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25 जून पर विशेष (4) : भ्रष्ट आचरण, नाचते कूदते नंदीगण और इंदिरा गांधी का (अ)न्याय

वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने एक लेख लिखा था. 12 जून 1975 को. इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद. इसे आप पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि देश में हालात सुधरे नहीं बल्कि बदतर हुए हैं. काले धन की समस्या और विकट हो गई है. सिस्टम का पतन और ज्यादा हो चुका है. कांग्रेसियों का लोकतंत्र विरोधी आचरण और ज्यादा दिखने लगा है.

<p style="text-align: justify;">वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने एक लेख लिखा था. 12 जून 1975 को. इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद. इसे आप पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि देश में हालात सुधरे नहीं बल्कि बदतर हुए हैं. काले धन की समस्या और विकट हो गई है. सिस्टम का पतन और ज्यादा हो चुका है. कांग्रेसियों का लोकतंत्र विरोधी आचरण और ज्यादा दिखने लगा है.</p>

वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने एक लेख लिखा था. 12 जून 1975 को. इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद. इसे आप पढ़ेंगे तो महसूस करेंगे कि देश में हालात सुधरे नहीं बल्कि बदतर हुए हैं. काले धन की समस्या और विकट हो गई है. सिस्टम का पतन और ज्यादा हो चुका है. कांग्रेसियों का लोकतंत्र विरोधी आचरण और ज्यादा दिखने लगा है.

जी हुजूर शोर के बीच खोया एक सार्थक क्षण

राजेंद्र माथुर

परसों सवेरे इंदिरा गांधी ने इस्तीफा नहीं दिया, जबकि सारा देश सांस रोक कर उनके इस्तीफे का इंतजार कर रहा था। वह एक इस्तीफा सारे अतीत को धो सकता था, और इंदिराजी के साहस के लिए और नैतिक संवेदना के लिए एक स्तब्ध सराहना का भाव हवा में लहरा सकता था। उस एक इस्तीफे से नेता के रूप में इंदिरा गांधी की ऊंचाई कई गुना बढ़ जाती। लेकिन चापलूस, जीहुजूर सलाह मशविरों के बीच सारा दिन गुजर गया और सार्थकता का वह मुमकिन क्षण न जाने कहां खो गया।

इस्तीफा न देकर इंदिरा गांधी ने फिर सिद्ध किया है कि वे आज भी वही महिला हैं, जिसने 1969 के उन अनिश्चित दिनों में अंतरात्मा की आवाज का आह्वान किया था, और भयावह अंदरूनी दलबदल के जरिए जिसने वराह गिरि वेंकट गिरि नामक एक गैर-कांग्रेसी उम्मीदवार को जितवा दिया था। मर्यादाओं के अवमूल्यन के बाद जो खोटे सिक्के राजनीति में तबसे चलने लगे हैं, उनकी तादाद अब बेशुमार बढ़ गई है, जिसका नतीजा यह है कि अदालत द्वारा भ्रष्ट आचरण का फतवा दिए जाने के बाद भी अनगिनत नंदीगण नाचते कूदते इंदिरा गांधी से निवेदन कर रहे हैं कि इलाहाबाद के फैसले के बाद भी वे बनी रहें।

प्रधानमंत्री को बहुत मनाने की जरूरत पड़ी हो, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता। आधे सेकंड के लिए भी उनके मन में यह विचार नहीं कौंधा कि कुर्सी छोड़ देना बेहतर होगा। अभिनय के लिए भी उन्होंने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के सामने इस्तीफे का प्रस्ताव नहीं रखा। श्रीनगर में छुट्टी मनाते राष्ट्रपति दिल्ली पर संवैधानिक संकट आया समझ लौटने वाले थे, लेकिन दिल्ली से उन्हें संदेश मिल गया कि संकट-वंकट कुछ नहीं है। उन्होंने यकीन कर लिया कि संकट नहीं है। आखिर प्रधानमंत्री जो भी फैसला करेंगी, वह राष्ट्रपति द्वारा खाई गई कसमों के अनुरूप ही होगा। वे नहीं आए।

कानून के जानकारों से कहलवाया गया कि स्वयं न्यायाधीश ने बीस दिन के लिए अपने फैसले पर नास्ति, नास्ति का आदेश दे दिया है। फैसला जब है ही नहीं, तो फिर इस्तीफे का प्रश्न ही कहां खड़ा होता है? जो है, वह बस ढाई सौ पन्नों का एक निबंध है जो इलाहाबाद के जज ने जंचवाने के लिए अभी दिल्ली भेजा है। श्री जगजीवन राम ने कांग्रेस संसदीय बोर्ड के सामने यह विचित्र थीसिस रखी कि कानून भले ही कुछ भी कहे, लेकिन इंदिराजी को नेतृत्व का नैतिक अधिकार है। यानी कांग्रेस के लिए येनकेन प्रकारेण प्राप्त की गई कुर्सी नैतिक है, और वह कुर्सी कैसे प्राप्त हुई इस बात की हर जांच अनैतिक और अवांछित है।

कानून की चर्चा करने से क्या फायदा? कानून में तो यह भी नहीं लिखा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा भ्रष्ट आचरण का तमगा मिलने के बाद किसी प्रधानमंत्री के लिए इस्तीफा देना जरूरी होगा। फैसला लोकसभा की सीट का है, इस बात का नहीं कि साढ़े तीन सौ कांग्रेसियों ने अपना नेता किसे चुना और क्यों चुना? छह महीने तक प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा का सदस्य रहना जरूरी नहीं। और छह महीने के अंदर निश्चय ही यह प्रगतिशील संशोधन किया जा सकता है कि लोकसभा के नेता के लिए लोकसभा का सदस्य होना जरूरी नहीं होगा। मुख्य चुनाव आयुक्त को यों उच्चतम न्यायालय का फैसला कचरे में फेंकने का अधिकार है ही। अब बताइए सिर्फ कानून क्या करेगा? सवाल सिर्फ शोभनीयता का और मर्यादाओं का है, और कांग्रेस के नेता इन छह वर्षों में बेरहमी से उन्हें रौंद रहे हैं।

इंदिरा गांधी रहें या न रहें, लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने उनका रूबरू मुकाबिला उन्हीं के बनाए भस्मासुर से करवा दिया है। ईमानदार तथा सोच-विचार करने वाले लोग महीनों से कह रहे हैं कि काले धन का महासागर भारत में इसलिए लहरा रहा है कि इसी काले पैसे के बूते पर सत्ताधीशों की कुर्सी टिकी है। महीनों से जयप्रकाश नारायण पागलों की जरह चुनावों को साफ सुथरा बनाने की गुहार मचा रहे हैं। लेकिन ताबड़तोड़ सिक्किम विलय का संशोधन करने वाली सरकार, ताबड़तोड़ अमरनाथ चावला के मुकदमे का फैसला रद्द करने वाली सरकार, चुनाव सुधार के मामले में कछुए की चाल से चल रही है, क्योंकि कच्छपत्व में उसके निहित स्वार्थ हैं। इंदिरा गांधी को चुनावी गड़बड़ के कारण अपात्र माना गया है, इसमें बड़ा कवित्वमय न्याय है, क्योंकि इस मामले में तो प्रदूषण की गंगोत्री सचमुच वे ही हैं।

न्यायाधीश ने जिन मुद्दों पर उन्हें दोषी पाया है, वे अपेक्षया गौण हैं। कुछ सरकारी अफसरों ने कुछ चुनाव सभाओं में इंदिरा जी के लिए मंच बनवाए और बिजली का प्रबंध किया, इससे भारत का वोटर क्या प्रभावित होगा, जिसने चुनाव के समय सारे देश को गंदे चहबच्चों और बदबूदार पनालों में बदलते देखा है। यशपाल कपूर नामक एक सरकारी अफसर के इस्तीफे की तारीख से क्या फर्क पड़ता है, जबकि सारी जनता जानती है कि सरकारी एजेंसियों का चुनाव में धड़ल्ले से सर्वत्र इस्तेमाल होता है।

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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो मुद्दे गुनाह के पाए हैं, वे गौण हैं। लेकिन अदालत में समूची सच्चाई कभी सिद्ध नहीं होती और आइसबर्ग के शिखर की तरह जितनी सच्चाई सिद्ध हो जाए, उसके लिए हमें इनसान की लापरवाही के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। लेकिन इलाहाबाद में क्या सिद्ध हुआ और क्या नहीं हुआ, यह महत्वपूर्ण नहीं है। रायबरेली में इंदिरा गांधी की ओर से क्या किया गया वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि सारे देश में, सीट-सीट पर आज चुनाव के नाम पर क्या चल रहा है। किसने हुकूमत को आज एक असंख्य तानोबानोवाली लेवी प्रणाली का रूप दे दिया है?

सरकारी खजाने में जमा होने वाले टैक्स के अलावा हर स्तर पर एक प्रायवेट चौथ की प्रणाली क्यों शुरू हो गई है? कांग्रेस की वर्तमान हुकूमत क्योंकि इन सारे प्रश्नों का उत्तर सिर्फ अपनी मोटी चमड़ी का सार्वजनिक प्रदर्शन करके देती है, इसलिए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में निजी न्याय से परे एक ऐतिहासिक न्याय भी है। निजी न्याय की पकड़ से इंदिरा गांधी निकल सकती हैं, लेकिन ऐतिहासिक न्याय के तकाजों का उनके पास क्या जवाब हैं? इस्तीफा देकर वे यह प्रदर्शित कर सकती थीं कि ऐतिहासिक न्याय के तकाजों के प्रति वे संवेदनशील हैं। लेकिन यदि वे कुर्सी पर बनी रहीं, तो भी इतिहास की चुनौतियों का उत्तर तो उन्हें देना ही होगा।

इलाहाबाद के जज के सबसे बड़े सवाल वे हैं, जो परसों के फैसले में नहीं लिखे गए। समूची जनता ये सवाल दिल्ली के हाकिमों से पूछ रही है, और हाकिम कह रहे हैं कि एक अकेला जज अपने कास्टिंग वोट से करोड़ों लोगों की पसंद तो ध्वस्त नहीं कर सकता। लेकिन जज अकेला नहीं है, यह अंशत: गुजरात के चुनावों ने सिद्ध किया है। लेकिन इंदिरा गांधी से इस्तीफे की उम्मीद करना शायद आशावादियों का निरा सु:स्वप्न था। राज करने के लिए जो नेता नियमों और मर्यादाओं की जरूरत महसूस न करे (दरअसल इन चीजों से राजकाज ज्यादा आसान बनता है, और कुर्सी अधिक प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित हो उठती है) उस नेता से महज शोभनीयता के खातिर राजत्याग की उम्मीद रखना दुराशा नहीं तो क्या है?

निश्चय ही इंदिरा गांधी के इस्तीफे से भारतीय गणतंत्र की स्थिरता के कुछ भयावह सवाल खड़े हो सकते थे। लेकिन आगे पीछे तो हमें यह तय करना ही होगा कि यह राष्ट्र-राज्य चक्रवर्ती व्यक्तियों के भरोसे टिका हुआ है या वह भारत की जनता द्वारा अनुमोदित संस्थाओं और नियमों के भरोसे टिका है। जवाहरलाल नेहरू और लालबहादुर शास्त्री के उत्तराधिकार के मामले जिस ढंग से भारत ने निपटाए, उससे यह भय निराधार ही लगता है कि भारत में प्रधानमंत्री का परिवर्तन राज्यक्रांति की तरह भूकंपकारी है। फिर भी वह भय है, और सब उससे ग्रस्त हैं। लेकिन इंदिरा गांधी अपने इस्तीफे द्वारा देश की राजनीतिक नियामतों में एक महत्वपूर्ण वरदान और जोड़ सकती थीं। यदि वे अलग हट जातीं, तो देश को एक योग्य और प्रशंसित नेता हमेशा रिजर्व में उपलब्ध होता, और किसी भी संकट के क्षण में वे फिर से प्रधानमंत्री बन सकती थीं। क्या इस देश में भूतपूर्व प्रधानमंत्री कहा जाने वाला कोई व्यक्ति कभी होगा ही या नहीं?

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0 Comments

  1. D.P.Toshniwal

    June 25, 2011 at 11:16 am

    it is better to observe a two minutes silence in praying for the sake of democracy then to comment anything.

  2. मदन कुमार तिवारी

    June 25, 2011 at 11:30 am

    सरकारी खजाने में जमा होने वाले टैक्स के अलावा हर स्तर पर एक प्रायवेट चौथ की प्रणाली क्यों शुरू हो गई है? यह चौथ अब देश की जनता की जान ले रही है । काम करवाना है तो कहीं से भी लाकर दो लेकिन घुस दो । घर बेच दो बेटे की नौकरी चाहिये तो ।कब मिटेगा यह सब ? मिटेगा भी ?

  3. vimlesh

    June 26, 2011 at 2:06 pm

    गतांक (सोनिया…भाग-३) से आगे जारी…
    राजीव से विवाह के बाद सोनिया और उनके इटालियन मित्रों को स्नैम प्रोगैती की ओट्टावियो क्वात्रोची से भारी-भरकम राशियाँ मिलीं, वह भारतीय कानूनों से बेखौफ़ होकर दलाली में रुपये कूटने लगा। कुछ ही वर्षों में माइनो परिवार जो गरीबी के भंवर में फ़ँसा था अचानक करोड़पति हो गया । लोकसभा के नयेनवेले सदस्य के रूप में मैंने 19 नवम्बर 1974 को संसद में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी से पूछा था कि “क्या आपकी बहू सोनिया गाँधी, जो कि अपने-आप को एक इंश्योरेंस एजेंट बताती हैं (वे खुद को ओरियंटल फ़ायर एंड इंश्योरेंस कम्पनी की एजेंट बताती थीं), प्रधानमंत्री आवास का पता उपयोग कर रही हैं?” जबकि यह अपराध है क्योंकि वे एक इटालियन नागरिक हैं (और यह विदेशी मुद्रा उल्लंघन) का मामला भी बनता है”, तब संसद में बहुत शोरगुल मचा, श्रीमती इन्दिरा गाँधी गुस्सा तो बहुत हुईं, लेकिन उनके सामने और कोई विकल्प नहीं था, इसलिये उन्होंने लिखित में यह बयान दिया कि “यह गलती से हो गया था और सोनिया ने इंश्योरेंस कम्पनी से इस्तीफ़ा दे दिया है” (मेरे प्रश्न पूछने के बाद), लेकिन सोनिया का भारतीय कानूनों को लतियाने और तोड़ने का यह सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। 1977 में जनता पार्टी सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय के जस्टिस ए.सी.गुप्ता के नेतृत्व में गठित आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी थी, उसके अनुसार “मारुति” कम्पनी (जो उस वक्त गाँधी परिवार की मिल्कियत था) ने “फ़ेरा कानूनों, कम्पनी कानूनों और विदेशी पंजीकरण कानून के कई गंभीर उल्लंघन किये”, लेकिन ना तो संजय गाँधी और ना ही सोनिया गाँधी के खिलाफ़ कभी भी कोई केस दर्ज हुआ, ना मुकदमा चला। हालांकि यह अभी भी किया जा सकता है, क्योंकि भारतीय कानूनों के मुताबिक “आर्थिक घपलों” पर कार्रवाई हेतु कोई समय-सीमा तय नहीं है।

    जनवरी 1980 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी पुनः सत्तासीन हुईं। सोनिया ने सबसे पहला काम यह किया कि उन्होंने अपना नाम “वोटर लिस्ट” में दर्ज करवाया, यह साफ़-साफ़ कानून का मखौल उड़ाने जैसा था और उनका वीसा रद्द किया जाना चाहिये था (क्योंकि उस वक्त भी वे इटली की नागरिक थीं)। प्रेस द्वारा हल्ला मचाने के बाद दिल्ली के चुनाव अधिकारी ने 1982 में उनका नाम मतदाता सूची से हटाया। लेकिन फ़िर जनवरी 1983 में उन्होंने अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा लिया, जबकि उस समय भी वे विदेशी ही थीं (आधिकारिक रूप से उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिये अप्रैल 1983 में आवेद दिया था)। हाल ही में ख्यात कानूनविद,ए.जी.नूरानी ने अपनी पुस्तक “सिटीजन्स राईट्स, जजेस एंड अकाऊण्टेबिलिटी रेकॉर्ड्स” (पृष्ठ 318) पर यह दर्ज किया है कि “सोनिया गाँधी ने जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल के कुछ खास कागजात एक विदेशी को दिखाये, जो कागजात उनके पास नहीं होने चाहिये थे और उन्हें अपने पास रखने का सोनिया को कोई अधिकार नहीं था।“ इससे साफ़ जाहिर होता है उनके मन में भारतीय कानूनों के प्रति कितना सम्मान है और वे अभी भी राजतंत्र की मानसिकता से ग्रस्त हैं। सार यह कि सोनिया गाँधी के मन में भारतीय कानून के सम्बन्ध में कोई इज्जत नहीं है, वे एक महारानी की तरह व्यवहार करती हैं। यदि भविष्य में उनके खिलाफ़ कोई मुकदमा चलता है और जेल जाने की नौबत आ जाती है तो वे इटली भी भाग सकती हैं। पेरू के राष्ट्रपति फ़ूजीमोरी जीवन भर यह जपते रहे कि वे जन्म से ही पेरूवासी हैं, लेकिन जब भ्रष्टाचार के मुकदमे में उन्हें दोषी पाया गया तो वे अपने गृह देश जापान भाग गये और वहाँ की नागरिकता ले ली।

    भारत से घृणा करने वाले मुहम्मद गोरी, नादिर शाह और अंग्रेज रॉबर्ट क्लाइव ने भारत की धन-सम्पदा को जमकर लूटा, लेकिन सोनिया तो “भारतीय” हैं, फ़िर जब राजीव और इन्दिरा प्रधानमंत्री थे, तब बक्से के बक्से भरकर रोज-ब-रोज प्रधानमंत्री निवास से सुरक्षा गार्ड चेन्नई के हवाई अड्डे पर इटली जाने वाले हवाई जहाजों में क्या ले जाते थे? एक तो हमेशा उन बक्सों को रोम के लिये बुक किया जाता था, एयर इंडिया और अलिटालिया एयरलाईन्स को ही जिम्मा सौंपा जाता था और दूसरी बात यह कि कस्टम्स पर उन बक्सों की कोई जाँच नहीं होती थी। अर्जुन सिंह जो कि मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं और संस्कृति मंत्री भी, इस मामले में विशेष रुचि लेते थे। कुछ भारतीय कलाकृतियाँ, पुरातन वस्तुयें, पिछवाई पेंटिंग्स, शहतूश शॉलें, सिक्के आदि इटली की दो दुकानों, (जिनकी मालिक सोनिया की बहन अनुस्का हैं) में आम तौर पर देखी जाती हैं। ये दुकानें इटली के आलीशान इलाकों रिवोल्टा (दुकान का नाम – एटनिका) और ओर्बेस्सानो (दुकान का नाम – गनपति) में स्थित हैं जहाँ इनका धंधा नहीं के बराबर चलता है, लेकिन दरअसल यह एक “आड़” है, इन दुकानों के नाम पर फ़र्जी बिल तैयार करवाये जाते हैं फ़िर वे बेशकीमती वस्तुयें लन्दन ले जाकर “सौथरबी और क्रिस्टीज” द्वारा नीलामी में चढ़ा दी जाती हैं, इन सबका क्या मतलब निकलता है? यह पैसा आखिर जाता कहाँ है? एक बात तो तय है कि राहुल गाँधी की हार्वर्ड की एक वर्ष की फ़ीस और अन्य खर्चों के लिये भुगतान एक बार केमैन द्वीप की किसी बैंक के खाते से हुआ था। इस सबकी शिकायत जब मैंने वाजपेयी सरकार में की तो उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया, इस पर मैंने दिल्ली हाइकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की। हाईकोर्ट की बेंच ने सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन तब तक सरकार गिर गई, फ़िर कोर्ट नें सीबीआई को निर्देश दिये कि वह इंटरपोल की मदद से इन बहुमूल्य वस्तुओं के सम्बन्ध में इटली सरकार से सहायता ले। इटालियन सरकार ने प्रक्रिया के तहत भारत सरकार से अधिकार-पत्र माँगा जिसके आधार पर इटली पुलिस एफ़आईआर दर्ज करे। अन्ततः इंटरपोल ने दो बड़ी रिपोर्टें कोर्ट और सीबीआई को सौंपी और न्यायाधीश ने मुझे उसकी एक प्रति देने को कहा, लेकिन आज तक सीबीआई ने मुझे वह नहीं दी, और यह सवाल अगली सुनवाई के दौरान फ़िर से पूछा जायेगा। सीबीआई का झूठ एक बार और तब पकड़ा गया, जब उसने कहा कि “अलेस्सान्द्रा माइनो” किसी पुरुष का नाम है, और “विया बेल्लिनी, 14, ओरबेस्सानो”, किसी गाँव का नाम है, ना कि “माईनो” परिवार का पता। बाद में सीबीआई के वकील ने कोर्ट से माफ़ी माँगी और कहा कि यह गलती से हो गया, उस वकील का “प्रमोशन” बाद में “ऎडिशनल सॉलिसिटर जनरल” के रूप में हो गया, ऐसा क्यों हुआ, इसका खुलासा तो वाजपेयी-सोनिया की आपसी “समझबूझ” और “गठजोड़” ही बता सकता है।

    इन दिनों सोनिया गाँधी अपने पति हत्यारों के समर्थकों MDMK, PMK और DMK से सत्ता के लिये मधुर सम्बन्ध बनाये हुए हैं, कोई भारतीय विधवा कभी ऐसा नहीं कर सकती। उनका पूर्व आचरण भी ऐसे मामलों में संदिग्ध रहा है, जैसे कि – जब संजय गाँधी का हवाई जहाज नाक के बल गिरा तो उसमें विस्फ़ोट नहीं हुआ, क्योंकि पाया गया कि उसमें ईंधन नहीं था, जबकि फ़्लाईट रजिस्टर के अनुसार निकलते वक्त टैंक फ़ुल किया गया था, जैसे माधवराव सिंधिया की विमान दुर्घटना के ऐन पहले मणिशंकर अय्यर और शीला दीक्षित को उनके साथ जाने से मना कर दिया गया। इन्दिरा गाँधी की मौत की वजह बना था उनका अत्यधिक रक्तस्राव, न कि सिर में गोली लगने से, फ़िर सोनिया गाँधी ने उस वक्त खून बहते हुए हालत में इन्दिरा गाँधी को लोहिया अस्पताल ले जाने की जिद की जो कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AAIMS) से बिलकुल विपरीत दिशा में है? और जबकि “ऐम्स” में तमाम सुविधायें भी उपलब्ध हैं, फ़िर लोहिया अस्पताल पहुँच कर वापस सभी लोग AAIMS पहुँचे, और इस बीच लगभग पच्चीस कीमती मिनट बरबाद हो गये? ऐसा क्यों हुआ, क्या आज तक किसी ने इसकी जाँच की? सोनिया गाँधी के विकल्प बन सकने वाले लगभग सभी युवा नेता जैसे राजेश पायलट, माधवराव सिन्धिया, जितेन्द्र प्रसाद विभिन्न हादसों में ही क्यों मारे गये? अब सोनिया की सत्ता निर्बाध रूप से चल रही है, लेकिन ऐसे कई अनसुलझे और रहस्यमयी प्रश्न चारों ओर मौजूद हैं, उनका कोई जवाब नहीं है, और कोई पूछने वाला भी नहीं है, यही इटली की स्टाइल है।

    [आशा है कि मेरे कई “मित्रों” (?) को कई जवाब मिल गये होंगे, जो मैंने पिछली दोनो पोस्टों में जानबूझकर नहीं उठाये थे, यह भी आभास हुआ होगा कि कांग्रेस सांसद “सुब्बा” कैसे भारतीय नागरिक ना होते हुए भी सांसद बन गया (क्योंकि उसकी महारानी खुद कानून का सम्मान नहीं करती), क्यों बार-बार क्वात्रोच्ची सीबीआई के फ़ौलादी (!) हाथों से फ़िसल जाता है, क्यों कांग्रेस और भाजपा एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं? क्यों हमारी सीबीआई इतनी लुंज-पुंज है? आदि-आदि… मेरा सिर्फ़ यही आग्रह है कि किसी को भी तड़ से “सांप्रदायिक या फ़ासिस्ट” घोषित करने से पहले जरा ठंडे दिमाग से सोच लें, तथ्यों पर गौर करें, कई बार हमें जो दिखाई देता है सत्य उससे कहीं अधिक भयानक होता है, और सत्ता के शीर्ष शिखरों पर तो इतनी सड़ांध और षडयंत्र हैं कि हम जैसे आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकते, बल्कि यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि सत्ता और धन की चोटी पर बैठे व्यक्ति के नीचे न जाने कितनी आहें होती हैं, कितने नरमुंड होते हैं, कितनी चालबाजियाँ होती हैं…. राजनीति शायद इसी का नाम है..

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