प्रिय यशवंत जी, आपके पोर्टल से पता चला कि विष्णु जी दिल्ली में हैं। विष्णु जी को मैं उस समय से जानता हूं जब वह लखनऊ, जागरण में थे। हालांकि वह मुझे नहीं जानते होंगे। लखनऊ विश्वविद्यालय से एमजे कंप्लीट करने के बाद काम सीखन के लिए कहीं ठिकाना नहीं मिल रहा था क्योंकि पत्रकारिता में कोई गाड फादर नहीं था। ऐसे में मुझे किसी ने बताया कि तुम विष्णु जी से मिलो, शायद कुछ बात बन जाए और पत्रकारिता सीखने के लिए जागरण में तुम्हें कुछ दिन बैठने का मौका मिल जाए। वर्ष 95 के आसपास की मुझे वह तिथि तो नहीं याद लेकिन मैं जागरण में उनसे मिला तो उन्होंने मुझे बहुत सलीके से समझाया।
उन्होंने मुझसे कहा कि तुम पत्रकार बनकर अपनी जिंदगी खराब मत करो, कठिन काम है, तुमसे नहीं होगा, तुम्हारी उम्र साथ है, कंपटीशन निकाल लोगे तो बात बन जाएगी और जिंदगी भी। मैं अपनी जिद पर अड़ा तो बोले- बेटा पत्रकार बनना है तो शादी मत करना। उनकी बातें अभी भी याद आती हैं। मुझे उन्होंने वंदना दीक्षित के निर्देशन में देश-विदेश की डेस्क पर बैठाकर काम करने का मौका दिया। अब मैं एटा में पत्रकार के रूप में कार्यरत हूं। मैंने अपने को नौकर पत्रकार के रूप में कभी नहीं देखा। लखनऊ वाले विनोद भैयाजी का अंदाज अलग ही था। विष्णु जी के मुंह से गाली कभी नहीं सुनी। साहित्य एवं पत्रकारिता में जाति खोजने वालों को भी मैं पत्रकार नहीं समझता। इलाहाबाद में ब्राह्मण और ठाकुर साहित्यकारों के बीच गालीगलौज की बात तो सुनी थी लेकिन पत्रकार भी जातिवादी होगा, यह नहीं सुना।
सोचता हूं पत्रकार यदि नेताओं की तरह जाति का सहारा लेता है तो उसका आत्मबल जरूर कमजोर होगा और उसको अपने काम पर भरोसा नहीं होगा। श्री प्रभात रंजन दीन ने मुझसे कहा था कि हमेशा याद रखना कि पत्रकारिता में काम की कद्र विरोधी भी करते हैं। हमें अपने काम पर भरोसा रखना चाहिए। इसलिए उन लोगों को पोर्टल पर ज्यादा महत्व न दीजिए जो पत्रकारिता को भी जातिवाद में बांटने में तुल जाएं और पत्रकारिता का ही सत्यानाश कर दें। रही बात आपके पोर्टल की तो वह पत्रकारों के शोषण को उजागर करने के लिए प्रयास करता है, जो सराहनीय है। मुझे लगता है कि आक्रामक आलोचना अच्छी बात हो सकती है लेकिन यदि पत्रकार जाति को आगे बढ़ने की सीढ़ी बनाए तो वह ज्यादा अच्छा है कि नेता बने।
–अवधेश दीक्षित