पिछले पांच साल में जो भी निर्देशक मुंबई आए, वे सब मुंबई से बाहर के हैं. बदले दौर में अब सिनेमा अमीरों के लिए बन रहा है. सबकी निगाहें अमीर दर्शकों पर टिकी हैं. यह कहना है वरिष्ठ फ़िल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज का.
सक्रिय हिंदी ब्लागर और कई किताबों के लेखक अजय ब्रह्मात्मज जयपुर के जवाहर कला केंद्र के कृष्णायन सभागार में आयोजित ‘समय, समाज और सिनेमा’ नामक संवाद में बोल रहे थे. तकरीबन सवा सौ दर्शकों-श्रोताओं की मौजूदगी में अजय ने कहा कि हिंदी सिनेमा मुंबई की बपौती नहीं है. हर प्रदेश का अपना सिनेमा होना चाहिए, ताकि फ़िल्में बनें-बढ़ें और फलें-फूलें. उन्होंने ये भी निष्कर्ष पेश किया कि भविष्य का सिनेमा सिर्फ बॉलीवुड का नहीं होगा.
अजय ने प्रादेशिक सिनेमा के विकास के बारे में कहा कि फ़िल्मों का विकास तभी होगा, जब वो मुंबई से बाहर निकलेंगी. अजय मानते हैं कि सिनेमा अमर है और वो कभी नहीं मर सकता. यही वज़ह है कि मोबाइल तक पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं. डिजिटल कैमरे पर बनी फ़िल्में पूरे देश में रिलीज की जा रही हैं. बावज़ूद इसके, निर्माताओं के लिए सिनेमा प्रोडक्ट है और उनकी निगाहें अमीर दर्शकों पर टिकी हैं. अजय ने फ़िल्म इंडस्ट्री के अपवादों और विशिष्ट संयोगों की चर्चा करते हुए कहा कि अभावों में प्रयोग होते हैं और आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग अधिक प्रखरता का परिचय देते हुए प्रयोगवादी फ़िल्में बनाते हैं. अजय ने बताया कि महाराष्ट्र में मराठी फिल्म बनाने वालों को 15 से 60 लाख तक की सब्सिडी मिलती है. राजस्थान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. पर ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए.
अजय से लोगों ने सवाल भी पूछे. युवा फ़िल्मकार, ब्लॉगर और मूर्तिकार निधि सक्सेना ने गॉसिप, सिनेमा के कैनवॉस, समाज पर फ़िल्मों का प्रभाव, सिनेमा और बाज़ार, प्रगतिशील और समानांतर सिनेमा से जुड़े कई ऐसे सवाल किए, जिनके जवाब से दर्शकों की सिनेमाई समझ मज़बूत हुई. एक राजस्थानी फिल्म बनाने में जुटे पिंकसिटी के पत्रकार रामकुमार सिंह ने भी कई ज़रूरी प्रश्न अजय ब्रह्मात्मज से किए. डॉ. दुष्यंत ने कार्यक्रम का संचालन किया. आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार और भारतेंदु हरिश्चंद्र संस्थान के अध्यक्ष ईश मधु तलवार, संस्थान के उपाध्यक्ष एवं लेखक फारुक आफरीदी, लेखक प्रेमचंद गांधी समेत जयपुर के बहुत-से लेखक-संस्कृतिकर्मी हाज़िर रहे.
Abhishek sharma
April 27, 2010 at 4:27 pm
bade filmkaro ki chatukarita me kalamkaro ki kalam bhi ghis chuki hai.badi badi baten karne se kuchh nahi hota…..
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