एनडीटीवी की नीता शर्मा को साल के सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर का पुरस्कार मिलने की खबर बुधवार को आई, तो सबसे पहले इफ्तिखार गिलानी का चेहरा आंखों में घूम गया। अभी पिछले 25 को ही तो कांस्टिट्यूशन क्लब के बाहर मिले थे वे।
यूआईडी वाली मीटिंग में वह दिखे थे। वैसा ही निर्दोष चेहरा, हमेशा की तरह विनम्र चाल और कंधे पर झोला… शायद। खबर आते ही एक एक वरिष्ठ सहकर्मी उछले थे, ”गजब की रिपोर्टर है भाई… उसकी दिल्ली पुलिस में अच्छी पैठ है।” जब मैंने इफ्तिखार का जिक्र किया, तो उन्होंने अजीब सा मुंह बना लिया।
एक रिपोर्टर की ”दिल्ली पुलिस में अच्छी पैठ” का होना क्या किसी दूसरे रिपोर्टर के लिए जेल का सबब बन सकता है? टीवी देखने वाले नीता शर्मा को जानते हैं तो प्रेस क्लब और आईएनएस पर भटकने वाले गिलानी को। लेकिन टीवी और अखबारों के न्यूजरूम में कैद लोग शायद यह नहीं जानते कि अगर हिंदुस्तान टाइम्स में रहते हुए नीता शर्मा ने गलत रिपोर्टिंग नहीं की होती, तो शायद गिलानी को तिहाड़ में उस हद तक प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ती जिसके लिए ‘अमानवीय’ की संज्ञा भी छोटी पड़ जाती है।
गिलानी की लिखी पुस्तक ‘जेल में कटे वे दिन’ पढ़ जाएं, तो जानेंगे कि इसी दिल्ली में कैसे एक पत्रकार खुद अपनी ही बिरादरी का शिकार बनता है। गिलानी की कहानी में खलनायक नीता शर्मा उतनी नहीं, जितने वे पत्रकार व संस्थान हैं जिन्होंने उन्हें पुरस्कार दिया है, जिन्होंने खबरें लाने को पुलिस का भोंपू बनने का पर्याय समझ लिया है, जिन पत्रकारों ने कभी जाना ही नहीं कि आखिर आईएनएस-प्रेस क्लब और पुलिस हेडक्वार्टर के बीच की कड़ी उन्हीं के बीच जगमगाते कुछ चेहरे हैं।
हिंदू के पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने नीता शर्मा के बारे में जो लिखा है, उसे जरा देखें : ”जहां तक उस क्राइम रिपोर्टर का सवाल है जिसने दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा फीड की गई स्टोरी को छापा, उसने कभी कोई माफी नहीं मांगी। एक सहकर्मी की शादी में इस रिपोर्टर से मेरा परिचय 2004 में हुआ। मैंने जब उससे कहा कि इफ्तिखार गिलानी के मामले में उसने जो हिट काम किया है, उसे लेकर मेरी कुछ आपत्तियां हैं, तो उसने कहा, मैं किसी इफ्तिखार गिलानी को नहीं जानती। यह सुनकर मैं नाराज तो जरूर हुआ, लेकिन सोचा कि उसे एक सलाह दे ही डालूं, कि जिन पुलिस अधिकारियों ने उस स्टोरी को प्लांट करने में तुम्हारा इस्तेमाल किया, वे तो अपनी प्रतिष्ठा बचा कर निकल लिए, लेकिन जो तुमने किया, वह हमेशा एक पत्रकार के रूप में तुम्हारी प्रतिष्ठा पर दाग की तरह बना रहेगा जब तक कि तुम इफ्तिखार से माफी नहीं मांग लेती।”
सिद्धार्थ आगे लिखते हैं : ”नीता शर्मा की स्टोरी पुलिस के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि यह ठीक ऐसे समय में आई जब अनुहिता मजूमदार और इफ्तिखार के अन्य मित्रों द्वारा तैयार एक याचिका खबरों में थी। 10 जून को इस बारे में एक छोटी सी खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में आई थी और पुलिस व आईबी को तुरंत अहसास हो गया कि किसी भी किस्म की पत्रकारीय एकजुटता को सिर उठाते ही कुचल देना उनके लिए जरूरी है। संपादकों पर दबाव बनाया जा सकता था (और वे झुके हुए ही थे) लेकिन इफ्तिखार के पक्ष में किए जा रहे प्रचार अभियान के खिलाफ इससे बेहतर क्या हो सकता था कि उसी के द्वारा फर्जी स्वीकारोक्ति करवाई जाए कि वह आईएसआई का एजेंट रहा है। तुरंत ऐसी खबरों की बाढ़ आ गई और अधिकांश भारतीय मीडिया में कलंकित करने वाली रिपोर्टें आने लगीं जिसमें इफ्तिखार पर एक षडयंत्रकारी और आतंकवादी, तस्कर और जिहादी, यौन दुष्कर्मी और भारतीय जनता पार्टी के सांसद व कभी खुद पत्रकार रहे बलबीर पुंज के शब्दों में ‘पत्रकार होने का लाभ ले रहे एक जासूस’ होने के आरोप लगाए जाने लगे।”
ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट के तहत सात महीने जेल में रहे कश्मीर टाइम्स के तत्कालीन ब्यूरो प्रमुख इफ्तिखार गिलानी के मामले में रिपोर्टिंग के स्तर पर न सिर्फ नीता शर्मा ने, बल्कि आज तक के दीपक चौरसिया और दैनिक जागरण आदि अखबारों ने भी गड़बड़ भूमिका अदा की। मन्निका चोपड़ा ने गिलानी से एक इंटरव्यू लिया था (जो अब भी सैवंती नैनन की वेबसाइट ‘द हूट’ पर मौजूद है) जिसमें गिलानी ने बताया था कि दीपक चौरसिया ने उनके घर से लाइव रिपोर्ट किया कि गिलानी फरार हो गए हैं, जबकि वह घर में ही थे। दीपक चौरसिया ने ‘सनसनीखेज खबर’ दी कि पुलिस ने गिलानी के पास से एक लैपटॉप बरामद किया जिसमें अकाट्य सबूत हैं। गिलानी ने साक्षात्कार में कहा, ‘मेरे पास लैपटॉप है ही नहीं।’
इस साक्षात्कार के कुछ अंश देखें: ”दैनिक जागरण ने लगातार अपमानजनक रिपोर्टें छापीं और इसकी कीमत मुझे तिहाड़ जेल में चुकानी पड़ी क्योंकि अधिकतर कैदी उसी अखबार को पढ़ते थे। तीन हत्याओं के आरोप में कैद एक अपराधी ने मुझ पर हमला कर दिया यह कहते हुए कि मैं भारतीय नहीं हूं, गद्दार हूं। उसने इन रिपोर्टों को पढ़ा था। कुछ हिंदी और उर्दू के अखबार खबर का शीर्षक लगा रहे थे, ‘इफ्तिखार गिरफ्तार, अनीसा फरार’। (अनीसा इफ्तिखार की पत्नी हैं)।
”लेकिन असल चीज जिसने मुझ पर और मेरे परिवार पर सबसे ज्यादा असर डाला, वह 11 जून को हिंदुस्तान टाइम्स में छपी चार कॉलम की स्टोरी थी जो कहती थी कि मैं आईएसआई का एजेंट हूं। यह खबर नीता शर्मा के नाम से थी। आश्चर्यजनक रूप से रिपोर्टर ने मेरे हवाले से बताया कि मैंने एक सेशन कोर्ट में सुनवाई के लिए पेश होते वक्त स्वीकार कर लिया है कि मैं एजेंट हूं और मैंने गैर-कानूनी काम किए हैं। बाद में एक पुलिस अधिकारी ने मुझसे पूछा कि क्या मैंने किसी रिपोर्टर से बात की थी, तो मैंने इनकार कर दिया। इसने वास्तव में मेरे परिवार को और मुझे काफी दुख पहुंचाया। अगले ही दिन मेरी पत्नी ने एचटी की कार्यकारी और संपादकीय निदेशक शोभना भरतिया से इसकी शिकायत की और कहा कि यह सब गलत है, उन्हें माफी मांगनी चाहिए। अखबार ने अगले दिन माफी छापी।”
सिर्फ एचटी ने ही नहीं, गिलानी के रिहा होने पर कई पत्रकारों ने उनसे माफी मांगी, खेद जताया। सिर्फ नीता शर्मा उन्हें भूल गईं और कामयाबी की सीढि़यां चढ़ते हुए एनडीटीवी पहुंच गईं। आज वह सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर भी बन गई हैं। गिलानी पत्रकार हैं, सो मामला सामने आ गया। क्या हम कभी जान पाएंगे कि नीता शर्मा की ”दिल्ली पुलिस में अच्छी पैठ” का शिकार कितने निर्दोष लोग अब तक बने होंगे। शायद नहीं।
सिद्धार्थ वरदराजन ने नीता शर्मा से मुलाकात में जो कहा, वह छह साल पहले की बात है। उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी कि गिलानी वाले मामले पर गलत रिपोर्टिंग में जिस व्यक्ति को वह ‘पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठा पर एक दाग’ झेलने की बात कह रहे थे, उसे आज मीडिया पुरस्कार देगा। गलती उन्हीं की थी, क्योंकि उन्होंने नीता शर्मा को ‘पत्रकार’ मान लिया था।
पत्रकार तो इफ्तिखार हैं, जिन्होंने हुर्रियत नेता गिलानी का दामाद होने के बावजूद अपनी कलम की रोशनाई पर रिश्ते की धुंध कभी नहीं छाने दी, जबकि नीता शर्मा जैसे मीडियाकर्मी उस चरमराती लोकतांत्रिक मूल्य व्यवस्था के एजेंट हैं जिसके पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे खंभे पिघल कर आज एक खौफनाक साजिश के दमघोंटू धुएं में तब्दील हो चुके हैं- जिसमें हर मुसलमान आतंकवादी दिखता है, हर असहमत माओवादी और हर वंचित अपराधी।
लेखक अभिषेक श्रीवास्तव प्रतिभाशाली जर्नलिस्ट हैं. कई अखबारों में काम कर चुके हैं. इन दिनों एक बड़े हिंदी दैनिक के साथ दिल्ली में जुड़े हुए हैं.
शिशुराज यादव
September 6, 2010 at 3:06 pm
अभिषेक श्रीवास्तव जी इसे पढ़कर जड़ हो गए पत्रकारों में ज़रूर चेतना आएगी.