अखिलेश मिश्र स्मृति राष्ट्रीय परिसंवाद : मानवाधिकार की संकल्पना पहले से ही हमारे समाज में थी या द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आई? क्या राज्य और मानवाधिकार परस्पर विरोधी हैं? अधिकार की बात होने से क्या कर्तव्य गौड़ नहीं हो जाता? ऐसे कई सवाल और चर्चाएं गुरुवार को मालवीय सभागार, लखनऊ में विद्वानों के बहस में पुरजोर उठीं. अवसर था ‘अखिलेश मिश्र स्मृति राष्ट्रीय परिसंवाद’. इस सातवें परिसंवाद का विषय था ‘भारत में राज्य समाज और मानवाधिकार’. अखिलेश मिश्र प्रदेश के वरिष्ट पत्रकार, संवेदनशील साहित्यकार, मार्क्सवादी विचारधारा के चिन्तक एवं सामाजिक कार्यकर्ता थे.
इस अवसर पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एवं उत्तराखंड के पूर्व लोकायुक्त सय्यद हैदर अब्बास रजा ने अध्यक्षी भाषण में पुलिसिंग और ब्यूरौक्रेसी की व्यवस्था में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया. उन्होंने कहा की आज भी ये दोनों व्यवस्थाएं उसी अंग्रेजी कोलोनिअल मानसिकता की धरोहर हैं जहाँ इनकी सार्थकता ही भारतीयों के दमन और मानवाधिकारों के हनन में थी.
परिचर्चा की शुरुआत में वर्धा स्थित महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने ‘राज्य’ एवं भारतीय समाज की संरचना पर चर्चा करते हुए दोनों को ही मूलतः मानवाधिकार विरोधी बताया. श्री राय ने कहा की राज्य और समाज की इन मूल ‘टेंडेंसीज’ को समझते हुए इन्हें दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी, महिलाओं और अन्य कुचले तबकों के मानवाधिकारों के प्रति अधिक से अधिक संवेदनशील बनाने के प्रयत्न होने चाहिये क्योंकि निकट भविष्य में राज्य और वर्ण व्यवस्थित समाज से निजात मिलना मुश्किल है.
दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद ने ध्यान दिलाया की उदारीकरण, मशीनीकरण और टेक्नोलॉजी के विरोधी अक्सर भूल जाते हैं कि दलित और पिछडे़ वर्गों को इनसे फायदा पहुंचा है. मशीन लगने से रोज़गार कम नहीं होते. उन्होंने आंकडे़ दिए कि भारत के 60 फीसदी काम करने वाले जीडीपी में 17.2 फीसदी की हिस्सेदारी निभाते हैं. इसका मतलब आधे से अधिक आबादी घाटे के धंधे में जुटी है और इससे उबरने के लिए आधुनिक तरीकों को अपनाना होगा. श्री प्रसाद ने उदाहरण दिया कि ब्रिटेन में एक हेक्टेयर ज़मीन पर 79 क्विंटल गेंहू पैदा होता है और उतनी ज़मीन पर भारत में महज़ 28 क्विंटल गेहूं पैदा होता है.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सलाहकार एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व डीन प्रोफेसर बी.बी. पांडे ने कहा की भारतीय समाज कर्तव्य प्रधान समाज है. यहां अपने कर्तव्यों की जानकारी सबको है मगर अधिकारों की जानकारी किसी को नहीं. इसलिए अधिकारों की जानकारी इस समाज में बढ़नी चाहिए. उन्होंने भारतीय समाज में कृष्ण के उपदेश ‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते…’ का उदाहरण देते हुए कहा कि ये चिंतन भी न्याय संगत न हो कर नीति संगत है. स्वस्थ शिक्षित समाज के लिए भोजन, शिक्षा और स्वास्थ को मानवाधिकारों में शामिल किये जाना उन्होंने ज़रूरी बताया और कहा की राज्य निजीकरण का रास्ता अपना कर अपनी जिम्मेदारियों से बच रहे हैं और पंचायतें व्यक्तिगत मामलों में दखल देके मानवाधिकारों का हनन कर रही हैं.
समाजिक चिन्तक प्रोफेसर राम पुनियानी ने सांप्रदायिक राजनीति और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों के उल्लंघन पर विस्तार से चर्चा की और मानवाधिकारों के सन्दर्भ में भारतीय राजनीति के इतिहास पर नज़र डाली. उन्होंने अल्पसंख्यकों की राजनीति को ओछी और खतरनाक राजनीति बताया.
‘जदीद मरकज़’ के संपादक हिस्सम सिद्दीकी ने भारतीय राज्य को सुस्त बताया और नागरिकों के मानवाधिकारों के प्रति राज्य की संवेदनहीनता को बढती अराजकता के लिए जिम्मेदार ठहराया. श्री सिद्दकी ने विशेषकर न्यायपालिका, न्यायाधीशों और वकीलों के लुप्त होते सामाजिक सरोकारों पर गहरी चिंता व्यक्त की.
परिसंवाद का आयोजन अकेडमी फॉर रिसर्च ट्रेनिंग एंड ह्यूमन एक्शन (अर्थ) एवं अखिलेश मिश्र ट्रस्ट (अमिट) ने लखनऊ विश्वविद्यालय के मालवीय सभागार में किया. संचालन अर्थ के रमेश दीक्षित ने किया.