इसी बीच दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज पर हिटलर से संबंधित दिल्ली के एक वरिष्ठ स्तंभकार डा.पदमनाभ शर्मा का एक आलेख छपा। इस आलेख में उन्होंने लिख रखा था कि हिटलर बचपन से ही अपनी मां और पिता से घृणा करता था। उनकी इस पंक्ति को पढ़कर मुझे झटका लगा। हिटलर से संबंधित सारे दस्तावेज निकाले और सीधे पटना के हिंदुस्तान आफिस में पहुंच गया। संपादक के अर्दली ने रोका तो अपने नाम की पर्ची अंदर भिजवाई।
अंदर से व्यस्त होने का जवाब आया। शालीनता की सीमा तोड़ते हुए मैं अंदर घुस गया और कहा, हिटलर के संबंध में गलत तथ्यों को छापने का अधिकार आपको किसने दिया? संपादक (स्थानीय) ने मुझे बैठने को कहा। मैंने अपनी पूरी बात संपादक के सामने रखी और उनसे इस आलेख पर अपने अखबार में माफी मांगने को कहा। उन्होंने विवशता जताई कि यह आलेख दिल्ली से छपा है और उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
सच्चिदानंद सिन्हा लाइब्रेरी में मैंने हिटलर के अपने मां-पिता से प्रेम करने संबंधी सारी किताबें छान मारीं। सभी दस्तावेजों के साथ सांध्य अखबार संध्या प्रहरी के दफ्तर गया। वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी ने छापने से हाथ खड़े करते हुए कहा कि किसी अन्य अखबार की बात को वह अपने अखबार में कांट्राडिक्ट नहीं करेंगे। अखबारचारा की बात पहली बार मेरे सामने आई। इस मामले को लेकर मैंने पटना हाईकोर्ट के एक वकील से संपर्क किया। तमाम तथ्यों को देखने के बाद उसने कहा कि हिटलर का संबंध जर्मनी से है। इस तरह का मामला यहां की कोर्ट स्वीकार नहीं करेगी।
एक सेमिनार में हिंदुस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हेमंत मुख्य वक्ता के तौर पर आए थे। जब सवाल-जवाब का सत्र शुरू हुआ तो मैंने उनसे हिटलर पर लिखे डा. पदमनाभ शर्मा के आलेख का मामला उठाया। हेमंत उस वक्त हिंदुस्तान में ही काम कर रहे थे। उन्होंने इस प्रश्न पर चुप्पी साध ली। इसके बाद मैं खुद का अखबार निकालने के विषय में सोचने लगा था।
उधर, एक के बाद एक परीक्षा के पेपर निकलते जा रहे थे। छात्रों ने गेट-टुगेदर करने की योजना बनाई और पैसे इकट्ठे करने का काम मुझे सौंप दिया। कार्यक्रम में दिलचस्पी न होने की बात कह अफरोज ने 50 रुपये नहीं दिए, बाकी सभी से मैंने ले लिए। परीक्षा खत्म होने के बाद गेट-टुगेदर कार्यक्रम का आयोजन किया गया। रात भर बैठकर मैंने सभी छात्र-छात्राओं पर चार-चार लाइनों की कविताएं बनाईं। इन्हें पढ़ने का जिम्मा करुण (इन दिनों एनडीटीवी पर एंकर के रूप में नजर आता है) और चेतना को सौंपा। चेतना प्रसिद्ध पत्रकार मार्कण्डेय प्रवासी की बेटी थी, नीरज की कविताओं की दीवानी थी।
एक बार अवधेश प्रीत के क्लास के दौरान चेतना ने मुझ पर जोरदार तरीके से हमला किया था। मामला कुछ यूं था। अवधेश प्रीत अनुवाद पर व्याख्यान दे रहे थे। व्याख्यान के दौरान ही, आदत के अनुरूप, सभी से सवाल जवाब कर रहे थे। उन्होंने मेरी राय मांगी। मेरे मुंह से अनुवाद पर किसी बड़े लेखक की टिप्पणी निकल गई, ट्रांसलेशन इज लाइक ए वूमेन, इफ इट इज ब्यूटीफुल, नॉट फेथफुल, इफ इट इज फेथफुल, नॉट ब्यूटीफुल। इतना सुनते ही चेतना ने मुझ पर चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया, क्लास की अन्य लड़कियां भी उसके सुर में सुर मिला रहीं थीं। उस दिन पहली बार अहसास हुआ था कि चाहे इस संस्थान में कुछ हो या न हो, लेकिन नारी शक्ति सजग है।
खैर, करुण और चेतना छात्र-छात्राओं पर लिखी गई पंक्तियां पढ़ते चले गए। इसके बाद मंच संभालने की जिम्मेदारी मेरी थी। चूंकि मेरी आत्मा के तार इटली की आत्मा मेजिनी से जुड़े हुए थे, जो अपने युवा अवस्था में काले कपड़े पहनकर अपनी राष्ट्र की दुर्दशा पर आंसू बहाया करता था, इसलिए भावी पत्रकारों की इस टोली को लेकर मैंने कई सपने बुन रखे थे। मैंने सच्चाई और ईमानदारी का एक शपथपत्र तैयार किया हुआ था। मैंने अपनी बात रखी और शपथपत्र की एक एक प्रति सभी को देने को कहा। 1789 ईसवी की फ्रांसीसी क्रांति के दौरान टेनिस कोर्ट के मैदान में भावी नीति-निर्धारकों द्वारा लिए गए शपथ के माहौल जैसा ही उस हॉल का माहौल बन गया था। मेरे शब्दों के साथ-साथ पूरे हॉल में छात्र-छात्राओं के शब्द भी गूंज रहे थे। एक पवित्र भावना को मानवीय स्तर पर आकार लेते हुए मैं स्पष्ट रूप से देख और सुन रहा था। शपथ ग्रहण समारोह का यह दौर करीब पांच मिनट तक चलता रहा। पत्रकारिता की डगर पर एक लंबी दूरी तय करने के बाद आज मैं कह सकता हूं कि वे मेरे जीवन के अदभुत क्षण थे।
लिखित परीक्षा की समाप्ति के बाद विभिन्न मीडिया हाउसों के छात्रों की ट्रेनिंग की बात चली। पहले खेप में अधिकतर लोगों को प्रभात खबर ने रख लिया। उस वक्त प्रभात खबर को नए हैंड की जरूरत भी थी, जो मुफ्त में वहां काम कर सके। कुछ लोग आर्यावर्त में चले गए। लंबे समय तक बंद रहने के बाद आर्यावर्त को फिर से नए तामझाम के साथ खोला गया था। उन सभी पुराने पत्रकारों को एक बार फिर से मौका दिया गया था, जो मुंह में पान की गिलौरी रख कर काम करने के अभ्यस्त थे। मार्कण्डे प्रवासी भी आर्यावर्त में काम कर रहे थे। कुछ छात्र जब उनके पास ट्रेनिंग के लिए गए तो उन्होंने पत्रकारिता के पेशे पर अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा, क्यों इसमें अपना जीवन बर्बाद करने के लिए आ रहे हो। कोई सरकारी नौकरी तलाशो, सुखी रहोगे। उस वक्त उनकी इस बात को छात्रों ने एक थके हुए पत्रकार का विलाप कह कर नकार दिया। कुछ छात्रों को विकास कुमार झा ने माया में रख लिया। हालांकि माया मालिकों की आपसी लड़ाई के कारण डगमगा रहा था और विकास कुमार झा भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे। उन्होंने एक नई पत्रिका राष्ट्रीय प्रसंग की तैयारी शुरू कर दी थी। मनोहर कहानियां में अपराध की खबरों पर बेहतरीन रिपोर्टिंग करने वाले यतींद्रनाथ भी विकास कुमार के दफ्तर में ही बैठकर कलम चला रहे थे। उन्हें भी विकास कुमार झा के राष्ट्रीय प्रसंग में नई संभावनाएं दिखाई दे रहीं थीं।
कुछ लोग आज अखबार में घुस गए। तीखे तेवर वाले हिमांशु और अविरल को हिंदुस्तान में जगह मिल गई। मुकुल और संजय सिंह ने अपनी लग्गी लगाई और दूरदर्शन में पहुंच गए। मैं किसी भी खाने में फिट नहीं बैठ रहा था। समीर सिंह मुझ पर पहले से ही भड़के हुए थे और मुझे सबक सिखाने का उनके पास यह अच्छा मौका था। जब मैंने उनसे पूछा कि मुझे आप कहां भेज रहे हैं तो मेरा मजाक उड़ाते हुए उन्होंने कहा कि तुम्हें ट्रेनिंग की क्या जरूरत है। तुम्हें तो सीधे टाइम्स आफ इंडिया रख लेगा। समीर सिंह से बिना बहस किए मैं एक अन्य छात्र के साथ टाइम्स आफ इंडिया के आफिस पहुंच गया। उस वक्त उत्तम सेन गुप्ता वहां के स्थानीय संपादक थे, और लालू के चारा घोटाला पर खूब कलम चला रहे थे। लालू और लालू की पूरी फौज उनके कलम चलाने के अंदाज से आतंकित थी। आफिस के बाहर उनके कार पर गोलियां भी दागी गई थी, लेकिन उनकी कलम बेखौफ चलती जा रही थी।
नए लोगों को पत्रकारिता में कदम रखते देखकर उन्हें अपार खुशी हो रही थी, हालांकि वे यही चाह रहे थे कि हम लोग यूपीएससी की परीक्षा की तैयारी करें। मैं उनसे पूछ बैठा, क्या आप जीवन में पत्रकार बनना चाहते थे, तो उन्होंने कहा, नहीं, एक आईएएस अधिकारी। बिना किसी पैरवी के टाइम्स आफ इंडिया में अपनी सेटिंग हो गई। जब समीर सिंह को इस बात का पता चला तो उन्होंने एक नया तिकड़म रच डाला। चार-पांच छात्रों को अपने संस्थान को लेटर पकड़ा कर टाइम्स आफ इंडिया भेज दिया। उत्तम सेन गुप्ता एक साथ इतने सारे छात्रों को देखकर बौखला गए, हालांकि हल्की सी फटकार लगाने के बाद उन्होंने सभी को रख लिया। टाइम्स आफ इंडिया का पूरा सेटअप कंप्यूटराइज्ड था। अपने घर पर एक मरियल से टाइप मशीन पर मैंने अंग्रेजी टाइपिंग का अभ्यास बहुत पहले ही कर लिया था, लेकिन कंप्यूटर के तामझाम मेरी समझ से बाहर थे। वहां पर ट्रेनिंग के लिए गए सभी लोगों का यही हाल था।
उत्तम सेन गुप्ता से पत्रकारिता के विषय में ज्यादा कुछ सीखने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि मेरे वहां जाने के सात दिन के अंदर ही उन्हें वहां से चलता कर दिया गया। चर्चा थी कि लालू के खिलाफ उनके द्वारा बजाई गई बिगुल टाइम्स आफ इंडिया के मैनेजमेंट से मेल नहीं खा रही थी। बड़ी सरलता से उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर बांधा और कोलकाता रवाना हो गए। उनके जाने के बाद सुधीर सिंह ने उनका कार्यभार संभाल लिया। उत्तम सेन गुप्ता सुधीर सिंह से मेरी मुलाकात करा चुके थे लेकिन उनके साथ बात कुछ जम नहीं रही थी। पंद्रह दिन बाद मैं भी वहां से निकल लिया। सुधीर सिंह ने ट्रेनिंग से संबंधित कोई भी प्रमाणपत्र देने से साफ इनकार कर दिया था। इस बात की जानकारी जब उत्तम सिंह को हुई तो वह काफी खुश हुए। मुझे समझाने लगे कि हर काम को एक व्यवस्था के तहत किया जाना चाहिए। मुझे उनका लेटर लेकर टाइम्स आफ इंडिया में जाना चाहिए था।
पत्रकार आलोक नंदन मीडिया हाउसों की नौकरी करने से इनकार कर चुके हैं। भड़ास4मीडिया के अनुरोध पर वे अपनी पत्रकारीय जिंदगी के हर रंग को पाठकों के सामने ला रहे हैं। चौथे पार्ट के लिए अगले रविवार तक इंतजार करें। अगर आप आलोक नंदन से कुछ कहना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।