अमर उजाला, जालंधर में करीब दो महीने तक कंप्यूटर पर लगातार खटर-पटर करते हुए मैं बुरी तरह से उबने लगा था। जब भी संपादक रामेश्वर पांडे से जम्मू भेजने की बात करता तो वह यही कहते, ‘यहां के सारे काम सीख जाओ, वहां बहुत काम करने होंगे।’ वह मुझे ठोक-पीट कर हर तरह से तैयार कर रहे थे, जबकि मैं अंदर ही अंदर उन पर झुंझला रहा था। मैं यही समझता था कि मैं पूरे रफ्तार के साथ कंप्यूटर पर टाइप करना सीख चुका हूं, लेकिन वह इस बात को मानने के लिए कतई तैयार नहीं थे।
एक दिन जब मैंने बड़ी मजबूती से उनके सामने अपनी बात रखी, तो उन्होंने तुरंत शिव कुमार विवेक से मेरे साथ-साथ सबका टेस्ट लेने को कहा। स्पीड मेंटेन करने के चक्कर में मैंने कई भाषाई गलतियां कर दी। पूरे चिट्ठे को मेरे सामने रखते हुये उन्होंने मुझसे कहा, ‘अभी और ध्यान देने की जरूरत है।’ इस बीच इष्टदेव पांडे से र्क्वाक पर पेज बनाना भी सीखता रहा, हालांकि यह काम भी मेरे लिए उबाऊ ही था।
वहां पर काम करने वाले सभी लोगों से मेरी बातचीत होने लगी थी। नवीन पांडे जालंधर सिटी पेज के इन्चार्ज थे। कुछ दिन तक मुझे उन्हीं के साथ लगा दिया गया। सिटी डेस्क पर खबरों का फ्लो शाम के सात बजे तक बनता था। समय पर आकर मैं अपनी कुर्सी पर बैठ जाता था और नावेल पढ़ता रहता था। नवीन पांडे जब खबरें देते थे तो उन्हें निपटा कर फिर नावेल पढ़ने लगता। एक दिन उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि बड़े हाकिम लोग नहीं चाहते कि आप काम के वक्त नॉवेल पढ़ें। इससे काम प्रभावित होता है। उनकी बातें अपनी जगह ठीक थीं, लेकिन मेरी आदत पढ़ते हुये काम करने की बहुत पहले से बन गई थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि दिल्ली की सड़कों पर चलते हुये भी मैं हाथ में किताब लेकर पढ़ा करता था। मेरी नजर किताब के अक्षरों पर होती थी, लेकिन मेरे कदम सधे हुये अंदाज में आगे बढ़ते थे। दिल्ली के मंडी हाउस में एक दिन मैं जॉन रीड की पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ पढ़ते हुये सड़क पर बढ़ता जा रहा था तो साहित्यिक पत्रिका गूंज के संपादक अकिंचन ने मुझे टोकते हुये कहा था, ‘आप ऐसा मत कीजिये, किसी दिन एक्सीडेंट हो जाएगा।’ काम करने के दौरान पढ़ते रहने की अपनी इस मनोवैज्ञानिक समस्या के विषय में मैंने नवीन पांडे को कुछ बताने के बजाय पढ़ना बंद करने का निश्चय कर लिया।
अब अखबार में मेरी फुलटाइम सेवा शुरू हो गई थी। खबरों के संपादन से लेकर उन्हें पेज पर सही तरीके से लगाने की कला का मैं पूरी तरह से अभ्यास करने लगा था। संपादन के बाद खबरों को ले-आउट चार्ट पर एक कलम के माध्यम से बैठा दिया जाता था। फिर उस ले-आउट पर खबरों के फाइल का कोड लिखकर उसे पेज मेकिंग विभाग के हवाले किया जाता था। करीब 20 से 25 मिनट के बाद प्राथमिकता के आधार पर पेज मेकिंग विभाग के लोग उन खबरों को ले-आउट के मुताबिक सजाकर ‘सेवेंटी’ हम लोगों के हवाले कर देते थे। हम लोगों की मुख्य प्राथमिकता हेड लाइन, सब हेड, क्रासर, फोटो कैप्शन आदि की जांच करने की होती थी। इस प्रक्रिया में क्रास चेकिंग का इस्तेमाल किया जाता था। एक हाथ से दूसरे हाथ से गुजरते हुये वह पेज नवीन पांडे के पास पहुंचती था। पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद, कुछ नये करेक्शन के साथ वह पेज पुन: लौटकर पेज मेकिंग विभाग के पास जाता था। इसके बाद ‘फिफ्टी’ दी जाती थी और उस पर एक बार फिर करेक्शन का दौर चलता था। अमर उजाला के इस मैकेनिज्म का पालन संपादकीय विभाग बड़ी मुस्तैदी से करता था। नवीन पांडे के साथ रहकर अखबार के इस मैकेनिज्म को गहराई से समझने का मुझे खूब मौका मिला।
एक कुशल पत्रकार बनाने का रामेश्वर पांडे का मैकेनिज्म निःसंदेह लाजवाब था। अखबार निकालने के साथ-साथ रामेश्वर पांडे जालंधर में अमर उजाला की प्रयोगशाला में पत्रकारों का उत्पादन करने के कार्य में भी लगे हुये थे। भाषा पर पकड़ और आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल के महत्व को वह खूब समझते थे। नये पत्रकारों को इससे लैस कर रहे थे। मेरे उत्साह और जज्बे को स्वीकार करने के बावजूद वह मुझे पूरी तरह से रॉ मेटेरियल समझते थे। तकनीक के लिहाज से मैं वाकई उस युग के पत्रकारों से मीलों पीछे था। रामेश्वर पांडे ने मुझे अपने तरीके से ठोकते-पीटते हुये पत्रकारिता के मूलभूत मैकेनिज्म की शिक्षा दी। उनकी जुबान जितनी मिठी थी, काम को लेकर वह उतने ही सख्त थे। उनकी सख्ती के सामने हिटलर और स्टालिन भी पानी भरते।
एक बार छुट्टी संबंधी मेरा एक आवेदन उनके टेबल पर पहुंचा। जब किसी को बुलाना होता था तो वह अपने चैंबर से ही उस व्यक्ति विशेष का नाम जोर से पुकारते थे। मेरे आवेदन पर नजर दौड़ाने के तुरंत बाद उन्होंने मेरा नाम लेकर हांक लगाई। उनकी हांक को सुनकर हर कोई उनकी ओर भागता था। मैं भी अपवाद नहीं था। तुरंत उनके सामने हाजिर हुआ। आवेदन को मेरी ओर बढ़ाते हुये कहा, ‘इसमें तीन गलतियां हैं, इन्हें ठीक करो।’ उनके चेंबर से बाहर निकलने के बाद तीन बार उस आवेदन को पढ़ने के बाद भी मुझे वो तीन गलतियां नजर नहीं आई। गलती ढूंढने के लिए वह आवेदन मैंने एक सहयोगी को सौंपा। उसने कॉमा और अन्य चिन्हों के संबंध में तीन गलतियां मुझे बताईं। उनको ठीक करने के बाद मैं दोबारा रामेश्वर पांडे के पास नये प्रिंट के साथ पहुंचा। उस नये प्रिंट को देखने के बाद उनके होठों पर हल्की सी मुस्कान दौड़ी।
अखबारी मशीनों से मेरा लगाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। जब भी मौका मिलता, चलती हुई मशीनों की गड़गड़ाहट के बीच खड़ा हो जाता था और छपते व कटते हुये अखबारों को एकटक देखता रहता था। अखबार की खुशबू मुझे मदहोश करती थी। अखबार पर छपे रंगों को अपने हाथ में लेने की पूरी कोशिश करता था। इसी दौरान पेस्टिंग विभाग से सामना हुआ। अखबार के इस विभाग में दिमाग का कहीं कोई इस्तेमाल ही नहीं था। पूरा मामला मैकेनिकल था। इनका काम था, काटना और चिपकाना। ये लोग ‘प्लेट’ बनाते थे, जिनका इस्तेमाल सादे कागजों के बंडलों की छपाई के लिया किया जाता था।
इस बीच अमरीक सिंह ने नए बैच के कई पत्रकारों को लच्छेदार शब्द सुनाकर अपनी चपेट में ले लिया था। कुछ तो ऑफिस के अंदर ही उन्हें बहुत ही श्रद्धाभाव से दंडवत करने लगे थे। पत्रकारिता की यह संस्कृति मुझे कभी रास नहीं आती थी। पंजाबी भाषा पर उनकी पकड़ अच्छी थी। पंजाबी के अखबारों में दिये गये तथ्यों का वह बेहतर इस्तेमाल अमर उजाला के लिए करते थे, हालांकि मेरी नजर में वह जूठा परोसने जैसा ही था।
अनिल गुप्ता के साथ मेरी अच्छी पटने लगी थी। अखबार के अंदर की हर गतिविधि की उसे जानकारी होती थी, क्योंकि रिस्पेशन पर बैठकर फोन ऑपरेटिंग का काम वही संभालता था। रात में घर पर उसके साथ खूब बातें होती थी। उससे मिलने वाली तमाम जानकारी को मैं अपने तरीके से तौलता था। हर जिले में बैठे अमर उजाला के लोगों को वह अच्छी तरह से जानता था और उनका विश्लेषण वह अपने तरीके से करता था। अमर उजाला के दारूबाज पत्रकार भी अक्सर उसके साथ बैठते थे। इन महफिलों में मैं भी शरीक होता था और जमकर पीता था। अखबार के दफ्तर में लोगों को पानी पिलाने वाला तोगड़िया भी इन महफिलों में बैठता था। यहां काम करने वाले प्रत्येक लोगों के बारे में उसका अपनी एक नजरिया था। वह बार-बार कहता था कि मैं बीए पास हूं, फिर भी यहां लोगों को पानी पिला रहा हूं। लेकिन एक दिन मैं पत्रकार जरूर बन जाऊंगा, इस बात का मुझे पूरा यकीन है।
रामेश्वर पांडे मेरे बैच के नये साथियों को भी इधर-उधर फेंक रहे थे। कुछ लोगों को फील्ड में लगा दिया था, तो कुछ को डेस्क पर। जालंधर डेस्क पर नवीन पांडे के साथ मैं बहुत हद तक सहज था। चूंकि उन्हें भी पता था कि मैं बहुत जल्द जम्मू के लिए प्रस्थान करने वाला हूं इसलिए वह भी मेरे साथ पूरा सहयोग कर रहे थे।
जालंधर शहर के इस भाग में माओवादी गतिविधियां तेजी से चल रही थी। नेपाल से आने वाले मजदूर बड़ी संख्या में उसी बस्ती में रहते थे जहां पर मैं अनिल गुप्ता के साथ रह रहा था। उनकी भाषा मुझे समझ में नहीं आती थी, लेकिन उनके रहन सहन को मैं बारीकी से देख व समझ रहा था। नेपाली भाषा में नेपाल के माओवादी संगठनों के पोस्टर अक्सर दीवारों पर चिपके हुये रहते थे। लाख कोशिश करने के बाद भी मैं इन पोस्टरों की भाषा नहीं समझ पाता था। भाषा की दीवार आड़े आती थी। एक बार इनके सांस्कृतिक सम्मेलन में बैठने का मौका मिला। इस शहर में रहने वाले सभी नेपाली मजदूरों के परिवार इस सम्मेलन में आये थे। संस्कृति को ढाल बनाकर जिस तरह से माओवादी कार्यकर्ता जालंधर में अपनी जड़ों को सींचने में लगे हुये थे उसे देखकर मार्क्सवादी विचारधारा में माओत्से तुंग के मौलिक संशोधन के महत्व को मैं अच्छी तरह से समझने लगा था। उस दिन पता चला कि जालंधर नेपाल के माओवादियों का सुरक्षित गढ़ बनता जा रहा है। बहुत बड़ी संख्या में नेपाल के माओवादी वहां शरण लिये हुये थे। इन लोगों की जिंदगी में झांकने के दौरान वहां पर बिहारी, उत्तर प्रदेश और नेपाली मजदूरों के बीच चलने वाले आंतरिक संघर्ष को बारीकी से समझने का अवसर मिला और एक बार मुझे मार्क्स का नारा ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ की व्यावहारिक सफलता पर संदेह होने लगा था। अपनी क्षेत्रीय पहचान के लिए आपस में ये एक दूसरे को कुत्तों की तरह काट खाने के लिए तैयार रहते थे। वहां पर मौजूद तमाम कारखानों के मालिक और प्रबंधक बड़ी खूबसूरती के साथ क्षेत्रीय पहचान और श्रेष्ठता की भावना से संचालित होने वाले इन तमाम मजदूरों का इस्तेमाल उत्पादन के एक महत्वपूर्ण कारक के तौर पर कर रहे थे।
कारखानों के अंदर इन क्षेत्रीय मजदूरों के बीच भिड़ंत की स्थिति तीनों क्षेत्रों के मजदूरों को मालिकों और प्रबंधकों के करीब आने के लिए प्रेरित करती थी। दूसरे क्षेत्र के मजदूरों के प्रभाव को कम करने के लिए बाकी क्षेत्र के मजदूरों में मालिकों के प्रति अपनी वफादारी साबित करने की होड़ लगी रहती थी। इस होड़ का उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा था, जिसके कारण अप्रत्यक्ष रूप से इन कारखानों के मालिक और प्रबंधन उनके बीच के तनाव को और बढ़ावा देते थे। जरूरत पड़ने पर बेकाबू हो चुके किसी मजदूर को खंभे से बांधकर पीटने से भी नहीं चूकते थे। और मजे की बात तो यह थी कि दूसरे क्षेत्र के मजदूर मालिकों के इस कार्य को जायज ठहराने में अपनी सारी उर्जा झोंक देते थे। जालंधर बाहर से आने वाले ‘मजदूरों का कब्र’ था।
दुनियाभर में हुई प्रबंधकीय उन्नति का असर जालंधर में अमर उजाला के मैनेजमेंट के लोगों की खोपड़ी पर भी पड़ रहा था, लेकिन ये लोग हवा में तलवारबाजी कर रहे थे। उन दिनों प्रबंधन का कमान रजत सिन्हा के हाथों में था। पंजाब के लोगों की नब्ज पकड़ने के लिए उन्होंने एक सर्वे कराया। एक दिन अनिल गुप्ता के साथ मैं भी रिस्पेशन पर बैठा था। सर्वे के लिए तैयार फार्म की भरी हुई प्रतियां वहीं पर मौजूद थी। उन भरे फार्मों पर नजर दौड़ाया तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अधिकतर फार्म गलत तरीके से भरे थे। कई-कई कॉलम खाली थे। इस विषय में जब मैंने जांच पड़ताल की तो पता चला कि इन फार्मो को भरने के लिए कॉलेज के लड़के लगाए गए थे, जो अप्रशिक्षित थे। बाद में इन फार्मों को एक कोने में रखकर मैनेजमेंट ने मन-मुताबिक रिपोर्ट तैयार करा ली। इस पूरी प्रक्रिया में अच्छा खासा खर्चा हुआ था।
बाद में मैंने रामेश्वर पांडे को बताया कि सर्वेक्षण के लिए फार्म भरने की प्रक्रिया का सही तरीके से पालन नहीं किया गया है। उन्होंने मेरी बात को हल्के में लिया। मुझे भी लगा कि मैं उनसे बेतुकी बातें कर रहा हूं। हालांकि मेरी इच्छा यही हो रही थी कि इस पूरी प्रक्रिया की जांच की जाए, क्योंकि इसी सर्वेक्षण के आधार पर अमर उजाला पंजाब में अपनी रणनीति बनाने की कोशिश कर रहा था। एक कमजोर आधार पर बेहतर रणनीति की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
इसी बीच, एक दिन रामेश्वर पांडे ने मुझे अपने चेंबर में बुलाया और कहा कि जम्मू जाने की तैयारी कर लो।
मैंने पूछा, कब जाना होगा?
उन्होंने कहा, कल निकल जाओ। राजेंद्र तिवारी से जाकर मिलना। उन्हीं के साथ तुम्हें काम करना है।
अगले दिन अमर उजाला के जम्मू आफिस का पता लेकर अपने एक बैग के साथ मैं निकल पड़ा।
पत्रकार आलोक नंदन ने मीडिया की चाकरी को बॉय बोलने के बाद अब सिनेमा में लेखन के जरिए रोजी-रोटी पा रहे हैं। वे मीडिया के दिनों के अपने अनुभव भड़ास4मीडिया के पाठकों के सामने धाराविहक रूप में पेश कर रहे हैं। पीछे के पार्ट को पढ़ने के लिए भाग (1), (2), (3), (4), (5), (6), (7), (8), (9) पर क्लिक कर सकते हैं। 11वां पार्ट पढ़ने के लिए अगले रविवार का इंतजार करें। आलोक से संपर्क [email protected] से किया जा सकता है।