भाग एक से आगे…. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के नेता चंद्रशेखर को गोली मार दी गई थी। चर्चा जोरों पर थी कि यह शहाबुद्दीन के इशारे पर हुआ है। चंद्रशेखर की शहादत पर मातम मनाने के लिए वामपंथी नेताओं का पूरा हुजूम उस पत्रकारिता संस्थान में जमा हो रहा था। अवधेश प्रीत को हिंदुस्तान की ओर से रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया था। कुछ वामपंथी कहानियां लिखकर वामपंथी खेमों में एक सधे पत्रकार-विचारक के रूप में वह अपने आप को स्थापित कर चुके थे। चंद्रशेखर की शहादत पर होने वाले तमाशे को मैं भी देखना चाहता था।
जैसे ही हॉल के दरवाजे के पास पहुंचा, अवधेश प्रीत नजर आ गए। वो सीधे मेरे पास आए और बोले, ‘इस सभा में किसी तरह की गड़बड़ी करने की कोशिश मत करना’।
उस वक्त मैं उनकी बात के अर्थ को ठीक से समझ नहीं सका था, शायद वो मेरा हित चाहते थे। वो नहीं चाहते कि मैं इस सभा में मौजूद रहूं और कोई गड़बड़ी करूं। अवधेश प्रीत की ओर भरपूर नजर डालकर मैं वहां से चलता बना। दिल्ली आने के बाद चंद्रशेखर को करीब से जाना और किसी भी वाद से उपर उठकर अपनी मां को लिखे उनके पत्रों को पढ़कर हजारों बार उस नौजवान को सलामी दी, जो भीड़तंत्र की गुंडागर्दी का शिकार हो गया।
पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान बिहार में लालू की गुंडई अपने चरम पर थी। लोग लालू के खिलाफ सार्वजनिक स्थलों पर बयानबाजी करने से हिचकते थे। लालू मैकियावेली के ‘अपराधी प्रिंस’ के रास्ते पर बढ़ते हुए तेजी से अपने आप को स्थापित कर चुका था। हालांकि उत्तम सिंह हुल्लड़बाज छात्रों के बीच लालू को लेकर खूब हुल्लड़ई किया करते थे। अपने पैने दिमाग से वक्त की नजाकत को उन्होंने पढ़ लिया था। हम लोगों से अक्सर कहते थे, ‘इस शासन में तुम लोगों का बस एक ही काम है, अपने आप को बचाना। हर बुरा समय का एक जीवन होता है, वह अपनी मौत खुद मरता है।’
अपने प्रोफेसर इंचार्ज समीर सिंह का मूल्यांकन भी वह खूब करते थे। छात्रों के साथ ताल मिलाकर चलने की कला में वो निपुण थे। कहते, ‘ऐसे ही ये नेतागिरी कर रहा था। यहां रख लिया। अब इन बवाली लड़कों को झेलने का काम किया करेगा।’
संस्थान के बवाली लड़कों में मैं सबसे आगे था। जर्मनी को लेकर जरा मैं सेंटीमेंटल था। नीत्शे और हिटलर दोनों का नशा मेरे दिमाग पर बहुत पहले ही चढ़ चका था। जब नसों में खून तेजी से दौड़ रहा हो, और दिमाग में नीत्शे व दिल में हिटलर बैठा हो तो उस नौजवान का भगवान ही मालिक है।
पत्रकारिता के उस संस्थान में फर्जी टाइप के लामा की एक पूरी जमात शांति राग सुनाने आई थी। उत्तम सिंह अक्सर इस तरह के फर्जी लोगों को संस्थान में बुलाकर किसी को न समझ में आने वाले कार्यक्रम करते रहते थे। हालांकि इन कार्यक्रमों का नेटवर्क सैकड़ों देशों में फैला हुआ था। ये तामझाम डेमोक्रेटिक तौर पर विदेशी रेवेन्यू के साधन थे। अपना दिल लामा की जर्मन सेक्रेटरी कौजी बैक पर आ गया।
कौजी बैक पतली-दुबली, पीले चेहरे वाली छरहरी लड़की थी। जब मंच पर लामा और उसकी मंडली का नाटक चल रहा था, उस वक्त मैं हाल के बाहर कौजी बैक की आंखों में आंखें डालकर उसे जर्मनी के किस्से सुना रहा था। वह अचानक मुझसे पूछ बैठी- तुम्हें गाना आता है? मैं उसके लिए घंटों गाता रहा। समीर सिंह को यह बात रास नहीं आई। वह उसे अपनी गाड़ी में बैठाकर तेजी से लेकर जाने लगे, जबकि मैं उसके साथ कुछ और पल बिताना चाहता था। वह सफल रहे। कौजी को उनके साथ जाना पड़ा, लेकिन उसकी आंखें यही कह रही थी कि ‘मैं तुम्हारे साथ कुछ और समय बिताना चाहती हूं।’
दूसरे दिन समीर सिंह गेट के पास मुझे देखते ही हत्थे से बमक गए। छूटते ही कहा, ‘तुम तो कल जेल में होते। वह महिला तुम्हारे खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखाने जा रही थी’।
मैंने कहा, ‘तो लिखाने देते।’
‘मेरे साथ जबान लड़ाते हो?’ उनका पारा चढ़ गया।
‘सुभाष चंद्र बोस ने अपने प्रोफेसर को पीटा था, और सुभाष चंद्र बोस में मेरी गहरी आस्था है।’ मैंने उनकी आंखों में आंखें डालकर जवाब दिया और वे एक ही बार में शांत हो गए।
इस बीच एक प्रैक्टिकल टेस्ट की घोषणा की गई। सारे छात्र गुप्त रूप से प्रैक्टिकल के टापिक का चयन करने में जुट गए। लड़कियां प्रैक्टिकल को लेकर ज्यादा उत्साहित थीं। उस वक्त मेरे दिमाग में इटली और जर्मनी के एकीकरण की कहानियां घूमा करती थीं- मेजिनी, गेरीबॉल्डी, काउंट काबुर, बिस्मार्क मेरे हीरो थे। अपने देश को एकीकृत करके उसे शिखर तक लाने के इनके कारनामें मेरी आंखों के सामने किसी सपने की तरह तैरते रहते थे।
मैंने भारत-पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण की परिकल्पना पर प्रैक्टिकल वर्क करने का निश्चय किया। एक नक्शे पर तीनों देशों की सीमा को मिटा दिया, और उसके साथ ही 10 प्रश्न तैयार किए। और उन प्रश्नों के आधार पर आम लोगों के बयानों से एक पूरा रजिस्टर भर डाला। उस वक्त जैसे भी समझ में आया, डाटा को अलग-अलग किया और पूरे प्रोजेक्ट को एक पेज में ले आया। ‘दास कैपिटल’ के जर्मन संस्करण के कवर पेज को स्केच पेन से एक पन्ने पर उतार लिया और उसे रिपोर्ट के साथ नत्थी कर दिया। प्रैक्टिकल प्रोजेक्ट के इंचार्ज शंभू सिंह थे। वे इसे देखकर काफी खुश हुए। इससे गाहे-बगाहे उनके साथ बैठका लगाने का मौका मिलने लगा।
सब कुछ मजे-मजे से चल रहा था कि समीर सिंह ने सभी छात्रों का टेस्ट लेने की घोषणा की। तुर्रा यह दिया कि माखनलाल चतुर्वेदी वाले जल्दी टेस्ट लेने को कह रहे हैं। सभी लोग ताबड़तोड़ पढ़ाई करने में जुट गए। सब नोट्स के लिए मरे जा रहे थे। मैं अपनी किताबों की दुनिया में मस्त था। प्रेस ला और आजादी के पहले के अखबारों में मेरी खास रुचि थी। एक संपादक के तौर पर मैं मौलाना आजाद का कायल था। उनके द्वारा निकाले जाने वाले समाचार पत्र अल-हिलाल और अल-बिलाल के विषय में खूब पढ़ा करता था। मात्र 24 वर्ष की उम्र में वह संपादक बन गए थे, और यह बात मुझे काफी प्रभावित करती थी। प्रेस ला पर दुर्गा दास बसु की एक किताब खरीद ली थी। उस किताब को खूब पढ़ता था। आधी बात समझ में आती थी और आधी नहीं, फिर भी पढ़ता था। कामथ की पुस्तक ‘प्रोफेशनल जर्नलिज्म’ की टाइटल मुझे अटपटी लगती थी। मेरी नजर में जर्नलिज्म सिर्फ और सिर्फ मिशन था, प्रोफेशन नहीं।
टेस्ट के दिन कापी पकड़ता, एक नजर प्रश्नपत्र पर मारता और उसे साइड में रखता और बिना सिर उठाए जो मन में आता लिखता चला जाता था। ऐसा लगता था कि जैसे परीक्षा वाली कापी पर पूरी दुनिया की कहानी लिखता जा रहा हूं। दुनिया भर की क्रांतियों में प्रेस की भूमिका पर खूब लिखता था। समीर सिंह भागते हुए मेरे पास आए और कहा, ‘ऐसे अपनी कापी में लिखोगे तो फेर कर जाओगे, प्रश्नों के साथ जवाब दिया करो।’
मैंने कहा, ‘मुझे तो ऐसे ही लिखने आता है।’ वह कुछ नहीं बोले। बात आई गई हो गई।
बिहार के साथ गद्दारी करते हुए लालू ने अब बिहार के बंटवारे की भाषा बोलनी शुरू कर दी थी। लालू के लिए छल-कपट से हथियाई गई बिहार की सत्ता महत्वपूर्ण थी, चाहे बंटवारा ही क्यों न हो जाए। विकास कुमार झा अखंड बिहार की आवाज उठाने वाले पहले पत्रकार थे। ‘बिहार बचाओ बैनर’ के तहत उन्होंने अखंड बिहार के लिए काफी कमजोर गोलबंदी की। बिहार की जनता उस वक्त इस मनोस्थिति में थी कि जो हो रहा है होने दो। लालू के शासन में कुछ नहीं हो सकता। अनमने ढंग से मैं भी विकास कुमार झा के साथ हो लिया, हालांकि मुझे इस आंदोलन की असफलता को लेकर कोई संदेह नहीं था।
मैं मुसोलिनी की तरह एक बार सीधे आम लोगों से कम्युनिकेट करना चाहता था। बिहार के बंटवारे को मैं अंतरराष्ट्रीय राजनीति से जोड़कर देख रहा था और एक दिन पटना के रेलवे स्टेशन के पास मैंने आम लोगों के बीच दोनों तारों को जोड़कर रखना शुरू कर दिया। लोग मेरी बात को सुन रहे थे। भीड़ बढ़ती जा रही थी। उसी वक्त विकास कुमार झा के लिए काम करने वाले एक पत्रकार सुनील ने मुझे रोकते हुए कहा, ‘आप इस तरह से सार्वजनिक तौर पर मत बोलिए। हम लोग सिर्फ बिहार के बंटवारे को रोकने के लिए आंदोलन कर रहे हैं।’
इस आंदोलन से संबंधित पूरी बात मैंने विकास कुमार झा को दो पत्रों में लिखकर दिया। इस आंदोलन की व्याख्या करते हुए मैंने इसे वैज्ञानिक तरीके से चलाने की बात कही थी। मुस्करा कर पन्ना लेने के बाद उन्होंने खामोशी अख्तियार कर ली, और उसी समय मैंने इस आंदोलन से निकलने का फैसला कर लिया।
इसी बीच कैंपस से एक पत्रिका निकालने की योजना बनी। उस वक्त लालू बिहार में ताबड़तोड़ रैली करते हुए अराजकता को पराकाष्ठा पर पहुंचा चुका थे। बड़ी कुशलता से जन चेतना की आड़ में लालू गुंडों के काफिलों का नेतृत्व कर रहा था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की शिवा जी पर लिखी गई एक कविता से प्रभावित होकर मैंने भी ‘यंग ओपिनियन’ के लिए एक कविता लिखी। उस कविता में रैली की राजनीति पर मैंने प्रहार किया था। जब पत्रिका छपकर आई तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि उस कविता की अंतिम आठ पंक्तियां गायब हैं। जिस छात्र ने उस पत्रिका को निकालने की जिम्मेदारी ली थी वह खुद अंतिम आठ पंक्तियों से आतंकित हो गया था। बाद में मैंने उसे काफी गालियां बकी, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था।
लालू की रैलियों का विपक्षी पार्टियां भी रैलियों से जवाब दे रहीं थीं। लेकिन वे जब भी रैली करते, लालू के गुंडे उन्हें सड़कों पर कुत्तों की तरह दौड़ा-दौड़ा कर मारते थे। उस दिन भाजपा और समता की रैली थी। डाक बंगला चौराहे पर लालू के गुंडों ने भाजपाइयों और समताइयों की लाठी और डंडों से खूब खबर ली, यहां तक कि महिला कार्यकर्ताओं को भी नहीं छोड़ा। संदीप के साथ खड़ा होकर मैं भी यह तमाशा देख रहा था। शाम को समताइयों ने अदालत गंज स्थित अपने कार्यालय में पत्रकारों को बुलाया। समता पार्टी के प्रवक्ता ने कहा, हम भी लालू का जवाब उसी की शैली में देंगे। मेरे मुंह से निकला, ‘यानि हिंसा का जवाब हिंसा से, फिर गांधीवाद का क्या होगा?’
इतना सुनते ही सारे पत्रकार मेरी तरफ देखने लगे और संदीप भाग खड़ा हुआ। बाद में भाजपा कार्यालय गया तो वहां का नजारा ही कुछ और था। जिन भाजपाइयों को लालू के गुंडों ने तोड़ फोड़ दिया था, उन्हें भाजपा उसी हालत में पत्रकारों के सामने पेश कर रही थी। जब रात को सोता तो सारे अराजक दृश्य मेरे दिमाग में घूमने लगते थे। सत्ता के स्वरूप को समझने के लिए लेनिन, त्रातस्की, मैकियावेली, मार्क्स, गांधी, तिलक, सुभाष चंद्र बोस, लॉक, हॉब्स आदि के साथ खूब मगजमारी करता। लेकिन अपने सारे सवालों के जवाब मुझे हिटलर और नीत्शे में मिलते थे।
भारत में टीवी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने वाले सुरेंद्र प्रताप सिंह की अचानक मौत का असर संस्थान पर स्पष्ट रूप से देखा गया। बिहार में मीडिया जगत में जुड़े तमाम लोग संस्थान में आयोजित शोक सभा में भाग लेने आए थे। कई बड़े पत्रकारों को मैंने सुरेंद्र प्रताप सिंह की मौत पर बिलखते हए देखा। उनके प्रत्येक आलेख को मैं बहुत ध्यान से पढ़ा करता था, और उन आलेखों में सीधे और सहज तरीके से लिखी गई सच्चाई के लिए मैंने पत्रकारिता के इस शूरवीर को नमन किया। सरल शब्दों में कितनी गंभीर बात लिखते थे सुरेंद्र प्रताप सिंह!
पत्रकारिता के इस संस्थान में एक बार साहित्यकार और आलोचक राजेंद्र यादव को भी सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। उस दिन राजेंद्र यादव के लिए पूरा पटना उमड़ पड़ा था। लोग उनको सुनने के लिए पागल हुए जा रहे थे। हॉल खचाखच भरा हुआ था। एक साहित्यकार की लोकप्रियता पहली बार मैंने अपनी आंखों से देखा था।
इसी बीच पत्रकारिता की परीक्षा की घोषणा कर दी गई। एक बार फिर सारे लड़के-लड़कियां नोट्स एकत्र करने के होड़ में जुट गए। नियत समय पर परीक्षा शुरू हुई। परीक्षा के पहले दिन मैं क्लास में बैठकरर विलियम शेरेर की ‘राइज एंड फाल आफ दि थर्ड राइक ‘ पढ़ रहा था, जबकि श्वाति, सोमा, अफरोज आदि कुछ लड़कियों को छोड़कर सभी लड़के और लड़कियों ने अपने अंडरपैंट में मोटे-मोटे पर्चे ठूंस रखे थे। इसी बीच नरेंद्र (भड़ास4मीडिया पर मेरी एक खबर पढ़ने के बाद उनका एक मेल आया है। इस वक्त वह रांची प्रभात खबर की नौकरी छोड़कर आईनेक्स्ट ज्वाइन कर लिया है।) मेरे पास आया और मुझे किताब पढ़ते हुए देखकर उसने सोचा कि मैं भी परीक्षा में चोरी की तैयारी कर रहा हूं।
उसने छूटते ही कमेंट किया, ‘जर्मनी में चोरी नहीं चलती।’
उसकी बात सीधे मेरे दिमाग पर लगी। उसकी ओर देखते हुए मैंने कहा,‘भारत में भी चोरी नहीं चलेगी। बस देखते जाओ।’
इसके बाद क्लास में बैठे लड़के-लड़कियों की ओर देखते हुए कहा, ‘तुम सभी को पांच मिनट का समय देता हूं। अपने-अपने चीट-पर्चे निकाल दो। पांच मिनट के बाद जो कुछ होगा वो मेरी जिम्मेदारी नहीं होगी।’
मैंने घड़ी खोलकर टेबल पर रख दी और उसके भागते हुए सेकेंड की सुई पर नजरें टिका दी।
मेरी बात को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया। पांच मिनट बीतते ही मैं अपनी स्थान से खड़ा हुआ और बोला, ‘मैं नीचे उत्तम सिंह के चेंबर में बैठे मजिस्ट्रेट को बुलाने जा रहा हूं।’
इतना बोल कर मैं चल पड़ा, पीछे से मेरी कानों में जमीन पर धड़ाधड़ गिरते चीट-पर्चों की आवाज आ रही थी। कई लड़कों ने रोकने की कोशिश की, लेकिन मैं नहीं रुका और सीधे उत्तम सिंह के चैंबर के पास पहुंच गया। मजिस्ट्रेट पर नजर पड़ते ही मैंने कहा, ‘उपर चोरी की तैयारियां चल रही है और आप नीचे बैठे हैं?’
नौजवान मजिस्ट्रेट मेरी ओर देख रहा था और मैं उसकी ओर। दोनों एक दूसरे को पहचानने की कोशिश कर रहे थे। एमए की परीक्षा के दौरान कामर्स कालेज में इस मजिस्ट्रेट से मेरा पंगा हो चुका था, वह भी बुरी तरह से। इस बीच सोमा पीछे से दौड़ती हुई आई और मेरा हाथ पकड़ कर खींचने लगी। एक महिला के स्पर्श से मेरा पूरा गुस्सा ठंडा हो गया और मैं चुपचाप बाहर चला आया। उस दिन परीक्षा हाल में अपनी मस्ती में लिखता रहा, जबकि बाकी लोग मुझे गालियां दे रहे थे, हालांकि मुंह पर किसी को कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।
परीक्षा के दौरान ही एक और घटना घटी जिसने पूरे संस्थान को हिला दिया। पत्रकारिता में दाखिला लेने के पहले ही मुकुल एक बेहतर पत्रकार बनने का पहला सबक सीख लिया था, वह था दारूबाजी। क्लास में हर सुबह वह पी कर आता था और बड़े गर्व से इस बात का प्रचार भी करता था। उस दिन परीक्षा के दौरान न जाने उसे क्या सूझी कि समय अवधि समाप्त होने के पहले ही वह सभी छात्रों की कापियां छीनने लगा। राहुल ने उसका विरोध किया तो वह अपनी बेल्ट खोलकर उस पर टूट पड़ा। बेल्ट का बकलस उस राहुल के सिर पर लगा और खून की धारा फूट पड़ी। राहुल के समर्थन में मनीष चंद्रा आ गया (इन दिनों मनीष कोयले के कारोबार में चांदी काट रहा है) और उधर मुकुल के समर्थन में संजय सिंह कूद पड़ा।
इसके साथ ही परीक्षा हाल के अंदर फ्री-स्टाइल फायटिंग शुरू हो गई। मामला उत्तम सिंह और समीर सिंह के पास गया। लंबी गोलबंदी और बहसबाजी के बाद बंद कमरे में मुकुल को तमाचे मारे गए, वह भी उत्तम सिंह और समीर सिंह की अनुमति से। अपने संस्थान में उत्तम सिंह और समीर सिंह कैसे पत्रकार तैयार कर रहे थे, यह मेरी समझ से परे था।
…….जारी
पत्रकार आलोक नंदन मीडिया हाउसों की नौकरी करने से इनकार कर चुके हैं। भड़ास4मीडिया के अनुरोध पर अपनी पत्रकारीय जिंदगी के हर रंग को ईमानदारी के साथ पाठकों के सामने ला रहे हैं। आपने पहला पार्ट पढ़ा होगा। ये दूसरा भाग है। तीसरे पार्ट के लिए अगले रविवार का इंतजार करें।
अगर आप आलोक नंदन से कुछ कहना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।