Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

स्वार्थ पूर्ति के लिए एक मास्टर का आंदोलन

[caption id="attachment_15223" align="alignleft"]राजीव यादवराजीव यादव[/caption]सुनील उमराव पर्सनालाइज करके आंदोलन चला रहे : पत्रकारिता के नाम पर ‘व्यक्तिवाद’ की भड़ास : आंदोलन के नाम पर हो रहा फर्जीवाड़ा : बहुत सोचा कि लिखा जाए कि नहीं। कई बार लिखने को भी हुआ तो हाथ रुक गए। हमारे करीबी साथी इसे अस्मितावादी राजनीति की उपज भी मानते हैं। बार-बार इस बात का एहसास हुआ कि मैं कहीं अपनी भड़ास तो नहीं निकाल रहा हूं। इस चक्कर में पत्रकारिता की शिक्षा के स्वरूप को लेकर हो रहे आंदोलन को तोड़ने की साजिश तो नहीं कर रहा हूं, जैसा कि और लोग कर रहे हैं। बार-बार पोलिटिकल और पर्सनल से उपजे विचार मेरे मन को उद्वेलित कर रहे थे। खैर, मैंने इस बात को अपने साथी से बताया।

राजीव यादव

राजीव यादवसुनील उमराव पर्सनालाइज करके आंदोलन चला रहे : पत्रकारिता के नाम पर ‘व्यक्तिवाद’ की भड़ास : आंदोलन के नाम पर हो रहा फर्जीवाड़ा : बहुत सोचा कि लिखा जाए कि नहीं। कई बार लिखने को भी हुआ तो हाथ रुक गए। हमारे करीबी साथी इसे अस्मितावादी राजनीति की उपज भी मानते हैं। बार-बार इस बात का एहसास हुआ कि मैं कहीं अपनी भड़ास तो नहीं निकाल रहा हूं। इस चक्कर में पत्रकारिता की शिक्षा के स्वरूप को लेकर हो रहे आंदोलन को तोड़ने की साजिश तो नहीं कर रहा हूं, जैसा कि और लोग कर रहे हैं। बार-बार पोलिटिकल और पर्सनल से उपजे विचार मेरे मन को उद्वेलित कर रहे थे। खैर, मैंने इस बात को अपने साथी से बताया।

उन्होंने झल्लाहट भरे लहजे में जवाब दिया तो मेरा मनोबल और बढ़ गया। उन्होंने कहा कि बच्चों के हाथ में बंदूक देने पर यही होता है। यह सुनकर मैं थोड़ा रुका। सोचा कि अगर बच्चा बंदूक पकड़ ही लिया है तो चलाएगा ही। रहा पत्रकारिता के स्वरूप को लेकर चल रहे आंदोलन का तो जब उसका नेता ही नहीं इसे जानता और समझता तो इस पर बात करना और जरूरी हो जाता है। मेरे दिमाग में लिखते वक्त सुनील उमराव केंद्र में थे इसलिए लेख में मैंने उनके सहारे अपनी बातों को रखा है। और यह भी हो सकता है कि मैं अपना मूल्यांकन सही नहीं कर पा रहा हूं और मैंने उन पर ही लिखा हो। जैसा कि मेरे साथियों का भी कहना है कि लिख के क्या कर लोगे? पर मेरे दिमाग में यही बात है कि आने वाले दौर के आंदोलनों के लिए सबक और हमारे अंदर इससे परिपक्वता आएगी। पर यहां बात यह है कि आज के दौर में हमारे मास्टरों को व्यवस्था ने मध्यवर्ग की उस चासनी में डाल दिया है जहां उनकी मानसिकता हद दर्जे तक व्यक्तिवादी हो गयी है। इसे समझना होगा। पर आज जब मैं इस लेख को पूरा कर रहा था तो अखबार के माध्यम से पता चला कि इस आंदोलन पर समिति बनाई गयी है जो दो हफ्ते में जवाब देगी कि इस आंदोलन ने कैंपस में अनुशासनहीनता का माहौल पैदा किया है और इस आंदोलन को बाहरी तत्व चला रहे हैं। यह सरकारी मानसिकता है जो हर लोकतांत्रिक आंदोलन को अपने पैमाने में देखती है। जहां तक बाहरी और अंदरुनी होने का सवाल है तो यह हमारे विश्वविद्यालयों का दीवालियापन है क्योंकि विश्वविद्यालय एक लोकतांत्रिक संस्था है और वहां कोई भी व्यक्ति बिना किसी रोक-टोक के आने का अधिकारी ही नहीं, बल्कि उस पर सवाल उठाने का भी अधिकारी है।  अगर किसी व्यक्ति को रोका जाता है तो यह हमारे अधिकारों का दमन है। दूसरी ओर सवाल यहां भी उठता है कि अगर कोई लोकतांत्रिक ढंग से, वो भी निजीकरण विरोधी आंदोलन चल रहा है तो उस आंदोलन में भी कितने लोकतांत्रिक ढंग से रणनीति बनाई जा रही है। अगर वह आंदोलन सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति जिसे खुद को तीस-चालीस हजार रुपए पाने और अपने घर के आर्थिक स्तर पर गुमान हो और इसी सामंती सोच के तहत इसमें वह व्यक्ति लगा हो और औरों की किसी बात को न सुनता हो तो इस पर विचार करना ही होगा। फिर भी हमारे साथी से कहने पर इसका वो यही उत्तर देते हैं कि अब तुम मुझे समझाओगे।

बात इलाहाबाद के पत्रकारिता विभाग के सुनील उमराव के बारे में है। पिछले दो हफ्ते से हम उनके साथ या कहें कि उनके नेतृत्व में एक निजीकरण विरोधी आंदोलन में साथ रहे। इस आंदोलन को धार देने के लिए हमने हर स्तर पर उनका साथ दिया। इस बात को स्थापित ही नहीं बल्कि एक मॉडल बनाने की भी मुहिम थी कि एक शिक्षक का यह धर्म है कि वह आने वाली नस्लों के लिए शिक्षा के जनपक्षधर स्वरूप को बचाए रखने के लिए जरूरत पड़े तो सड़कों पर भी उतरे। पिछले कई सालों में पहली बार हुआ कि निजीकरण का यह आंदोलन पत्रकारिता विभाग के छात्रों और पत्रकार भाइयों के सहयोग से राष्ट्रीय फलक पर दर्ज हुआ। इस पर सरकार के नुमाइंदों को भी बोलना पड़ा।

पर इसके इतर इस आंदोलन का दूसरा पहलू भी है। वो सुनील उमराव का व्यक्तिगत द्वेष। इस द्वेष के बारे में ऐसा नहीं है कि मुझे बाद में मालूम चला पर मैंने सोचा कि एक बड़े आंदोलन के साथ यह व्यक्तिगत द्वेष कम हो जाएगा या पीछे छूट जाएगा। पर मेरी यह सोच गलत निकली। इस आंदोलन की पृष्ठभूमि में जो सेल्फफाइनेंस कोर्स बना और उसको संचालित करने वाले जीके राय से मैं कतई इत्तफाक नहीं रखता। पर किसी आंदोलन को राजनैतिक तौर पर न लड़ कर अपनी पर्सनल लड़ाई तक सीमित रखने से भी मैं इत्तफाक नहीं रखता। रही बात जीके राय की तो वो 2002 में विश्वविद्यालय में सेल्फफाइनेंस कोर्सों के पैदा होने के बाद से ही वे अनवरत निदेशक पद पर कब्जा जमाए बैठे हैं। जबकि 2005 में केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद 2007 में आए रोटेशन सिस्टम जिसे जनवरी 08 में लागू किया गया के तहत कोई भी प्रो. दो साल तक ही विभागाध्यक्ष या डीन रह सकता है। पर जीके राय कुलपतियों की दया दृष्टि और सांठ-गांठ के फार्मूले के तहत कब्जा जमाए बैठे हैं। दरअसल मीडिया स्टडीज के इस फर्जीवाड़े के मूल में भी प्रो. जी के राय हैं जो अब तक बस यही तर्क दे पाएं हैं कि सेंटर आफ फोटोजर्नलिज्म एवं विजुअल कम्यूनिकेशन की ओर से जो मीडिया अध्ययन कोर्स शुरू हो रहा है उसे विद्वत परिषद की मंजूरी है। पर यहां सवाल इसी पर ही उठता है कि बिना आधिकारिक व्यक्ति के इस कोर्स को कैसे विद्वत परिषद ने मंजूरी दे दी। यहां इस बात पर गौर करना चाहिए कि यह रोटेशन सिस्टम पत्रकारिता विभाग के लिए विष बन गया। इसके पहले कई सालों तक सुनील उमराव इस विभाग के विभागाध्यक्ष रहे। इसी रोटेशन सिस्टम के तहत उन्हें हटा कर कला संकाय के डीन एनआर फारुकी को हेड बना दिया गया और पत्रकारिता विभाग को मिल रही सुविधाओं में कटौती या कहें कि उसे बंद करने की हर संभव कोशिश की जाने लगी। सुनील उमराव बहुत ईमानदार हैं और विश्वविद्यालय के जिस कोने में पत्रकारिता विभाग है, उसे हर स्तर पर तमाम उपेक्षाओं के बावजूद सजाने-संवारने में लगे रहे। पर इस नीतिगत लड़ाई को वे कभी जीत नहीं पाए क्योंकि इसे वह अपनी व्यक्तिगत लड़ाई ही मानते रहे।

बात तब बिगड़ी जब आंदोलन काफी आगे बढ़ गया। इस आंदोलन को स्थानीय ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन मिलने लगा। पर सुनील उमराव, जो मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, कि मध्यवर्गीय मानसिकता आंदोलन पर हावी होने लगी और आंदोलन को मात्र विश्वविद्यालय के दलालों का चरित्र हनन करने का हथियार बनाने लगे। मैंने या कहें हमारे और साथियों ने भी इस पर आपत्ती की। कुछ मानमनौवल और समझौतों के बाद बात थोड़ी बढ़ी। पर जैसा कि हमारे यहां एक शिक्षक और छात्र का संबंध बहुत सामंती होता है, के चलते हमारी बात दब जाती। मेरे लिए शिक्षक और छात्र के संबंध को भी व्यावहारिक रूप में समझने का श्रेय सुनील उमराव को ही जाता है। इन्होंने आंदोलन के दौर में मुझे जीवन में पहली बार एक क्लास लेने का मौका दिया। वैसे सुनील उमराव पिछले चार वर्षों या कहें मेरे पत्रकारिता के शुरुवाती दौर से लेकर आज तक हमें प्रोत्साहित करते रहे हैं और उनके दिशा निर्देशन में हमनें दो डाक्यूमेंट्री फिल्मों पर भी काम किया है। यहां मैं सुनील उमराव नहीं बल्कि एक मध्यवर्ग का व्यक्ति और वो भी जब वो मास्टर हो तो उस पर बात करने की कोशिश कर रहा हूं कि वो कैसे पोलिसी मैटर को व्यक्तिगत स्तर पर ही देखता है। उसे हल करने का प्रयास भी राजनैतिक तौर-तरीकों से करने से बचता है। ऐसे लोगों के लिए एक तर्क बहुत कारगर होता है कि गांधी को भी अगर ट्रेन से न धकेला गया होता तो वो भी आंदोलन में नहीं कूदते। खैर, इस पर सहमत-असहमत होने के सभी के अपने-अपने कारण हैं। लेकिन यह बात यहीं पर नहीं रुकती और यहां तक चली जाती है कि ‘खुद सुधरो-जग सुधरे’।

बात मुद्दे पर हो तो अच्छा होगा। इलाहाबाद में पत्रकारिता विभाग के समानांतर यूजीसी के मानदंडों को ताक पर रखकर एक सेल्फफाइनेंस कोर्स शुरू किया गया है। इस कोर्स को शुरू करने के लिए तर्क मुहैया कराने का काम विश्वविद्यालय ने सालों पहले शुरू कर दिया था और विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग को बंद करने की पुरजोर कोशिश की। पर विभाग के शिक्षक सुनील उमराव इसे पालिसी मैटर न मानकर अपनी व्यक्तिगत लड़ाई मानते रहे और सालों-साल विभाग की उपेक्षा के अप्रत्यक्ष रुप से भागीदार बने। उन्होंने कभी भी इस उपेक्षा का मुखर विरोध करने की जहमत नहीं उठायी। हमारे यहां बहुत लोग विचार शून्य होते हैं और एक खोखले आदर्शवाद में जीते हैं और अवसर आने पर गांधीवाद की शरण में चले जाते हैं। या कहें कि वे गांधीवाद को आलू की तरह समझते हैं। ठीक इसी फार्मूले का प्रयोग करते हुए दो साल पहले कुलपति प्रो. आरजी हर्षे ने चर्चित पर्चा लीक प्रकरण पर पर्दा डालने के लिए विश्वविद्यालय से गांधी भवन तक मार्च किया था। उन्होंने बड़ी साफगोई से विश्वविद्यालय के आला अधिकारियों को बचा लिया। ठीक इसी फार्मूले का प्रयोग सुनील उमराव ने भी किया। यहां सुनील उमराव को याद करना चाहिए, जिस समय पर्चा लीक हुआ था, उनका आदर्शवाद और गांधीवाद कहां गया था। उन्होंने विश्वविद्यालय की इस खरीद-फरोख्त के धंधे को एक मास्टर तक सिकोड़कर ही देखा।

रही बात बीए इन मीडिया स्टडीज की तो उसका फर्जीवाड़ा भी कम नहीं है। जिस बीए इन मीडिया स्टडीज को शुरू किया जा रहा है, उसी स्तर के कोर्स बीजेएमसी को 2005 में विश्वविद्यालय के केंद्रीय दर्जा पाने के बाद अवैध बता बंद कर दिया गया था। इसके बाद एमए इन मास कम्युनिकेशन कोर्स जो वर्तमान में चल रहा है को सेल्फफाइनेंस में चलाने का दबाव बनाया गया। यह विद्वत परिषद से पास होने के बाद भी दो साल तक कार्यपरिषद से मंजूरी न मिलने के चलते विभाग बंद रहा। तब ऐसे में सवाल लाजिमी है कि कार्यपरिषद की मंजूरी के बगैर बीए इन मीडिया स्टडीज को कैसे शुरू किया जा सकता है। विश्वविद्यालय के सूत्रों के अनुसार सेल्फफाइनेंस कोर्स चलाने के लिए जिस सेंटर की स्थापना की गयी है वो विश्वविद्यालय के संसद द्वारा पारित अधिनियम में ही अस्तित्वहीन है।

बीए इन मीडिया स्टडीज को लेकर जो आंदोलन हो रहा है, जब इसके बारे में विश्वविद्यालय में बात चल रही थी तो महाशय का व्यक्तिवाद एक बार फिर जागा। उन्होंने काफी हाथ-पैर मारे। हमारे एक वरिष्ठ साथी और एक राष्ट्रीय दैनिक के पत्रकार से इन्होंने खूब पुलिंदा बांधा पर कुलपति से मिलने के बाद सारे इनके पुलिंदे फुस्स हो गए। महाशय ने वादा करने के बाद भी तथ्यों को नहीं मुहैया कराया। इससे उनको अपना नाम आने का भय था। खैर बीती बातों को छोड़िए भी तो नयी बातों में भी काफी रोचकता है। बच्चे के हाथों में बंदूक देने की टिप्पणी करने वाले साथी भी मंच और लफ्जाजी के बहुत कायल हैं। आज रूम पर आकर उन्होंने खूब छोड़ी कि क्या आज उन्होंने खूब जोड़ा। पासी समाज के व्यक्ति की पुलिस द्वारा हत्या करने पर कचहरी में एक धरना चल रहा था। साथी के अनुसार वे वहां गए और उस हत्या को पत्रकारिता के छात्रों से जोड़ते हुए बोले कि क्या सेल्फफाइनेंस कोर्स में पढ़ने वाला छात्र पासी समाज को समझ पाएगा और खूब वाहवाही भी बटोरी। यहां भी गुरुजी यानि सुनील उमराव, खालिद भाई द्वारा बनाए गए उन कार्टूनों को वितरित करने में व्यस्त रहे जो उनके विरोधियों का चरित्र हनन कर रहे थे। खैर, साथी की बात पर आते हैं। उन्होंने इस भाषणबाजी के तीन-चार दिन पहले ही पत्रकारिता विभाग के छात्रों से पूछा था कि निजीकरण क्या होता है तो कोई नहीं बता पाया। अब साथी की इस लफ्फाजी को क्या कहें जो उन्होंने सेल्फफाइनेंस कोर्स के बारे में कही।

दरअसल छात्रों की ही नहीं, गुरु की भी यही हालत है। पिछले दिनों देर रात आंदोलन की रणनीति बनाने के वक्त उन्होंने पुलिस का कैम्पस में रहना के कई ‘वाजिब’ कारण बताए। गुरु बार-बार बीए इन मीडिया स्टडीज के धनंजय चोपड़ा को यह कह के नकारते हैं कि उनके पास डिग्री नहीं है, वो क्या बच्चों को पढ़ा सकते हैं। इतना ही नहीं ‘निजीकरण विरोधी यह योद्धा’ पत्रकारिता के पतन और व्यवसायी कारण पर जितनी समझ रखता है वो उनसे मिलने के बाद चंद मिनटों में समझ आ जाएगा। रही बात धनंजय की तो उन्हें मैं अपने पत्रकारिय सोच-समझ वाले दिनों से जानता हूं। जब मैं कक्षा सात-आठ में पढ़ता था तो धनंजय जी हमारे जिले आजमगढ़ के दैनिक हिंदुस्तान के किसी प्रमुख पद पर थे। जिनकी भाषा और कहने के लहजे से हर सोचने-समझने वाला व्यक्ति वाकिफ था। मेरे द्वारा लंबे समय से इकट्ठी की गयी कटिगों में धनंजय चोपड़ा की आजमगढ़ के बुनकरों को लिखी गयी रिपोर्ट हो या फिर ऐतिहासिक लाइब्रेरी का सवाल, ये सब आज भी मेरे पास है और पुरानी रिपोर्टों को पढ़ते वक्त मैं अक्सरहां उसे देख लेता हूं। जहां तक धनंजय चोपड़ा द्वारा चलाए जा रहे सेल्फफाइनेंस कोर्स का सवाल हो या फिर उन्होंने किस आधार पर एकेडमिक काउंसिल के सामने इस प्रस्ताव को रखा, मैं इस पर सहमत नहीं हूं। पर इस सुनील उमराव की उस बात कि धनंजय क्या पढ़ाएंगे पत्रकारिता, इससे मैं नहीं सहमत हूं। मैं सुनील उमराव को जितना भी जानता हूं या फिर और भी लोग जानते होंगे, उन्हें एक पत्रकार के रूप में नहीं बल्कि एक मास्टर के रुप में जानते हैं। पर वहीं बाजरवादी धनंजय चोपड़ा को एक मास्टर के बतौर नहीं बल्कि एक पत्रकार के बतौर जाना जाता हैं। जहां तक दुकानदारी का संबंध और धनंजय चोपड़ा का संबंध है तो इसे इस बात से हमें समझना चाहिए कि क्या कोई बनिया अपनी दुकान पर अपने माल की खामियों को बताने वाले मुनीम को रखना चाहेगा। इस बहस में एक बहस फिर आती है कि पत्रकारिता कौन पढ़ाएगा। कोई यूजीसी, नेट, पीचडी करने वाला कि कस्बों-शहरों की खाक छानने वाला। खैर इस पर सुनील उमराव के विचारों में यूजीसी-नेट वाला ही सर्वोपरि है। यहां पर हमको देखना भी चाहिए कि पत्रकारिता की जबसे पढ़ाई होने लगी तो उसका स्तर और विश्वसनीयता कितनी बची है। अगर पत्रकारिता में उसी तरह आंदोलनों के जरिए लोग आते तो मैं निश्चित कह सकता हूं कि सुनील पत्रकारिता के न मास्टर बनते और न पत्रकार कहलाते। ऐसे लोगों पर यह भी विचार करना चाहिए कि इन्हें पत्रकार कहा भी जाए कि नहीं।

सुनील उमराव के इस आंदोलन के तर्क भी काफी हास्यास्पद हैं। पहला तो उनके यहां कोल्हू बनाने की फैक्ट्री है, दूसरा उनकी पत्नी को हाल में नौकरी मिल गयी है। यह मैं नहीं सुनील उमराव खुद कहते हैं। इतना ही नहीं, कुछ मित्रों के अनुसार वे अपने घर में चौदह बंदूकें होने का भी दंभ भरते हैं। यहां लड़ाई दोतरफा है। एक तरफ सेल्फफाइनेंस के नाम पर विश्वविद्यालय को दुकान बनाने वालों के खिलाफ तो दूसरा एक मास्टर जो अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए आंदोलन चलाए बैठे हैं। कभी-कभी यह बात भी दिमाग में आती है कि जो भी हो, पर्सनल स्तर पर ही सही, लेकिन आंदोलन तो चल रहा है। पर यहां इस बात पर गौर करना होगा कि यह पर्सनल स्वार्थों के लिए क्या उनके साथ चल कर ही आंदोलन चलाया जाय। यह बात उनके लिए है जो सुनील के इस आंदोलन में बड़ी संभवनाएं देख रहे हैं। मैंने भी इस आदोलन में बड़ी संभावनाएं देखी थी और देख भी रहा हूं। पर बात इस पर होनी चाहिए कि जिस आंदोलन का स्वरूप इतना व्यक्तिवादी हो, उसका या उस जैसे व्यक्ति का हम ही नहीं, उसके छात्र ही क्यों समर्थन कर रहे हैं। यहीं पत्रकारिता विभाग के छात्रों का स्तर और उनके स्टैंड लेने की क्षमता को भी पहचाना जा सकता है। वो तमाम बातों के बीच, दिन में अपनी बातों के बीच में, इस बात को बड़ी निरीहता से कहते हैं कि गुरु अपनी लड़ाई को इसके सहारे लड़ रहे हैं।

अगर मेरी इन बातों पर विश्वास न हो तो सुनील उमराव द्वारा लिखाए गए पर्चे को भी देखा जा सकता है। इसमें उनकी बौद्धिक क्षमता के दिवालियेपन सहित उनके सतही स्तर को भी देखा जा सकता है जिसे उन्होंने छात्रों के नाम पर छपवाया था। पहले तो पर्चा लिखते वक्त उन्होंने कहीं भी निजीकरण या मुख्य मुद्दे का उल्लेख ही नहीं किया। बाद में दबाव पड़ने पर एक जगह थोड़ा सा जिक्र किया गया। अगर इस पर भी विश्वास न हो तो सुनील उमराव को नोटिस जारी करने के बाद शिक्षक दिवस के दिन छात्रों द्वारा फूल बांटकर समर्थन मांगने का जो अभियान चलाया गया था, उसकी वीडियो रिकार्डिंग, जिसे छात्रों ने किया था, को देखने के बाद मेरी बातें और अधिक स्पष्ट हो जाएंगी। पर जो भी हो, जो लोग अब तक इस रिकार्डिंग को नहीं देखे, उनके लिए इसके बारे में बताना जरूरी होगा कि इस पूरी रिकार्डिंग में सुनील उमराव मुख्य मुद्दे सेल्फफाइनेंस को दरकिनार कर खुद को दिए गए नोटिस का जिक्र करते रहे और उसी को मुख्य मुद्दा बनाने की कोशिश करते रहे या कहें कि असल में यही मुद्दा ही सुनील उमराव का मुख्य मुद्दा है। सुनील उमराव को इस आंदोलन में ही एक डाक्यूमेंट्री फिल्म संघर्ष भी बनानी है। उनके साथ बड़ी दिक्कत है कि व्यक्तिगत इस लड़ाई के अलावा उस फिल्म के लिए भी उन्हें अभिनय करना होता है। हमारे साथी इस पर भी कहते हैं जो भी हो, उनके साथ रहना जरुरी है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पर ‘‘मैं’’, बार-बार ‘मैं’ यहां इसलिए कह रहा हूं कि इस आंदोलन के और साथी, जो मेरे इस तर्क कि सुनील उमराव पर्सनालाइज करके आंदोलन चला रहे हैं, के बाद भी इस आंदोलन में लगे हैं, से अपने को अलग करने के लिए मैंने ‘मैं’ शब्द का प्रयोग किया है। इस ‘आंदोलन’ पर मैं आगे और भी लिखूंगा और इसके लिए मैं तैयार भी हूं क्योंकि मैंने इस पूरे आंदोलन के नाम पर हो रहे फर्जीवाडे़ को अब तक इस लेख में अभिव्यक्त नहीं कर पाया हूं।


लेखक राजीव यादव इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री लेने के बाद आईआईएमसी, दिल्ली से मास्टर की डिग्री ले चुके हैं। इलाहाबाद में स्वतंत्र पत्रकार के बतौर सक्रिय राजीव समय-समय पर सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनो में भी भागीदारी करते हैं। उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] या फिर 09452800752 का सहारा ले सकते हैं।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement