शशि शेखर पत्रकारिता में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी आदर्श का साथ नहीं छोड़ते। जब तमाम अखबारों की खबरें बिक रही थीं और पत्रकारिता के नाम पर सौदेबाजी हो रही थी, तो वे आर्थिक मंदी के दौर में भी सिद्धांतों तथा सच के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने प्रबंधन को ही नहीं, हम सबसे भी साफ कह दिया था कि विज्ञापन के लिए कोई भी पत्रकार अपनी अस्मिता नहीं बेचेगा। एक घटना मामूली है मगर संदेश बड़ा है। 10 फरवरी 2008 को वो चंडीगढ़ आये थे। उनके साथ अमर उजाला के निदेशक राजुल महेश्वरी भी थे। होटल से उन्हें अमर उजाला के ट्राईसिटी (चंडीगढ़, पंचकूला और मोहाली) के आठ पेज के पुल आउट के लोकार्पण कार्यक्रम में जाना था। उनके पास लग्जरी कार थी मगर उसी वक्त मैं उनके पास पहुंच गया। वक्त कम था। उन्होंने कहा कि चलो तुम्हारी कार से ही चलते हैं। मेरे पास इंडिका थी।
एसी भी सही काम नहीं कर रहा था। मैं हिचका तो बोले कोई बात नहीं साथ ही चलेंगे। मैंने पीछे का गेट खोला तो उन्होंने राजुल जी को वहां बैठा दिया और खुद मेरे साथ आगे बैठ गए। मैंने कहा, सीट बेल्ट बांधने की जरूरत नहीं, कोई नहीं बोलेगा क्योंकि ट्रैफिक पुलिस का स्टीकर लगा है। इस पर वो तपाक से बोले- नहीं बेटा, पहले हमें नियमों का पालन करना चाहिए, तभी हम दूसरों के बारे में कुछ कहने का हक रखते हैं। उन्होंने मुझे अपनी इलाहाबाद में रिपोर्टिंग के वक्त की एक घटना भी सुनाई। एक प्रसंग और। एक बार शशि शेखर संपादकीय विभाग की समीक्षा मीटिंग के लिए चंडीगढ़ आये। सभी वरिष्ठ साथी बैठक में थे। मैं किसी बात का सटीक उत्तर नहीं दे सका तो शशि जी ने तुरंत टोका और फिर सिखाया कि कैसे पत्रकार को किसी बात की जानकारी हासिल करनी चाहिए। उन्होंने अखबार को यूथफुल बनाने और जीवंत अखबार निकालने के गुर सिखाए। उन्होंने प्रेसीडेंट न्यूज होते हुए भी रिपोर्टिंग की और बेहतरीन लेख लिखे। वो सदैव यह सिखाते कि कभी भी प्राशसनिक कार्यों के बीच यह नहीं भूलना चाहिए कि हम वास्तव में पत्रकार हैं। जब पत्रकारिता के मूल से कट जाएंगे तो किस बात के पत्रकार। मैंने उनसे जितना सीखा, उसके जरिए ही मैं चंद महीनों में पंजाब और हरियाणा राज्य ब्यूरो प्रमुख के रुप में एक सम्मानजनक स्थान बना पाया।
13 मई को लोकसभा चुनाव था। मुझे दैनिक भास्कर के स्टेट हेड कमलेश सिंह का फोन आया कि आपसे हमारे निदेशक पवन अग्रवाल बात करना चाहते हैं। मैं भास्कर दफ्तर पहुंचा तो वहां उनसे वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए बात हुई। उन्होंने मुझे लुधियाना में कार्यकारी संपादक के तौर पर काम का प्रस्ताव दिया। उन्होंने कहा कि मुझे यूथफुल अखबार बनाने वाले संपादक की जरूरत है। मैंने उन्हें बताया कि मुझमें अगर आप यह क्षमता देख रहे हैं तो वह शशि जी की देन है। उनसे अच्छा युथफुल और जीवंत अखबार कौन निकाल सकता है। उन्होंने भी माना कि हां, यह तो सच है कि शशि शेखर से अच्छा यंग अखबार निकालने की क्षमता किसी में नहीं। शशि शेखर अच्छे इंसान भी हैं मगर वो अपने आदर्शों के पक्के हैं। अब वो एडीटर इन चीफ चाहिए होते हैं जो और भी काम करें। मैं उन्हें धन्यवाद कहकर चला आया।
शशि जी कई बार कड़क डांट पिला देते हैं, जिससे डर लगता है मगर यह सच है कि उनकी डांट का असर यह रहा कि मेरा मरा हुआ पत्रकार निखरने लगा। ऐसे शख्स और पत्रकारिता के संरक्षक से तो केवल वही लोग डरेंगे जो कामचोर या मठाधीशी का शौक पालते हैं। वो लोग उनका दिल से सम्मान करते हैं जिनके जीवन को उन्होंने न केवल सुधारा, सिखाया बल्कि गति भी दी। इससे अब तय है कि हिंदुस्तान अखबार में जो कामचोर और मठाधीश बैठे हैं, उन्हें परेशानी होगी ही। जो ईमानदार, पत्रकारिता और अपने पेशे के लिए समर्पित हैं, उनको न केवल प्रोत्साहन मिलेगा बल्कि उनको सम्मान और संरक्षण भी मिलना लाजमी है।
लेखक अजय शुक्ला पत्रकार हैं और इन दिनों अमर उजाला में पंजाब-हरियाणा के स्टेट ब्यूरो प्रमुख के रूप में चंडीगढ़ में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा लिया जा सकता है।
Narain
March 29, 2010 at 7:17 pm
Really nice to read !!!