दुबे जी कहते, ‘क्या मेरी अपनी कोई पहचान नहीं है?’ वह बिफरते, ‘मेरी पत्नी डी.एस.पी. है, क्या मेरी यही पहचान है?’ वह पूछते, ‘क्या मैं अच्छा उद्घोषक नहीं हूं?’ लोक कवि, ‘हैं भाई हैं!’ कह कर बला टालते। दुबे जी उद्घोषक सचमुच बहुत अच्छे थे। पर वह इससे भी ज्यादा भाग्यशाली थे।
बाद में उनका इकलौता बेटा आई.ए.एस. हो गया तो लोक कवि उद्घोषक दुबे जी की तारीफ में पत्नी डी.एस.पी. के साथ ही आई.ए.एस. बेटे का भी पुल बांध देते तो शुरू-शुरू में बेटे की उपलब्धि को माइक लिए एक ख़ास ढंग से सिर झुका कर वह स्वीकार लेते। पर बाद के दिनों में दुबे जी को इस बात पर भी ऐतराज होने लगा। इस तरह धीरे-धीरे दुबे जी के ऐतराजों का ग्राफ बढ़ता ही गया। लोक कवि की टीम में कुछ ‘संदिग्ध’ लड़कियों की उपस्थिति पर उन का ऐतराज ज्यादा गहराया।
और इससे भी ज्यादा गहरा ऐतराज लोक कवि की गायकी पर उनका था। ऐतराज था कि लोक कवि भोजपुरी-अवधी को मिलाने के नाम पर दोनों ही को नष्ट कर रहे हैं। बाद में तो लोक कवि से वह कहने लगे, ‘अब आप अपने को भोजपुरी का गायक मत कहा कीजिए।’ वह जोड़ते, ‘कम से कम हमसे यह ऐलान मत करवाया करिए।’
‘क्यों भई क्यों?’ लोक कवि आधे सुर में ही रहते और पूछते, ‘हम भोजपुरी गायक नहीं हूं तो का हूं?’
‘थे कभी आप!’ दुबे जी किचकिचाते, ‘कभी भोजपुरी गायक! अब तो आप खड़ी बोली लिखते गाते हैं।’ वह पूछते, ‘कहीं-कहीं भोजपुरी शब्द ठूंस देने भर से, भोजपुरी मुहावरे ठोंक देने से और संवरको, गोरको गूंथ देने भर से गाना भोजपुरी हो जाता है?’
‘भोजपुरी जानते भी हैं भला आप!’ लोक कवि आधे सुर में ही भुनभुनाते। सच यह था कि दुबे जी का भोजपुरी से उतना ही वास्ता था, जितना मंच पर या रिहर्सल में वह सुनते। मातृभाषा उनकी भोजपुरी नहीं थी। लेकिन लोक कवि को वह फिर भी नहीं छोड़ते। कहते, ‘मातृभाषा मेरी भोजपुरी नहीं है!’ इस बातको वह पहले अंगरेजी में कहते फिर संस्कृत में और फिर जोड़ते, ‘पर बात तो मैं इस अनपढ़ से कर रहा हूं।’ फिर वह हिंदी में आ जाते, ‘लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अगर कोई एक औरत जो मेरी मां नहीं है और उसके साथ बलात्कार हो रहा हो उसे देखते हुए भी चुप रहूं कि यह तो मेरी मां नहीं है!’ वह जोड़ते, ‘देखिए लोक कवि जी अपने तईं तो मैं यह नहीं होने दूंगा। मैं तो इस बात का पुरजशेर विरोध करूंगा!’
‘ठीक है ब्राह्मण देवता!’ कह कर लोक कवि उनके पैर छू लेते। कहते, ‘आज ही बनाता हूं भोजपुरी में दो गाना। फेर आपको सुनाता हूं।’ लोक कवि जोड़ते, ‘लेकिन त बाजार में भी तो रहना है! ख़ाली भोजपुरी गाऊंगा, कान में अंगुरी डार के बिरहा गाऊंगा तो पब्लिक भाग खड़ी होगी।’ वह पूछते, ‘कौन सुनेगा ख़ालिस भोजपुरी? अब घर में बेटा तो महतारी से भोजपुरी में बतियाता नहीं है, अंगरेजी बूकता है तो हमारा शुद्ध भोजपुरी गाना कौन सुनेगा भाई!’ वह कहते, ‘दुबे जी, हम भी जानता हूं कि हम का कर रहा हूं। बाकी ख़ालिस भोजपुरी गाऊंगा तो कोई नहीं सुनेगा। आऊट हो जाऊंगा मार्केट से। तब आप की अनाउंसरी भी बह, गल जाएगी और हई बीस पचीस लोग जो हमारे बहाने रोज रोजगार पाए हैं, सब का रोजगार बंद हो जाएगा।’ वह पूछते, ‘तब का खाएंगे ई लोग, इनका परिवार कहां जाएगा?’
‘जो भी हो अपने तईं यह पाप मैं नहीं करूंगा।’ कह कर दुबे जी उठ कर खड़े हो जाते। बाहर निकल कर वह अपने स्कूटर को अइसे किक मारते गोया लोक कवि को ‘किक’ मार रहे हों। इस तरह दुबे जी का असंतोष बढ़ता रहा। लोक कवि और उनका वाद-विवाद-संवाद बढ़ता रहा। किसी फोड़े की तरह पकता रहा। इतना कि कभी-कभी लोक कवि बोलते, ‘ई दुबवा तो जीउ माठा कर दिया है।’ और अंततः एक समय ऐसा आया कि लोक कवि ने दुबे जी को ‘किक’ कर दिया। पर अचानक नहीं।
धीरे-धीरे।
होता यह कि लोक कवि कहीं से प्रोग्राम कर के आते तो दुबे जी प्रतिरोध दर्ज कराते हुए कहते, ‘आपने हमें तो बताया नहीं?’
‘फोन तो किया था। पर आपका फोनवा इंगेज चल रहा था।’ लोक कवि कहते, ‘और पोरोगराम अचानक लग गया था। जल्दी था तो हम लोग निकल गए। बीकी अगले हफ्ते बनारस चलना है आप तैयार रहिएगा!’ कह कर लोक कवि उन्हें एक दो प्रोग्राम में ले जाते और फिर आठ-दस प्रोग्रामों में काट देते। बाद में तो कई बार लोक कवि दुबे जी को लोकल प्रोग्रामों से भी ‘कट’ कर देते। कई बार ‘अचानक’ बता कर तो एकाध बार ‘बजट कम था’ कह कर। साथियों से लोक कवि कहते, ‘लोग नाच गाना देखने सुनने आते हैं। अनाउंसिंग नहीं!’ फिर तो धीरे-धीरे दुबे जी ने लोक कवि से प्रोग्रामों के बाबत पूछताछ भी बंद कर दी। लेकिन लोक कवि का पोस्टमार्टम नहीं बंद किया। हां, लेकिन एक सच यह भी था कि दुबे जी ‘मार्केट’ में अब लगभग नहीं रह गए थे। छिटपुट स्थानीय कार्यक्रमों में, कभी-कभार सरकारी कार्यक्रमों में दिख जाते। लोक कवि तो दिल खोल कर कहते, ‘दुबे जी को मार्केट ने आउट कर दिया।’ वह जोड़ते, ‘असल में दुबे जी पिंगिल बहुत झाड़ते थे।’
लेकिन जो भी हो कुछ अच्छे कार्यक्रमों में दुबे जी की कमी लोक कवि को भी अखरती। कार्यक्रम के बाद वह कहते भी कि, ‘दुबवा रहता तो इस को ऐसे पेश करता!’ पर दुबे जी आखि़र लोक कवि की ही बदौलत ‘मार्केट’ से आउट थे। और लोक कवि को जब तब खुद एनाउंसिंग संभालनी पड़ती थी। वह एक बढ़िया अनाउंसर तलाश कर रहे थे। बीच-बीच में कई अनाउंसरों को उन्होंने आजमाया। पर दुबे जी जैसा संस्कृत, हिंदी, अंगरेजी, उर्दू ठोंकने वाला कोई नहीं मिल रहा था। लोक कवि बोलते, ‘कवनों में सलीका सहूर नहीं है।’ आखि़र एक बांसुरी बजाने वाले को उन्होंने यह काम सिखवाया। पर वह भी नहीं चला। वह बांसुरी से भी गया और एनाउंसिंग से भी।
लोक कवि को एक एनाउंसर ऐसा भी मिला जिसकी आवाज भी अच्छी थी, हिंदी, अंगरेजी भी जानता था। पर दिक्कत यह थी कि वह कार्यक्रम से ज्यादा एनाउंसिंग करता। दस मिनट के कार्यक्रम के लिए वह पंद्रह मिनट एनाउंसिंग कर डालता। ‘मैं-मैं कहते-कहते वह पांच छः शेर ठोंकता और मैंने तब यह किया, तब वह किया कह-कह कर अपने ही को वह प्रोजेक्ट करता रहता। अंततः लोक कवि ने उसे भी हटा दिया। कहा कि, ‘यह तो कार्यक्रम का लीद गोबर निकाल देता है।’ कि तभी लोक कवि को एक टी.वी. सीरियल बनाने वाला मिल गया। लोक कवि के गाने चूंकि कुछ फिल्मों में भी पहले आ चुके थे, कुछ चोरी-चकारी के मार्फत तो कुछ सीधे सो वह उस टी.वी. सीरियल बनाने वाले के ग्लैमर में तो नहीं अझुराए लेकिन उसकी राय में आ गए। उसने एक लड़की को प्रोजेक्ट किया जो हिंदी, भोजपुरी दोनों जानती थी। ‘लेडीज एंड जेन्टिलमेन’ वाली अंगरेजी भी ‘हेलो सिस्टर्स एंड ब्रदर्स’ कह कर बोलती थी। और ज्यादातर एनाउंसिंग अंगरेजी में ही ठोंकती थी।
अंततः लोक कवि के मंचों की वह एनाउंसर बन गई। धीरे-धीरे वह ‘कुल्हा उछालू’ डांस भी जान गई। सो एक पंथ दो काज। एनाउंसर कम डांसर उस लड़की से लोक कवि की म्यूजिकल पार्टी का भाव बढ़ गया।
एक बार किसी ने लोक कवि से कहा भी कि, ‘भोजपुरी के मंच पर अंगरेजी एनाउंसिंग! यह ठीक नहीं है।’
‘काहें नाहीं ठीक है?’ लोक कवि बिदक कर गरजे।
‘अच्छा चलिए शहर में तो यह अंगरेजी एनाउंसिंग चल भी जाती है पर गांवों में भोजपुरी गाना सुनने वाले का समझें ई अंगरेजी एनाउंसिंग?’
‘ख़ूब समझते हैं!’ लोक कवि फैल गए, ‘और समझें न समझें मुंह आंख दोनों बा कर देखने लगते हैं।’
‘का देखने लगते हैं?’
‘लड़की! और का?’ लोक कवि बोले, ‘अंगरेजी बोलती लड़की। सब कहते हैं कि अब लोक कवि हाई लेबिल हो गए हैं। लड़की अंगरेजी बोलती है।’
‘अच्छा जो वह लड़की बोलती है अंगरेजी में आप समझते हैं?’
‘हां समझता हूं।’ लोक कवि बड़ी सर्द आवाज में बोले।
‘का? आप अब अंगरेजी भी समझने लगे?’ पूछने वाला भौंचकिया गया। बोला, ‘कब अंगरेजी भी पढ़ लिया लोक कवि जी आपने?’
‘कब्बो नहीं पढ़ा अंगरेजी!’ लोक कवि बोले, ‘हिंदी तो हम पढ़ नहीं पाए अंगरेजी का पढ़ेंगे?’
‘पर अभी तो आप बोल रहे थे कि अंगरेजी समझता हूं।’
‘पइसा समझता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘और ई अंगरेजी अनाउंसर ने हमारा रेट हाई कर दिया है तो ई अंगरेजी हम नहीं समझूंगा तो कवन समझेगा!’ वह बोले, ‘का चाहते हैं जिनगी भर बुरबक बना रहूं। पिछड़ा ही बना रहूं। अइसे ही भोजपुरी भी हरदम भदेस बनी रहे।’ लोक कवि चालू थे, ‘संस्कृत के नाटक में अंगरेजी लोग सुन सकते हैं। कथक, भरतनाट्यम, ओडिसी, मणिपुरी में लोग अंगरेजी सुन सकते हैं। गजल, तबला, सितार, संतूर, शहनाई पर अंगरेजी सुन सकते हैं तो भोजपुरी के मंच पर लोग अगर अंगरेजी सुन रहे हैं तो का ख़राबी है भाई? तनि हमहूं के बताइए!’ लोक कवि का एकालाप चालू रहा, ‘जानते हैं भोजपुरी का है?’ वह थोड़ा और कर्कश हुए, ‘मरती हुई भाषा है। हम उसको लखनऊ जैसी जगह में गा बजा के जिंदा रखे हूं और आप सवाल घोंप रहे हैं। ऊ भोजपुरी जवन अब घर में से भी बाहर हो रही है।’
लोक कवि गुस्साए भी थे और दुखी भी। कहने लगे, ‘अभी तो जब तक हम जिंदा हूं अपनी मातृभाषा का सेवा करूंगा, मरने नहीं दूंगा। कुछ चेला, चापट भी तैयार कर दिया हूं वह भी भोजपुरी गा बजा कर खा कमा रहे हैं। पर अगली पीढ़ी भोजपुरी का, का गत बनाएगी यही सोच कर हम परेशान रहता हूं।’ वह बोले, ‘अभी तो मंच पर पॉप गाना बजवा कर डांस करवाता हूं। यह भी लोगों को चुभता है, भोजपुरी में खड़ी बोली मिलाता हूं तो लोग गरियाते हैं और अब अंगरेजी अनाउंसिंग का सवाल घोंपा जा रहा है।’ वह बोले, ‘बताइए हम का करूं? बाजारू टोटका न अपनाऊं तो बाजार से गायब हो जाऊं? अरे, नोंच डालेंगे लोग। हड्डियां नहीं मिलेंगी हमारी।’ कह कर वह छटकते हुए खड़े हो गए। शराब की बोतल खोलते हुए कहने लगे, ‘छोड़िए ई सब। शराब पीजिए, मस्त हो जाइए। ई सबमें कुछ नहीं धरा है।
वह बोले, ‘बाजार में रहूंगा तो चार लोग चीन्हेंगे, नमस्कार करेंगे। जिस दिन बाजार से बहिरा जाऊंगा कोई बात नहीं पूछेगा। ई बात हम अच्छी तरह जानता हूं। आप लोग भी जान लीजिए।’ लोक कवि अब तक पीते-पीते टुन्न हो गए थे तो लोग जाने लगे। लोग जान गए अब रुकने का मतलब है लोक कवि की गालियों का गायन सुनना। दरअसल दिक्कत ही यही थी कि लोक कवि ‘खटाखट’ लेते और बड़ी जल्दी टुन्न भी हो जाते। फिर तो वह या तो ‘प्रणाम’ उच्चारते या गायन भरी गालियों का वाचन या फिर सुंदरियों के व्यसन ख़ातिर बउरा जाते।
दरअसल सारी ‘क्रियाओं’ का मकसद ही होता कि ‘तखलिया!’ यानी एकांत! ‘प्रणाम’ उन आदरणीय लोगों के लिए होता जो उनकी संगीत मंडली से अलग के मेहमान (नेता, अफसर, पत्रकार) हों या जजमान हों। अभ्यस्त लोग लोक कवि के ‘प्रणाम’ का संकेतार्थ समझते थे और उठ पड़ते थे। जो लोग नए होते थे वह नहीं समझते थे और बैठे रहते। लोक कवि उन्हें रह-रह हाथ जोड़-जोड़ दो चार बार और प्रणाम करते। बात फिर भी नहीं बनती तो वह अदब से ही सही कह देते, ‘त अब चलिए न!’ बावजूद लोक कवि के तमाम अदब के इससे कुछ नादान टाइप लोग आहत और नाराज हो जाते। पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता।
कहा जाता है कि अर्जुन ने द्रौपदी को स्वयंवर में इसलिए जीता था कि उन्होंने सिर्फ मछली की आंख देखी थी। जब कि बाकी योद्धा पूरी मछली देख रहे थे इसलिए मछली की आंख को भेद नहीं पाए। सो द्रौपदी को जीत नहीं सके। पर किसी को जीतने की अपने लोक कवि की स्टाइल ही और थी। वह अर्जुन नहीं थे और न ही अर्जुन की भूमिका में वह अपने को पाते पर जीतते वह जरूर थे। इस मामले में वह अर्जुन से भी कुछ कदम आगे थे। क्योंकि लोक कवि मछली और मछली की आंख से भी पहले द्रौपदी देखते। बल्कि कई बार तो वह सिर्फ द्रौपदी ही देखते। क्योंकि उनका लक्ष्य मछली की आंख नहीं द्रौपदी होती। मछली और मछली की आंख तो साधन भर थी द्रौपदी को पाने की। साध्य तो द्रौपदी ही थी। सो वह द्रौपदी को ही साधते, मछली और उसकी आंख न भी सधे तो भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था।
वह गाते भी थे, ‘बिगड़ल काम बनि जाई, जोगाड़ चाही।’ इसीलिए कोई हत होता है कि आहत, इससे उनको कोई सरोकार नहीं रहता था। उनको बस अपनी द्रौपदी से सरोकार रहता। वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी। लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी। सम्मान, यश, कार्यक्रम या जो भी कुछ हो। उनके संगी साथी उनके लिए कहते भी थे, ‘आपन भला, भला जगमाहीं!’ पर लोक कवि को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था। हां, कभी कभार फर्क पड़ता था। तब जब उनकी कोई द्रौपदी उनको नहीं मिल पाती थी। पर इस बात को भी वह गांठ बांधे नहीं घूमते थे कि, ‘हऊ वाली द्रौपदी नहीं मिली!’ बल्कि वह तो ऐसे एहसास कराते कि जैसे कुछ हुआ ही न हो! दरअसल दंद-फंद और अनुभव ने उन्हें काफी पक्का बना दिया था।
एक बार की बात है लोक कवि का एक विदेश दौरा तय हो गया था। एडवांस मिल गया था, तारीख़ पक्की नहीं हुई थी। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे पर तारीख़ तय नहीं हो पा रही थी। लोक कवि के एक शुभचिंतक काफी उतावले थे। एक दिन वह लोक कवि से बोले, ‘चिट्ठी लिखिए!’
‘हम का चिट्ठी लिखें, जाने दीजिए।’ लोक कवि बोले, ‘जे एतनै चिट्ठी लिखना जानते तो गवैया बनते? अरे, सट्टा पर अपना नाम और तारीख़ लिख देता हूं, बहुत है।’ वह कहने लगे, ‘कहीं कुछ गलत-सलत हो गया तो ठीक नहीं है। जाने दीजिए गड़बड़ा जाएगा।’
‘त फोन कीजिए।’ शुभचिंतक की उतावली गई नहीं।
‘फोन किया था पिछले हफ्ता। बड़ा पइसा लगता है।’ लोक कवि बोले, ‘उन्होंने कहा है कि चार-पांच रोज में बताएंगे।’
‘तो आज फेर करिए!’ शुभचिंतक बोले, ‘आज का पैसा मैं देता हूं।’
‘नाहीं, फोन रहने दीजिए।’
‘क्यों?’
‘का है कि जादा कसने से पेंच टूट जाता है।’ लोक कवि शुभचिंतक को समझाते हुए बोले।
शुभचिंतक इस लगभग अपढ़ गायक का यह संवाद सुन कर हकबका गए।
लेकिन लोक कवि तो ऐसे ही थे।
सारी चतुराई, सारी होशियारी, ढेर सारे गणित और जुगाड़ के बावजूद वह बोलते बेधड़क थे। यह शायद उनकी भोजपुरी की माटी की रवायत थी की अदा कि आदत, जानना कठिन था। और यह वह अनजाने ही सही एकाध बार नुकसान की कीमत पर भी कर जाते, क्या बोल जाते। और जो कहते हैं कि ‘जो कह दिया सो कह दिया’ पर वह अडिग भी रहते।
ऐसे ही एक दफा एक कार्यक्रम के बाबत लोक कवि के गैराज वाले आवास पर चिकचिक चल रही थी। लोक कवि लगातार पैसा बढ़ाने और कुछ एडवांस की जिद पर अड़े पड़े थे। और ‘क्लाइंट’ पैसा न बढ़ाने और एडवांस के बजाय सिर्फ बयाना देकर सट्टा लिखवाने पर आमादा थे। ‘क्लाइंट’ की सिफारिश में किसी कारपोरेशन के एक चेयरमैन साहब भी लगे थे। क्योंकि एक केंद्रीय मंत्री के चचेरे भाई के नाते चेयरमैन साहब चलते पुर्जे वाले थे। और लोक कवि के जनपद के मूल निवासी भी।
वह लोक कवि से बात लगभग अफसरी-सामंती अंदाज में हमेशा करते थे। उस दिन भी, ‘मान जो, मान जो!’ वह कहते रहे। फिर लोक कवि को थोड़ा सम्मान देने की गरज से वह हिंदी पर आ गए, ‘मान जाओ, मैं कह रहा हूं।’
‘कइसे मान जाऊं चेयरमैन साहब!’ लोक कवि बोले, ‘आप तो सब जानते हैं। ख़ाली हम ही होते तो बात चल जाती। हमारे साथ और भी कलाकार हैं। और ई पूरी पार्टी भी चाहते हैं।’’
‘सब हो जाएगा। तुम घबराते क्यों हो।’ कह कर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को धीरे से आंख मारी और फिर बोले, ‘मान जो, मान जो!’ फिर अपनी जेब से एक रुपए का सिक्का निकालते हुए चेयरमैन साहब उठ खड़े हुए। लोक कवि को एक रुपए का सिक्का देते हुए वह बोले, ‘हई ले और मिसिराइन के ‘यहां’ हमारी ओर से साट देना।’
‘का चेयरमैन साहब आप भी!’ कह कर लोक कवि थोड़ा खिसियाए। लेकिन चेयरमैन साहब की इस अश्लील टिप्पणी का जवाब वह चाह कर भी नहीं दे पाए। और बात टाल गए।
चेयरमैन साहब भी क्लाइंट के साथ चले गए।
चेयरमैन साहब के जाते ही लोक कवि के गैराज में बैठे उन के एक अफसर मित्र ने लोक कवि को टोका, ‘आपको जब यह कार्यक्रम नहीं करना है तो साफ मना क्यों नहीं कर देते?’
‘आपको कैसे पता कि मैं यह कार्यक्रम नहीं करूंगा?’ लोक कवि ने थोड़ा आक्रामक हो कर पूछा।
‘आपकी बातचीत से।’ वह अफसर बोला।
‘अइसे अफसरी करते हैं आप?’ लोक कवि बिदके, ’अइसेहीं बात चीत का गलत सलत नतीजा निकालेंगे?’
‘तो?’
‘तो क्या। कार्यक्रम तो करना ही है चाहे इ लोग एक्को पइसा न दें तब भी।’ लोक कवि भावुक हो गए। बोले, ‘अरे भाई, ई चेयरमैन साहब कह रहे हैं तो कार्यक्रम तो करना ही है!’
‘काहें ऐसा का है इस दो कौड़ी के चेयरमैन में।’ अफसर बोला, ‘मंत्री इसका चचेरा भाई है न! का बिगाड़ लेगा। तिस पर आपसे अश्लील और अपमानित करने वाली टिप्पणी करता है! कौन है ई मिसिराइन?’
‘जाने दीजिए ई सब। का करेंगे आप जान कर।’ लोक कवि बोले, ‘ई जो चेयरमैन साहब हैं न हमको बड़ा कुर्ता पायजामा पहिनाए हैं एह लखनऊ में। भूखे सोते थे तो खाना खिलाए हैं। जब हम शुरू-शुरू में लखनऊ में आए थे तो बड़ा सहारा दिए।
तो कार्यक्रम तो करना ही है।’ कह कर लोक कवि और भावुक हो गए। कहने लगे, ‘आज तो हम इनको शराब पियाता हूं तो पी लेते हैं। हम उनके बराबर बैठ जाता हूं तो बुरा नहीं मानते हैं हमारा गाना भी खूब सुनते हैं। और यहां वहां से पोरोगराम दिलवा कर पइसा भी खूब कमवाते हैं। तो एकाध फ्री पोरोगराम भी कर लूंगा तो का बिगड़ जाएगा।’
‘तो इतना नाटक काहें कर रहे थे?’
‘एह नाते कि जो ऊ ‘क्लाइंट’ आया था ऊ पुलिस में डी.एस.पी. है। दूसरे इसकी लड़की की शादी। शादी के बाद विदाई में रोआ रोहट मची रहेगी। कवन मांगेगा पइसा अइसे में। दूसरे, पुलिस वाला है। तीसरे ठाकुर है। जो कहीं गरमा गया और गोली बंदूक चल गई तो?’ लोक कवि बोले, ‘एही नाते सोच रहे थे कि जवन मिलता है यहीं मिल जाए। कलाकारों भर का नहीं तो आने जाने भर का सही।’
‘ओह तो यह बात है!’ कर कह वह अफसर महोदय भौंचकिया गए।
चेयरमैन प्रसंग पर अफसर के सवाल ने लोक कवि को भावुक बना दिया था। अफसर तो चला गया पर लोक कवि की भावुकता उन पर तारी थी।
चेयरमैन साहब !
….जारी….
उपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
madan kumar tiwary
January 31, 2011 at 2:16 pm
इंतजार था इसका । गोरखपुर के महंथ के बाद अब बलेशर मजा आ रहा है । अच्छा उपन्यास है , अगली किस्त का इंतजार ्है ।
shailendra shukla
January 31, 2011 at 6:54 pm
वाह पांडेंय जी बलेशर की जीवनी लिखने के लिए मजा आ गया पढ़कर
janardan yadav
February 2, 2011 at 4:09 am
pandey ji samagrtaa se ootprot sarovaar sagrachhanake leye
hardik shubhkamna. vaise to ye upanyaas bahut hee pahley aachhuka thha. security force kee vyashthata ke karan nahee paarpaya thha. mahabharat ke kendriya patro ke shirshak ke sath suruchhipuran kheeshagoo……