भाग (1), (2), (3), (4), (5) से आगे..
दिल्ली की रणभूमि : वीर अर्जुन अखबार में मैं अनिल नरेंद्र के पिता के. नरेंद्र को जब भी देखता तो मुझे लियो तोलोस्तोय की पुस्तक ‘युद्ध और शांति’ में अंद्रेई बोलोकोन्सकी के बुर्जुग पिता की याद आ जाती थी, जिनका पूरा जीवन अनुशासन के कठोर नियमों से बंधा हुआ था। जो महान रुसी साम्राज्य की नींव हुआ करते थे। के. नरेंद्र पुरानी पीढ़ी के अनुशासित पत्रकारों में से थे। उर्दू पर उनकी शानदार पकड़ थी।
न सिर्फ पत्रकारिता, बल्कि जीवन के प्रत्येक पक्ष में उनकी प्रतिबद्धता उनके हावभाव से झलकती थी। वे टेनिस के मैदान से स्पोर्ट्स वाले वेशभूषा में अक्सर सीधे ऑफिस आते थे। उनकी कलाई पर एक पट्टी बंधी होती। अपने अखबार में वह प्रत्येक दिन कुछ न कुछ कहते थे। वह भी धारदार तरीके से। हालांकि अखबार के अन्य प्रबंधकीय कार्यों से वह अलग हो चुके थे। अखबार में काम करने वालों के दिमाग में यह बात बैठी हुई थी वह गुस्सैल किस्स के हैं, लेकिन मैंने उन्हें कभी ऊंचे सुर में बोलते नहीं सुना था।
वह कलम चलाने के बजाय बोलना ज्यादा पसंद करते थे। सदानंद पांडे उनका डिक्टेशन लेने के लिए क्राइम रिपोर्टर और एक पेज के इंचार्ज जितेन्द्र को भेजते। जब जितेंद्र कमरे से बाहर निकलता तो चेहरे पर हवाइयां उड़ रही होती। पूछने पर इतना ही बोलता, ‘बड़े साहब उर्दू के शब्दों का ऐसा इस्तेमाल करते हैं कि हाथ ही नहीं चलता।” सदानंद पांडे ने मुझे कभी उनके पास नहीं भेजा। शायद उन्हें पता था कि हम दोनों आपस में उलझ जाएंगे।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के सत्ता संभालने के बाद के. नरेंद्र इस सरकार को मजूबत करने की भावना से संचालित हो रहे थे। उनके आलेखों को पढ़कर यही आभाष होता। इसी दिन के लिए उन्होंने वर्षों तपस्या की थी। अपनी बात वह चुटीले अंदाज में कहते। जब ममता बनर्जी हो-हंगामा करने में लगी थीं और गठबंधन के नेता उन्हें मनाने में तो के. नरेंद्र ने एक आलेख में शीर्षक लगाया, ‘हसीना मान जाएगी’।
वीर अर्जुन में काम करने के दौरान मैं अक्सर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का चक्कर लगाया करता। एक दिन अपने मित्र के साथ जेएनयू के मुख्य गेट पर खड़ा था। मेरे सामने एक कार रूकी। कार का शीशा जैसे ही नीचे उतरा उसमें कुलदीप नैयर का चेहरा दिखा। उन्होंने मुझसे किसी वेन्यू के बारे में पूछा। जब उन्हें बताया कि मैं भी उधर जा रहा हूं तो वे खुश हुए। मुझे और मेरे मित्र को कार में बिठा लिया। कुलदीप नय्यर को मैं लंबे समय से पढ़ता आ रहा था और निसंदेह उनकी लेखनी का फैन था। उन्हें लगा कि मैं छात्र हूं, लेकिन जब बताया कि मैं भी पत्रकार हूं, तो उन्होंने उत्साह से मुझे अपने गले लगा लिया। एक जोरदार ठहाका लगाते हुए बोले, ‘अरे, तुम तो अपने ही भाई निकले।’ पहली मुलाकात में मैं उनकी सरलता का कायल हो गया। बाद में कई सार्वजनिक मौकों पर उनको सुनने का अवसर मिला। उनमें मेरी आस्था बढ़ती गई।
मनीष सिन्हा मेरे साथ वीर अर्जुन में काम कर रहा था। उसने मुझे एक युवा पत्रकार संगठन की सदस्यता लेने को कहा, जिसका वह सदस्य था। इस संगठन का नेतृत्व राष्ट्रीय सहारा में काम करने वाले मनोज कर रहे थे। इसकी बैठक रविवार को सांसद जय प्रकाश निषाद के बंगले के बाहर के ग्राउंड में होती थी। बैठकों में करीब 50 युवा पत्रकार आते। पत्रकारों को पालतू बनाने की प्रवृत्ति से ओतप्रोत जय प्रकाश निषाद ने अपने बंगले का एक कमरा मनोज के कहने पर इस संगठन को दे दिया था। मैं भी सदस्य बन गया। संगठन की ओर से वार्षिक कार्यक्रम का आयोजन किया जाता और एक शॉविनियर निकाली जाती। मनोज ने शॉविनियर में अधिक से अधिक एड लाने के लिए सभी पत्रकारों को लगा दिया। एड के लिए सभी पत्रकार खूब भागम भाग कर रहे थे।
कांस्टीट्यूशन कल्ब में आयोजित इस वार्षिक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि कुलदीप नैयर थे। संगठन की जी-तोड़ कोशिश से उस दिन अच्छे खासे लोग जमा हो गए। मुख्य वक्ता के तौर पर युवा पत्रकारों को पत्रकारिता के गूढ़ रहस्यों को समझाते हुये कुलदीप नैयर ने खुद की कहानी बताई। कैसे वह पत्रकार बने।
उन्होंने कहा कि एमए की परीक्षा में असफल होने के बाद उन्होंने पत्रकार बनने की सोची। एक छोटे से अखबार के संपादक के पास गये। अखबार के संपादक ने एक शर्त रखी कि उन्हें नौकरी के एवज में संपादक के बच्चों को पढ़ाना होगा। इस काम के लिए कुलदीप नैयर सहर्ष तैयार हो गये। संपादक से अपने पद के विषय में पूछा तो संपादक ने कहा, ‘संपादक पद को छोड़कर तुम्हे जो पद अच्छा लगे, रख लो।’ युवा पत्रकारों को कहे गये कुलदीप नैयर के ये शब्द अब भी मेरी कानों में गूंज रहे हैं, ‘आम लोगों के प्रति गहन निष्ठा और मेहनत से ही आप युवा पत्रकार पत्रकारिता में अपने लिये स्थान बना सकते हैं।’
किसी संगठन के लोग जब संगठन का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत हित के लिए करने लगते हैं तो वह संगठन पतन की राह पर अग्रसर हो जाता है। युवा पत्रकार संगठन के साथ भी यही हुआ। रविवार को नियमित तौर पर होने वाली आम बैठक संगठन के बड़े अधिकारियों की अनुपस्थिति के कारण स्थगित होने लगी। संगठन के सदस्यों में गुस्सा बढ़ता जा रहा था। मुझे भी लगने लगा था कि इस संगठन में मेरा समय खराब हो रहा है।
संगठन के अध्यक्ष मनोज को दिल्ली से बाहर दो तीन महीने के लिए अपने ऑफिस के काम से जाना था। किराया बचाने के लिए उन्होंने अपने घर का सामान निषाद द्वारा दिए गए संगठन के ऑफिस में भर दिया। रविवार को जब संगठन कार्यालय पहुंचा तो वहां ताला लगा था। एक पत्रकार संगठन के अध्यक्ष के इस रवैये से मैं हैरान था। वीर अर्जुन कार्यालय लौटकर मैंने इस पर एक तगड़ी खबर बनाई।
खबर को देखने के बाद सदानंद पांडे ने समझाया कि पत्रकार होकर पत्रकार के खिलाफ खबर मत लिखो। मैंने कहा, ‘पत्रकार की गलती को उजागर करने की जिम्मेदारी भी पत्रकार की ही है। एक पत्रकार की गलती को भी बख्शा नहीं जा सकता।’ मेरी बात से सहमत होकर उन्होंने खबर लगी दी। दूसरे दिन उस खबर की कटिंग मैंने उस संगठन के कार्यालय के दरवाजे पर चिपका दिया। जय प्रकाश निषाद को यह बात समझ में आ गई कि सभी पत्रकारों को पालतू नहीं बनाया जा सकता। आगे लफड़ा की आशंका देखते हुए उन्होंने पत्रकार संगठन को अपने सरकारी बंगले के बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद कई बार संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए मेरे पास फोन आते रहे। मैंने अकेले ही पत्रकारिता के डगर पर सफर करने का निश्चय कर लिया था।
वीर अर्जुन में काम करने के दौरान अचानक अशोक प्रियदर्शी से मुलाकात हुई। पटना से दिल्ली आने के बाद वह नौकरी की तलाश में थे। मैंने उनकी मुलाकात सदानंद पांडे से करा दी। वह भी मेरे साथ काम करने लगे। इस बीच संजय राय और दिवाकर भी नये साथी के तौर पर वीर अर्जुन से जुड़ गए। सभी लोगों को पैसे बहुत कम मिलते थे। पक्की नौकरी भी नहीं थी। एक जबरदस्त हड़ताल झेल चुका वीर अर्जुन प्रबंधन नई भर्ती के लिए तैयार न था।
वीर अर्जुन के सांध्य संस्करण में मेरे आलेख धड़ाधड़ छप रहे थे। पैसे कम मिलने के बावजूद मैं खुद को अभिव्यक्त कर पा रहा था। लिखने की पूरी स्वतंत्रता मिली थी। किसी अन्य अखबार में नौकरी के लिए हाथ-पैर नहीं मारने के और भी कई कारण थे।
मंडी हाउस में दिल्ली के पत्रकारों के साथ अड्डेबाजी करने का चस्का लगा हुआ था। शाम होते ही दफ्तर से निकलता और सीधा मंडी हाउस पहुंचता। पत्रकारिता से रंगमंच की दुनिया में प्रवेश करने वाले अरविंद गौड़ अस्मिता के बैनर के तले नाटकों का धड़ाधड़ मंचन कर रहे थे। अस्मिता की तमाम प्रस्तुतियां सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई थीं, इसलिए मुझे अच्छी लगती थी। उनकी मंडली के सारे लोगों को मैं अच्छी तरह से जानने लगा था। उनके अभिनय की ताबड़तोड़ समीक्षा किया करता था।
उस समय मंडी हाउस में रंगमंच से जुड़े बहुत सारे बैनर सक्रिय थे। नट सम्राट हास्य प्रस्तुतियों पर जोर देता था। मौलियर के नाटकों पर नट सम्राट ने खूब काम किया था। मंडी हाउस में हर रोज कोई न कोई नाटक होते रहते। इन नाटकों को देखने के बाद मंडी हाउस की सड़क के किनारे लगे पत्रकारों की चौकड़ी में शामिल हो जाता था। मुकेश महान, अखिलेश अखिल, अखिलेश पांडे, अपूर्व गांधी, राजू वोहरा, सुभाष झा आदि पत्रकार वहां बैठते थे। सबकी अपनी खास विशेषताएं थीं।
मंडी हाउस में कला के नाम पर वेश्यावृत्ति और मादक पदार्थों की तस्करी का धंधा जोरों पर था। काफी जांच-पड़ताल के बाद इस पर एक स्टोरी तैयार की। वीर अर्जुन में प्रकाशित होने के बाद एक रात मादक पर्दाथ की तस्करी से जुड़े लोगों ने मेरे पर जोरदार हमला किया। यदि ऐन वक्त पर मैं अपने कदम पीछे न करता तो चाकू मेरे पेटे को फाड़ डालता। सदानंद पांडे के कहने पर मैं दिल्ली पुलिस मुख्यालय में नारकोटिक्स विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी से मिला। उन्होंने अपने तरीके से इस मामले को हैंडिल करने आश्वसन दिया। इस घटना के बाद दिल्ली की वेश्यावृत्ति और मादक तस्करी को मैंने निशाने पर रखा। इनके खिलाफ खूब खबरें लिखी। वीर अर्जुन के लोग मुझसे हंसकर इस नगर की वेश्याओं का हाल-चाल पूछा करते थे।
मजनू का टीला के ईद-गिर्द फैली हुई तिब्बती शरणार्थियों की बस्ती भी नशाखोरी और वेश्यावृत्ति के लिए कुख्यात थी। उस इलाके में मैंने कई बार चक्कर लगाये और तिब्बतियों के दिल्ली में आ बसने के औचित्य को समझ नहीं पाया। बांग्लादेसी घुसपैठिये भी दिल्ली में चारों ओर कीड़े-मकोड़ों की तरह फैले हुये थे। प्रदूषण से काली हो चुकी जमुना नदी के किनारे जब भी मैं इनकी बस्तियों में जाता तो यहां एक से एक नजारा देखने को मिलते थे, जिससे उबकाई आती थी।
सदानंद पांडे ने मुझे किसी बीट में नहीं बांधा था। जहां से और जिधर से मतलब की खबरें मिलतीं, उठाता और लिखकर उनके हवाले कर देता। खबरों को लेकर वह मुझ पर विश्वास करते थे। मैं भी खबरों को लिखने से पहले उन्हें खूब ठोक बजा लेता था।
उन दिनों मैं जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के बगल में मनु राम के मकान में रहता था। लादेन पर मैं काम कर रहा था। पूरी कोशिश थी कि लादेन के सर्किल को टच करूं। जामिया इस्लामिया और इसके ईदगिर्द की बस्तियों में आवाजाही बढ़ा रहा था। वहां नशाखोरी के हर अड्डे को खंगाल चुका था। मुझे पता था कि मैं अंधरे में उस अदृश्य शक्ति को टटोल रहा हूं, जिसके पीछे दुनिया भर की खुफिया एजेंसियां लगी हैं। उस वक्त लादेन अफगानिस्तान में मुल्ला उमर के साथ रहता था। जामिया में अफगानी छात्र बहुत बड़ी संख्या में थे। मेरी कोशिश इन्हीं अफगानी छात्रों के बीच अपनी पैठ बनाकर उनका विश्वास पाना था। रणनीति के तहत मैं लादेन के नेटवर्क को बूझने के लिए हाथ-पैर मार रहा था। मुझे यकीन था कि कोशिश एक दिन जरूर रंग लाएगी।
इसी बीच जामिया के होस्टल में एक घटना घटी। जामिया में पढ़ने वाले दो लड़के मेरी कोठरी के सामने रहते थे। उन्होंने मुझे बताया कि उनके एक साथी पर, जो जामिया मिलिया के होस्टल में रहता है, कुछ लोगों ने रात में धारधार हथियारों से हमला किया है। यह खबर मेरी रुचि की थी। मैंने उस लड़के से संपर्क साधा। उसने मुझे जो कहानी बताई उसे सुनकर मैं आश्चर्यचकित था। सुबह स्नान करने के बाद वह हनुमान चालीसा का पाठ करता था। वहां के मठाधीशों को यह नहीं सुहाता था। होस्टल के प्रोक्टर ने भी उसे हनुमान चालीसा का पाठ न करने के लिए समझाया था, लेकिन अपने बचपन के संस्कार को वह नहीं छोड़ पा रहा था। क्लास, होस्टल, लाइब्रेरी जहां कहीं भी वह जाता, उसे धमकी दी जा रही थी। लेकिन हनुमान जी के प्रति उसकी भक्ति जारी रही।
उस विश्वविद्यालय के मठाधीशों के समूह ने उसे सबक सिखाने के लिए आधी रात को चेहरे पर नकाब लगा आठ-दस की संख्या में उस पर हमला बोल दिया। हनुमान भक्त ने उनसे जोरदार मुकाबला किया। उसके चेहरे और कटे-फटे हाथ गवाही दे रहे थे। उस लड़के से बात करने के बाद मैंने मामले की पड़ताल करते हुए हास्टल में दाखिल हुआ। प्रोक्टर ने दबी जुबान से स्वीकारा कि रात को कुछ लड़कों के बीच मारपीट हुई है। उसने यह भी कहा कि जिन लड़कों का नाम इसमें आया है, उन पर पहले से कई मुकदमे हैं। एक और मुकदमा दर्ज कराने से कोई लाभ नहीं होगा।
शाम को जब जामिया की यह रिपोर्ट मैंने सदानंद पांडे के सामने रखी तो उन्होंने इस खबर को प्रमुखता से लगाने को कहा। देर रात जब कमरे लौटा तो उस लड़के को इंतजार करते हुये पाया। मुझे देखते ही उसने कहा, ‘आप इस खबर को प्रकाशित मत कीजिये। मेरा कैरियर बर्बाद हो जाएगा। वे लोग मुझे यहां पढ़ने नहीं देंगे।’ उसकी बातें सुनकर मुझे झुंझलाटह हुई। खबर तो मैं लिख चुका था। मैंने उसे समझाने की कोशिश की पर वह नहीं माना। खबर रोकने का अनुरोध करता रहा। वह काफी डरा था। उसकी हालत देख मैंने सदानंद पांडे को फोन लगाया। वह ऑफिस से निकल चुके थे। मैंने शिफ्ट इंजार्ज को खबर रोकने को कहा। वह असमंजस में था। जब मैंने कहा कि इसकी पूरी जिम्मेदारी मेरी होगी तो उसने मेरी बात मान ली। खबर रोक दी गई।
अगले दिन ऑफिस पहुंचते ही सदानंद भड़क उठे। उनका भड़कना स्वाभाविक था। मैंने उन्हें बताया कि वह लड़का डरा हुआ था। उसे लग रहा था कि यह खबर छपने के बाद वहां के लोग उसे उस कॉलेज में नहीं पढ़ने देंगे। सदानंद पांडे के मुंह से निकला, ‘देश में कानून भी कोई चीज है। उनकी गुंडागर्दी एक मिनट में निकल जाती। एक अच्छी खबर किल कर दी।’ खबर किल करने का दुख तो मुझे भी था, लेकिन कुछ दिनों के बाद जब उस लड़के ने खुद आकर मुझे बताया कि उसका सलेक्शन एनडीए में हो गया है तो अपार खुशी हुई।
वीर अर्जुन की फीचर इंजार्ज सीमा के चेहरे पर हमेशा मुस्कान होती थी। सदानंड पांडे के नाम से वह जरा भड़क उठती थी। शायद दोनों का इगो क्लैश होता था। एक बार सीमा ने मुझसे फीचर पेज पर एक कॉलम देने की बात कही। वह चाहती थीं कि प्रत्येक रविवार को मैं दिल्ली की आर्ट गतिविधियों से संबंधित खबरों पर कॉलम लिखूं। जिस समय वह बोल रहीं थीं उस वक्त मेरी नजर सदानंद पांडे की केबिन पर थी। मेरे उत्तर देने के पहले ही उन्होंने एक सांस में मेरा बाजा बजा दिया। बोली, ‘उधर क्यों देख रहे हो। दूसरे के इशारे पर निर्णय लेते हो, खुद सोचने की काबिलियत नहीं है?’ उनके ये शब्द मुझे अटपटे लगे, लेकिन बहुत जल्द उनको लेकर मैं सहज हो गया। उनके फीचर पेज पर कॉलम लिखना तो शुरू नहीं किया लेकिन कहानियां व किताबों की शुरुआत जरूर कर दी।
जारी….(अगले रविवार को भाग 7 पढ़ें)
पत्रकार आलोक नंदन [email protected] के जरिए संपर्क कर सकते हैं।
प्रदीप कुमार मिश्रा
October 28, 2010 at 3:20 am
ओह! कितना दुखद संयोग है आलोक नंदन जी,
26 अक्टूबर 2008 को आपने वीर अर्जुन अखबार के के.नरेंद्र जी के बारें में अपना संस्मरण भडास फार मीडिया पर पोस्ट किया और 27 अक्टूबर 2010 का दिन उनका अंतिम दिन साबित हो गया। पुरानी पीढ़ी के अनुशासित पत्रकारों में से एक श्री नरेंद्र जी अब हम सबके बीच तो नहीं है, लेकिन उनके कुछ ऐसे ही संस्मरण आप पुनः लिखने का प्रयास करें।
प्रदीप कुमार मिश्रा,
मो. 9953824080
ईमेल- [email protected]