इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले छात्र इन दिनों खुद खबर बने हुए हैं…हाथ में तख्तियां और बैनर लिए लड़के न सिर्फ कैंपस बल्कि बाहर भी अपना विरोध दर्ज करा है…विरोध एक ऐसे संस्थान की जहां भी पढ़ाई खबरों की ही होती है…और प्रदर्शनकारी इस संस्थान को तत्काल बंद करने की मांग कर रहे हैं…साथ ही और भी ढेरों मांग है इन छात्रों की, कुछ आरोप हैं, कुछ प्रश्न हैं तो कुछ जवाब भी…लेकिन लब्बोलुआब बस इतना है कि दूसरे संस्थान को बंद किया जाए…खबर सिर्फ इतनी है, जो हम सभी जानते हैं…या यूं कहें कि ज्यादातर लोग जानते हैं…लेकिन कहानी सिर्फ इतनी नहीं है… दरअसल मुख्य मुद्दे पर आने से पहले थोड़ा सा फ्लैशबैक…आप और हमको कंप्यूटर क्रांति को वो दौर तो याद ही होगा जब हर किसी का सपना कंप्यूटर सीख लेने का था…देश के बड़े-बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों तक ऐसे इंस्टीट्यूट खोले गए जहां कंप्यूटर की पढ़ाई की जाती थी…और इन संस्थानों में शहर के हिसाब से फीस भी वसूली जाती थी…
मसलन इलाहाबाद में किसी भी छोटे इंस्टीट्यूट में कंप्यूटर की बेसिक पढ़ाई के लिए ली जाने वाली फीस पांच से सात हजार की थी…और बड़े इंस्टीट्यूट जैसे एप्टेक, एनएनआईटी में तो इससे भी ज्यादा…हम बात दशक भर पहले की कर रहे हैं….ऐसे में ज्यादातर लड़कों के लिए ये पढ़ाई कर पाना संभव नहीं था… और जब बेसिक पढ़ाई इतनी कठिन थी तो और सेलेक्टेड कोर्सेज में पढ़ना सपना जैसा… विश्वविद्यालय में भी इसकी पढ़ाई नहीं होती थी… ऐसे में स्थापना हुई इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज की…जिसने बीड़ा उठाया मामूली फीस पर ऐसी शिक्षा मुहैया कराने की..जिसके लिए बाजार में मोटी फीस वसूली जा रही थी… इस मुहिम का असर भी दिखा और इंस्टीट्यूट को अपार सफलता मिली…और इसकी कामयाबी के पीछे जिस शख्स का नाम था वो था प्रोफेसर जी.के.राय का…जिन्होंने अपनी सोच और मेहनत के दम पर इस विभाग को संवारा…लेकिन जब दिमाग में कुछ करने का कीड़ा हो, तो वो शांत नहीं रहने देता…और इसी का परिणाम रहा कि इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज ने समय, समाज और रोजगार की जरूरत को देखते हुए एक के बाद चार कोर्सेज के सेंटर खोले….जिसमें कंप्यूटर, फूड टेक और फैशन शामिल था…और इसी में एक है फोटो जर्नलिज्म एंड विजुअल कम्यूनिकेशन…जिसके खिलाफ चल रही है ये जंग..
अब बात मुख्य विषय की. फोटो जर्नलिज्म एंड विजुअल कम्यूनिकेशन, इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज का एक सेंटर है…जहां पत्रकारिता के सभी आयामों के साथ ही फोटो पत्रकारिता की पढ़ाई होती है…मैं खुद इसी विभाग का छात्र रहा हूं… बात करते हैं विवाद के बारे मे जो चल रहा है…मैं यहां साफ तौर पर बता दूं कि मैं दोनो ही विभागों से अच्छी तरह परिचित हूं…फोटो जर्नलिज्म से इसलिए कि मैं वहां का छात्र रहा हूं…और पत्रकारिता विभाग का इसलिए कि मैं 1995 से विश्वविद्यालय में रहने तक यहां की सक्रिय राजनीति में रहा हूं…
पत्रकारिता विभाग के छात्रों ने इस मीडिया अध्ययन केंद्र का विरोध जिन तर्कों के आधार पर किया है न सिर्फ मैं उससे असहमत हूं, बल्कि ये दावे के साथ कह सकता हूं कि विभाग के एकमात्र अध्यापक की ये खीझ है, जिसका उन्होने अपने ही छात्रों के माध्यम से प्रदर्शन किया है…मैं उनके सभी प्रश्नों का उत्तर यहां देता हूं जो अहम है…
1- आरोप है कि मीडिया अध्यन केंद्र मीडिया के समालोचनात्नक अध्ययन के बजाय पेशेवर मीडियाकर्मियों का निर्माण कर रहा है…इस आरोप से मै भी पूरी तरह से सहमत हूं…लेकिन इसके आरोप की बजाय प्रशंसा के रुप में लेता हूं…मै मानता हूं कि मीडिया अध्ययन केंद्र प्रोफेशनल तैयार करता है…और यही वजह है कि यहां से निकले छात्रों को आप देश की सभी मीडिया हाउस (हिंदी मीडिया) में काम करते देख सकते हैं…अगर किसी को पढ़ाकर नौकरी के लायक बनाना गुनाह है तो ये गुनाह ये सेंटर जरुर कर रहा है…और हकीकत भी यही है कि यहां लोग यही गुनाह करने आते भी हैं…समालोचनात्नक अध्ययन करने आपके यहां जरुर आएंगे…वैसे भी इस इंस्टीट्यूट का नाम ही इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज है…
2- जहां तक एक ही विश्वविद्यालय में एक से अधिक विभाग होने की बात है…तो देश के लगभग सभी बड़े विश्वविद्यालयों में आप जर्नलिज्म के एक से अधिक विभाग पा सकते हैं…और अगर बंद होने की बात है तो आपका विभाग ही क्यों न बंद कर दिया…जहां पूरी पढ़ाई का जिम्मा अकेले आपके कंधों पर है, जबकि मीडिया केंद्र की फैक्टी सुनील श्रीवास्तव, धनन्जय चोपड़ा, एस.के.यादव और विद्या सागर न सिर्फ बेहतर अध्यापक हैं, बल्कि मीडिया के क्षेत्र में उनका लंबा कार्य अनुभव भी है..
3- विरोध करने वालों ने मीडिया सेंटर को दुकान कहा है…अब इस दुकान का मतलब अगर वो है जो हम समझ पा रहे हैं तो विरोध गलत है…क्योकि विरोध करने वालों ने पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले संस्थानो की फीस नही पता की है…लाखों में फीस वसूला जा रहा है…लेकिन उसके मुकाबले यहां फीस कुछ हजारों में ही है…जो बेहद कम है..बावजूद इसके संस्थान आर्थिक रुप से कमजोर छात्रों का फीस भी माफ करता रहा है…मैं ऐसा इसलिए भी कह सकता हूं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को अच्छी तकह जानते हैं…और जो छात्र विश्वविद्यालय की दस रुपए की फीस बढ़ने पर पूरा विश्वविद्यालय ही नहीं शहर उठा लेते हैं…उनका विरोध न होना इस बात का सबूत है कि ये दुकान नहीं है…मैं ऐसा इसलिए भी कह सकता हूं क्योंकि शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ विश्वविद्यालय में मैने भी काफी लड़ाई लड़ी है…
4- एक आरोप संस्थान के निदेशक पर है कि वो कुलपति कार्यालय के करीबी है…तो इसका जवाब सिर्फ इतना है…इस कार्यालय का करीबी वो होता है जो यहां आता जाता रहता है…आता जाता वो रहता है जिसे कोई काम हो…काम उसे रहता है जो कुछ काम करने का माद्दा रखता हो या जिसके अंदर कुछ बेहतर करने का जज्बा हो..और जो काम का बेहतर रिजल्ट दे सके…यहां के निदेशक कुछ इसी कारण से करीबी है…आप वहां जाते ही नहीं है..क्योकि न आपका कोई काम है और न ही काम करने की ललक…
5- बात कुलपति की, कि वो भेदभाव कर रहे हैं…इसका जवाब भी सीधा है कि क्या विश्वविद्यालय में आने वाला हर कुलपति आपसे दुश्मनी का सपना पाल के ही आता है…क्योंकि आपके विभाग में अनियमितता की वजह से… जब फार्म बंटने के बावजूद एडमिशन कुछ वर्षों तक रोक कर रखा गया…तब तो यहां कुलपति कोई दूसरा था…और इसके बाद भी कार्यवाहक और पूर्ण रुप से आए किसी कुलपति ने आपको राहत नहीं दी… प्रो. हर्षे से तो आपको मदद ही मिली है…लेकिन आपकी असली दिक्कत ये है कि आपके अलावा कुलपति पत्रकारिता के दूसरे विभाग की मदद क्यों कर रहे हैं…
और अंत में…इंस्टीट्यू ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज में न सिर्फ पत्रकारिता की बेहतरीन पढ़ाई होती है…बल्कि विभाग राष्ट्रीय स्तर के कई सेमिनार और वर्कशॉप का भी आयोजन करता है…जिसमें देश के प्रतिष्ठित मीडियाकर्मी और शिक्षा से जुड़े लोग आते रहे हैं….जिन्होंने यहां के छात्रों को न सिर्फ सिखाया…बल्कि उनकी सीखने की ललक को देखते हुए अलग से भी उनकी क्लास ली…यहां के छात्रों ने अपने कार्यों से सभी को प्रभावित किया है…और वजह है कि यहां आने के बाद हर कोई फिर से आने की इच्छा करता है…यहां के छात्र साल भर की पढ़ाई के दौरान हर वो काम करते हैं जो उनके करियर को मदद कर सकती हो…मसलन फिल्म बनाना, विज्ञापन फिल्म बनाना, फोटोएक्जिबिशन में अपनी खींची हुई तस्वीरे प्रदर्शित करना…और अलग अलग विषयों पर प्रोजेक्ट और फीचर प्रोजेक्ट बनाना…जिसका प्रदर्शन अलग अलग समयों पर तो होता ही है…साल के अंत में दस्तक कार्यक्रम में भी किया जाता है…और देश के बड़े बड़े मीडियाकर्मियों का इन कार्यों पर कमेंट ही इस विभाग की सफलता बयां करने के लिए काफी है…विभाग से निकलने वाली मासिक पत्रिका बरगद ने तो यहां के छात्रों को… न सिर्फ मीडिया बल्कि साहित्य में रुचि लेने वालों के बीच भी काफी प्रशंसा दिलाई है….
रही बात विरोध करने वाले पत्रकारिता विभाग की, तो बंद होने के बाद फिर से शुरु हुए इस विभाग की…पिछले कई सालों से विभाग के बाहर इसकी मौजूदगी शून्य है….विभाग के एक ही टीचर इतने दिनों से सभी पेपर पढ़ा रहे हैं…और इनको आज के पहले तक कभी भी विभाग में किसी और टीचर की जरुरत महसूस नहीं हुई…और न हीं इन्होने कभी इसकी लिखित शिकायत ही की है…वजह साफ थी कि ये विभाग के एकमात्र टीचर होने के नाते सभी पदों पर काबिज थे…अब जबकि पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए दूसरा और अपेक्षाकृत ज्यादा मान्य ( ज्यादा मान्य इसलिए क्योकि ज्यादातर लोग पढ़ाई के बाद नौकरी ही करना चाहते हैं ) संस्थान विश्वविद्यालय में चलने लगा है…तो शिकायत का पुलिंदा बाहर आ गया…और अपने छात्रों को पत्रकारिता के साथ ही सिखाने लगे राजनीति के भी गुण…
लेखक अतुल कुमार राय इन दिनों दिल्ली में न्यूज चैनल ‘इंडिया न्यूज’ में कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] या फिर 09953556262 के जरिए किया जा सकता है।