उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (11 और अंतिम) : जाने यह टूटना उनका भोजपुरी भाषा की बढ़ती दुर्दशा को लेकर था या एलबम, सी.डी. के बाजार में अपनी अनुपस्थिति को लेकर था यह समझ पाना खुद लोक कवि के भी वश का नहीं था। उनके वश में तो अब अपने कैंप रेजींडेंस में बढ़ती चोरी को रोक पाना भी नहीं था। बात अब पैसा, कपड़ा-लत्ता और मोबाइल तक ही नहीं रह गई थी।
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पर सट्टा करने के पहले पूछते हैं कि लड़कियां कितनी होंगी
: असंपादित : उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (10) : मुख़्तसर में यह कि एक गांव की एक ठकुराइन भरी जवानी में विधवा हो गईं। बाल बच्चे भी नहीं थे। लेकिन जायदाद ज्यादा थी और सुंदरता भी भरपूर। उनकी पढ़ाई लिखाई हालांकि हाई स्कूल तक ही थी तो भी ससुराल और मायके में उनके बराबर पढ़ी कोई औरत उनके घर में नहीं थी। औरत तो औरत कोई पुरुष भी हाई स्कूल पास नहीं था।
मीनू मध्य प्रदेश से चल कर लखनऊ आई थी
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (9) : कैसेट बजने लगा और लड़कियां नाचने लगीं। साथ-साथ लोक कवि भी इस डांस में छटकने-फुदकने लगे। वैसे तो लोक कवि मंचों पर भी छटकते, फुदकते, थिरकते थे, नाचते थे। यहां फष्कषर्् सिर्फ इतना भर था कि मंच पर वह खुद के गाए गाने में ही छटकते फुदकते नाचते थे। पर यहां वह दिदलेर मेंहदी के गाए ‘बोल तररर’ गाने वाले बज रहे कैसेट पर छटकते फुदकते थिरक रहे थे।
तिवारी ने ‘ठांय’ से हवा में फायर किया तो सब लड़कियां भागने लगीं
उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (8) : पोलादन चला तो आया गणेश तिवारी के घर से। पर रास्ते भर उनकी नीयत थाहता रहा। सोचता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि पइसा भी चला जाए और खेत भी न मिले। ‘माया मिली न राम’ वाला मामला न हो जाए। वह इस बात पर भी बारहा सोचता रहा कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोता बोया खेत जो उसने खुद बैनामा किया है, पांच लाख रुपया नकद ले कर, कैसे उसे वापिस मिल जाएगा भला?
अब तो लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल लौंडियों को नचा कर कमा खा रहा
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (7) : और आखि़र तब तक लोक कवि परेशान रहे, बेहद परेशान ! जब तक कि कमलेश मर नहीं गया। कमलेश बंबई में मरा तो विद्युत शवदाह गृह में फूंका गया। इसी तरह बैंकाक में गोपाल तिवारी भी फूंका गया। लेकिन गांव में तो विद्युत शवदाह गृह नहीं था। तो जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरे तो लकड़ी से उन्हें फूंका जाना था।
लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (5) : कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।
लोक कवि ने सम्मान दिलाने को कहा तो पत्रकार ने डांसर की डिमांड की
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (3) : कभी कभार तो अजब हो जाता। क्या था कि लोक कवि की टीम में कभी कदा डांसर लड़कियों की संख्या टीम में ज्यादा हो जाती और उनके मुकाबले युवा कलाकारों या संगतकर्ताओं की संख्या कम हो जाती। बाकी पुरुष संगतकर्ता या गायक अधेड़ या वृद्ध होते जिनकी दिलचस्पी गाने बजाने और हद से हद शराब तक होती।
‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी’ कह कर उसे बांहों में भर लिया
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (2) : चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।
विनोद शुक्ला और घनश्याम पंकज जैसों के पापों को पत्रकारों की कई पीढियां भुगतेंगी
: ऐसे लोग सूर्य प्रताप जैसे जुझारू पत्रकारों को दलाली में पारंगत करते रहेंगे : और अब तो प्रणव राय जैसे लोग भी बरखा दत्त पैदा करने ही लगे हैं : पहले संपादक नामक संस्था के समाप्त होने का रोना रोते थे, आइए अब पत्रकारिता के ही खत्म हो जाने पर विधवा विलाप करें : आंखें भर आई हैं सूर्य प्रताप उर्फ जय प्रकाश शाही जी की तकलीफों को याद कर, उनको नमन :
वह द्रौपदी शराब भी हो सकती थी, सफलता भी, लड़की भी हो सकती थी, पैसा भी…
: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (एक) : ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा!’ गाते-बजाते लोक कवि अपने गांव से एक कम्युनिस्ट नेता के साथ जब सीधे लखनऊ पहुंचे तो उन्हें यह बिलकुल आभास नहीं था कि सफलता और प्रसिद्धि की कई-कई सीढ़ियां उनकी प्रतीक्षा में खड़ी हैं।
शीघ्र पढ़ेंगे दनपा का उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’
: स्वर्गीय जय प्रकाश शाही की याद में लिखा गया है यह उपन्यास : स्वर्गीय बालेश्वर के जीवन के कई दुख-सुख हैं इसमें : ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और भोजपुरी समाज के क्षरण की कथा भर नहीं है बल्कि लोक भावनाओं और भारतीय समाज के संत्रास का आइना भी है।