टाइम्स ऑफ इंडिया से निकलने के बाद मेरा एक ही काम था- पटना की सड़कों पर भटकना। हर राजनीतिक- सांस्कृतिक गतिविधि पर मेरी नजर होती थी। कभी कालीदास रंगालय में नाटक देखता, कभी गांधी मैदान में रैलियों में दूर से आने वालों की जिंदगी में झांकने की कोशिश करता, कभी बंद दीवारों में जारी बौद्धिक बहसों को तौलता, कभी डाक बंगला चौराहे पर पुलिस-प्रर्दशनकारियों में झड़पों के पीछे के व्याकरण का सूत्र तलाशता। रात में अपने कमरे में बंद होकर विश्व इतिहास में गहन डुबकी लगाता।
सुकरात की मौत, अरस्तू का जान बचाने के लिए पलायन, गुलाम स्पार्टकस का रोमन साम्राज्य को खूनी चुनौती, मार्टिन लूथर द्वारा पारंपरिक चर्च को ललकारना, सूरज और अन्य नक्षत्रों के बीच सही तालमेल बैठाने के लिए ईसाई धर्म गुरुओं द्वारा गैलीलियो को प्रताड़ित करते हुए अंधा बनाना, वेदों को नकारते हुये चार्वाक की भौतिकतावादी विचारधारा, तथागत के सरल उपदेश, कबीर वाणी, सती प्रथा के खिलाफ राजा राममोहन राय का हस्ताक्षर अभियान आदि बातें मेरी खोपड़ी में धक्कामुक्की करती रहती थीं। दिन-प्रितदिन की घटनाओं को गहन चिंतन के आधार पर समझने की कोशिश करता। मैकियावेली की ‘प्रिंस’ मथने के बाद एक बात साफ हो चुकी थी कि मेरे अगल-बगल के परिवेश में लोकतंत्र को दफना दिया गया था। मैकियावेली की ये पंक्तियां बिलकुल सटकी लगतीं- लोकतंत्र दुनिया की सबसे बेहतर शासन प्रणाली है, लेकिन लोकतंत्र के लिए नागरिकों का शिक्षित होना जरूरी है। शिक्षा के अभाव में लोकतंत्र भीड़तंत्र के रूप में तब्दील हो जाता है। लोग एक दूसरे की बात नहीं सुनते हैं। बस चीखते-चिल्लाते हैं। लूट, खसोट, हत्या, मारकाट और बलात्कार आम हो जाता है। ये लोकतंत्र के भीड़ तंत्र में तब्दील हो जाने के लक्षण हैं।
मेरे चारों ओर सब कुछ था- लूट, खसोट, हत्या, मारकाट और बलात्कार।
पटना में आयोजित एक सेमिनार में वामपंथी नेता डॉ. विनयन को सुनने का अवसर मिला। पूरी व्यवस्था को वह बंदूक की नोक पर उलटने की बात कर रहे थे। वर्तमान समाचार पत्रों के खिलाफ भी आग उगल रहे थे। जगन्नाथ मिश्रा के शासन काल में मजदूर संग्राम समिति के नाम से इन्होंने काफी उथल-पुथल मचाया था और इन पर पांच लाख रुपये का इनाम था-जिंदा या मुर्दा। सेमिनार समापन के बाद मैंने उनसे कहा कि आपकी बातें रेडिकल है। आपको लगता है कि भारत में इस तरह का कुछ हो सकता है?
उन्होंने हंसते हुए कहा, हां मैं रेडिकल हूं और मुझे अपनी बातों में यकीन है।
मैंने दूसरा सवाल किया, आपने शादी की ?
उन्होंने कहा, मैं क्रांति से शादी कर चुका हूं। मैं तो बस क्रांति के लिए ही जी रहा हूं।
उस सहज और संक्षिप्त सी मुलाकात के बाद मैं लगातार डॉ. विनयन की बातों पर सोंचता रहा, लेकिन उनसे सहमत नहीं हो पा रहा था। मेरे घर के अगल-बगल खूबसूरत इमारतों की कतारें थी। क्या बंदूक के नोंक पर इनमें रहने वाले लोगों को झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के साथ बराबर किया जा सकता था ? असंभव !!
बहरहाल जो भी हो, मेरा दिमाग स्वतंत्र तरीके से उड़ान भरने लगा था। जहां-तहां होने वाली बहसों में अपनी बात रखने से नहीं हिचकता था। नगर में एक प्रखर वक्ता के रूप में मेरी पहचान बनती जा रही थी। विभिन्न गोष्ठियों और सभाओं में आमंत्रित किया जाता था मैं खूब बोलता था और खुलकर बोलता था।
यह सोवियत संघ के बिखरने के बाद का दौर था और इस बिखराव का प्रभाव स्पष्ट रूप से पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र जनशक्ति पर पड़ रहा था। अदालतगंज के पास स्थित जनशक्ति अखबार का प्रेस बहुत बड़े भू-भाग पर फैला हुआ था। प्रेस के बाहर मुख्य सड़क पर एक बहुत बड़ी किताब की दुकान थी, जो साम्यवादी सोच वाली किताबों से भरी रहती थी। किसी जमाने में हर वक्त खुली रहने वाली इस दुकान में ताला लटक गया था। सड़कों पर फैले प्रगति प्रकाशन की किताबें गायब हो रही थी। काफी कम कीमत पर मैक्सिम गोर्की, चेखोव, लियो तोलोस्तोव, दोस्तोवोस्की आदि की किताबों ने नया शक्ल अख्तियार कर लिया था। अब इन लोगों को बड़े बुक शॉप में ऊंची कीमतों पर बेचा जा रहा था। कैप्टलिज्म के खिलाफ दुनिया को बदलने की बात कहने वाले मार्क्स का व्यापक सस्ता लिट्रेचर धीरे-धीरे पटना से लुप्त हो रहा था।
जनशक्ति अखबार में बेतुकी बहसें हो रही थी। पुरुषोत्तम जी के कारण इन बेतुकी बहसों के बीच बैठने का कई बार मौका मिला था। उस वक्त पुरुषोत्तम जी अखबार के साप्ताहिक फीचर पन्नों के इंचार्ज होते थे। उनकी बहसों को सुनकर यही अहसास होता कि मार्क्सवाद की राह पर चलने वाले इन सैनिकों की सांसे उखड़ चुकी है। हालांकि कुछ लोग विभिन्न देशों में अमेरिका के खिलाफ इस्लामिक गोलबंदी को मार्क्सवाद से जोड़ कर देख रहे थे, और उनके इस नजरिये पर मुझे तरस आता था। अकेले में पुरषोत्तम जी से खूब बातें होतीं, वह संत कबीर के प्रशंसक थे और कबीर में ही वह भारत की असली क्रांति को देखते थे। एक सतत मानसिक विकास की प्रक्रिया के तहत वह मार्क्सवाद का दामन छोड़ रहे थे, हालांकि लोगों के बीच अलख जगाते रहने की उनकी भावना और मजबूत हुई थी।
इसी दौरान कृष्ण सेना का अध्यक्ष गुड्डू टकराया। उस वक्त बिहार में जातीय आधार पर विभिन्न तरह की सेनाओं ने अपना परचम लहरा रखा था। असली लड़ाई जमीन पर कब्जे को लेकर हो रही थी। ऐसा कोई भी महीना नहीं बीतता था जिसमें खून की होली नहीं खेली जाती थी। गांव के गांव का सफाया भेड़ बकरियों की तरह किया जाता था। सामंत किसानों का नेतृत्व रणवीर सेना कर रही थी, जबकि कई वामपंथी संगठन भी विभिन्न बैनरों के तहत अपने को मजबूत करने में लगे थे। घात-प्रतिघात की लड़ाई में बिहार की धरती खून से लाल हो रही थी। इसका कोई अंत नहीं था।
गुड्डू को कृष्ण सेना के लिए मुद्दों की तलाश थी। अपनी सेना के माध्यम से वह व्यापक तरीके से कुछ करना चाहता था। जूनियर बुश के नेतृत्व में अमेरिकी सेना सद्दाम को सबक सिखाने के लिए इराक पर हमला कर चुकी थी। आम लोगों में सद्दाम के प्रति सहानभूति थी। मैंने गुड्डू को कहा कि इसे लेकर आंदोलन किया जा सकता है। इस अंतरराष्ट्रीय मुद्दे को पकड़ कर कृष्ण सेना लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। स्थानीय राजनीतिक समीकरण पर इसका कोई असर नहीं पड़ेगा, और सेना की पहचान लोगों के बीच तेजी से बनेगी। बात उसकी समझ में आ गई। आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। आंदोलन के लिए लिखित सामग्री तैयार करने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। मैंने उसे साफ कह दिया था कि फ्रंट पर मैं नहीं आऊंगा, मुझे पत्रकारिता करनी है, न कि आंदोलन।
जूनियर बुश के इराक अभियान के खिलाफ मैंने कुछ जोरदार नारे बनाये। रातोंरात उन नारों को कपड़ों के बैनर पर लिखवाया गया और पटना की सड़कों पर जोरदार प्रदर्शन की तैयारी की गई। इससे संबंधित पत्र रात में ही पुलिस प्रशासन और जिला अधिकारी को दे दिये गये। एक खास पत्र संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव कोफी अन्नान के नाम लिखा गया। इसमें लिखा था कि यदि अमेरिकी सेना को इराक से नहीं हटाया गया तो कृष्ण सेना अपने सैनिकों को इराक में अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ उतार देगी। मैं इस पूरे आंदोलन को एक प्रयोग के तौर पर ले रहा था।
सुबह को लड़कों की फौज हड़ताली मोड़ पर जुटी। नारेबाजी के साथ फौज गुड्डू और रंजन के नेतृत्व में डाक बंगला चौराहे की ओर बढ़ी। मैं इस फौज से दूर इसके साथ-साथ चल रहा था। फोटोग्राफर इस प्रदर्शन को कवर करने में लगे थे। डाक बंगला चौराहा जाम हो गया। फौज हड़ताली मोड़ की ओर लौटने लगी। यहां बुश का पूतला फूंकने की योजना थी, लेकिन पुलिस वालों ने पुतला छीन लिया। भाषणबाजी का दौरा शुरू हुआ। फौज के कुछ प्रतिनिधियों ने कोफी अन्नान के नाम लिखा पत्र राज्यपाल के एक प्रतिनिधि के हवाले कर दिया। प्रदर्शन के दस दिन बाद ही इस सेना से जुड़े सभी लोगों की जांच-पड़ताल ऊंचे स्तर पर होने लगी। राजवंशी नगर स्थित कृष्णा सेना के मुख्यालय पर छापा मारा गया। मैं समझ गया था कि बात बहुत ऊपर तक पहुंच ई है। रातों रात कृष्ण सेना के सभी सदस्य भूमिगत हो गये। मैं एक बार फिर किताबों के साथ मगजमारी करने लगा। बाद में कई मुस्लिम संगठनों ने गुप्त तरीके से संपर्क साधा और इस आंदोलन को आगे बढ़ाने की पुरजोर कोशिश की। उनकी बातों को सुनने के बाद मुझे लगने लगा कि सद्दाम के नाम पर गोलबंदी करके बिहार में लालू के माई समीकरण को आसानी से ध्वस्त किया जा सकता था। चूंकि मेरी रुचि कलम चलाने में थी, इसलिए इस दिशा में मैं आगे कदम नहीं बढ़ा सका और छापामारी के बाद कृष्ण सेना के भी हौसले पस्त हो चुके थे।
मैं खुद का अखबार निकालना चाहता था। माया पत्रिका को बंद करने का फरमान जारी हो चुका था, और विकास कुमार झा ने राष्ट्रीय प्रसंग की शुरुआत कर दी थी। पटना के कलेक्ट्रेट में एक अखबार के लिए मैं भी आवेदन करने पहुंचा। क्लर्क ने कहा कि आप पांच-छह नाम दे दें। मैंने सिर्फ एक नाम दिये, रॉथ ऑफ इंडिया। मेरे आवेदन को आगे बढ़ाने के लिए उसने 500 रुपये मांगे तो मेरे मुंह से निकला, जिस चीज के खिलाफ मैं आवाज उठाना चाहता हूं, वही काम करने के लिए तुम मुझसे कह रहे हो। इसके बाद मैं सीधा बड़े अधिकारी के चेंबर में दाखिल हो गया। ने बिना लाग-लपेट कहा, बाहर बैठा कर्मचारी मुझसे आप तक आवेदन पहुंचाने के एवज में पैसे मांग रहा है। उस अधिकारी को मेरे तेवर तुरंत समझ में आ गये। क्लर्क को बुलाकर डांटा और मेरा आवेदन रख लिया। करीब 20 दिन बाद रॉथ ऑफ इंडिया का एप्रूवल काजग मेरे हाथ में था।
मैं इस अखाबर को नहीं निकाल सका। दिमाग श्रेष्ठ विचारों से भले भरा था, लेकिन जेब खाली थी। पत्रकारिता का रिजल्ट भी आ गया। स्वाति टॉपर, दूसरे नंबर पर सोमा। तीसरे पर अफरोज। ये दोनों लड़कियां बाद में पत्रकारिता के पथ पर आगे न बढ़ सकीं। साधारण नंबरों से मैं भी पास कर गया। संस्थान के सभी छात्र किसी न किसी अखबार से जुड़ चुके थे। मेरे लिए पटना की पत्रकारिता में कोई स्थान नहीं बचा था। मनीष सिन्हा, मुकुल और नरेंद्र दिल्ली जा चुके थे, जबकि संयम, प्रदीप सिंह और अविरल गुजरात निकल गये थे। हिमांशु ने भी दिल्ली की राह पकड़ ली थी। कुमुद प्रभात खबर में काम करने लगी थी। मैं अपने भविष्य को लेकर अनिश्चय में था।दिल्ली निकलने की इच्छा मन के किसी कोने में तैर रही थी।
अमृत वर्षा लगातार लालू के खिलाफ लिख रहा था। इस अखबार का ऑफिस पंत भवन के नीचे तलघर में था। तिवारी जी इस अखबार के मालिक मुख्तार थे। इस अखबार का एक संस्करण सुबह और दूसरा दोपहर को निकलता था। दोपहर वाले संस्करण को लोगों तक पहुंचाने के लिए तिवारी जी झुग्गी के छोटे बच्चों का इस्तेमाल कर रहे थे। अखबार की दस-दस प्रतियां पकड़ा कर वे बच्चों को सड़कों पर भेज देते थे। हर अंक में लालू को टारगेट करके मुख्य हेडिंग बनाई जाती थी। बच्चों को यह हेडिंग रटा दी जाती थी। लालू के गुंडों ने एक दिन अमृता वर्षा के दफ्तर में घुस कर उनका सिर फोड़ डाला। इस खबर को उन्होंने प्रमुखता से छापा और लालू के खिलाफ सेमिनार का भी आयोजन कराया। इस घटना के बाद तिवारी जी से मेरी मुलाकात हुई। वे चाहते थे कि मैं उन्हीं के अखबार में उन्हें एक हीरो के तौर पर प्रस्तुत करूं। उनके प्रस्ताव को मैंने अस्वीकार कर दिया। अमृत वर्षा के दफ्तर में ही मेरी मुलाकात अशोक प्रियदर्शी से हुई। बिहार की धरती को सलाम करके वे दिल्ली की ओर प्रस्थान करने की योजना बना रहे थे।
इसी बीच मेरा छोटा भाई पढ़ाई के लिए दिल्ली चला गया। उसके जाने के करीब एक सप्ताह बाद मैंने भी दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली…..। जारी…।
पत्रकार आलोक नंदन इन दिनों मुंबई में हैं। कलम के दम पर फिल्म उद्योग से रोजी-रोटी पा रहे हैं। भड़ास4मीडिया के लिए अपनी पत्रकारीय जिंदगी के अनुभवों को शब्दों का रूप दे रहे हैं। पांचवें पार्ट के लिए अगले रविवार तक इंतजार करें। आप आलोक से कुछ कहना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।